स्लम डॉग बेशक एक सच है....मगर इस सो कॉल्ड डॉग को इस स्लम से निकालना उससे भी बड़ा कर्तव्य आपके ख़ुद के बच्चे का नाम रावण नामकरण,कंस,पूतना,कुता,बिल्ली आदि क्या कभी आप रखते हो....नाम में ही आप अच्छाई ढूँढ़ते हो.....और हर किसी नई चीज़ या संतान या फैक्ट्री या दूकान या कोई भी चीज़ का नामकरण करते हो....नाम में ही आप शुभ चीज़ें पा लेना चाहते हो......स्लम-डॉग........ये नाम........!!नाम तो अच्छा नहीं है ना .......एक अच्छी चीज़ बनाकर उसका टुच्चा नाम रखने का क्या अर्थ है ....क्या इसका ये भी मतलब नहीं आप भारत की गंदगी ....बेबसी .और लाचारी को भुनाना चाहते हो .......क्या इसे दूर करने का भी उपाय किसी के पास है .....??मैं अक्सर देखता आया हूँ कि यथार्थ का चित्रण करते कई साहित्यकार,फिल्मकार,नाटककार,चित्रकार,या अन्य कोई भी "कार" जिन विन्दम्बनाजनक स्थितियों का कारुणिक चित्रण कर वाहावाही बटोरते हैं....पुरस्कार पाते हैं,वो असल में कभी उन परिस्थितियों के पास शूटिंग आदि छोड़कर कभी अन्य समय में खुली आंखों से देखने भी जाते हैं......??एक पत्रकार जिन कारुणिक दृश्यों को अपने कैमरे में कैद करता है,उसका उस स्थिति के प्रति कोई दायित्व है भी कि नहीं.......??क्या हर चीज़ का दायित्व सरकार और उससे जुड़ी संस्थाओं का ही है....??क्या आम नागरिक,जो चाहे कैसे भी चरित्र का क्यूँ ना हो, वो हर चीज़ से इस तरह विमुख होकर जी सकता है......??अगर हाँ तो उसे क्यूँ इस तरह जीने का हक़ देना चाहिए.........??अगर सब लोग इसी तरह सिर्फ़ व् सिर्फ़ गंदगी का चित्रण करने को ही अपना एकमात्र दायित्व समझ कर हर चीज़ को ज्यों का त्यों दिखलाकर अपना कर्तव्यबोध पूरा कर के इतिश्री कर लें तो क्या होगा......??अगर कुछेक संस्थायें जो वस्तुतः ईमानदारी से भारत को भारत बनने के कार्य को बखूबी संपन्न कर रहीं हैं.......आप सोचिये कि वो या कार्य छोड़कर अगर इसीप्रकार का यथार्थ-चित्रण में लग जाए तो क्या होगा....??क्या होगा जो देश के वे सब लोग अपना काम करना छोड़ दें,जो वाकई आँखे नम कर देने लायक,या आँखें खोल देने लायक उत्प्रेरक कार्यों में अनवरत जुटे हुए हैं.....??स्थितियों का वर्णन बड़ी आसान बात होती है.........कलाकारी तो उससे ज्यादा आसान,क्यूंकि आदमी से बड़ा कलाकार इस धरती पर है ही कहाँ....??सच्ची कलाकारी तो इस बात में है.......कि आप भूखी-नंगी जनता के लिए कुछ भी कर पायें......अगर आप इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए कुछ कर सकने में सक्षम नहीं हैं.....या करने को व्याकुल नहीं है......तो आपकी कलाकारी गई चूल्हे में....उन्हीं कुत्तों की बला से,जिनका चित्रण आपने "स्लम-डॉग" में किया है........!!भइया इस तरह के चित्रण को कर के दुनिया के तमाम फिल्मी मंचों पर तालियाँ अवश्य बटोरी जा सकती है.....मगर उससे कुछ भी बदल नहीं पाता........अगर सच में हीरो बनने का इतना ही शौक है........तो आईये इसी स्लम के खुले और विराट मैदान में और कीजिये मजलूमों भूखों-नंगों-अपमानित लोगों के पक्ष में ज़ोरदार आवाज़ बुलंद........!!हम भी देखें कि मुद्दुआ क्या है....आपमें माद्दा कितना है.......कितना है कलाकारी का जूनून....और कितना है जोश जो एक नागरिक को एक नागरिक बनाता है.......और उन्हीं लोगों के कुल जोड़ और उनकी चेतना का कुल प्रतिफल उनका देश.......मेरा वतन सचमुच अपने सच्चे हीरो का इंतज़ार कर रहा है......आईये ना दोस्तों दिखा दीजिये ना अपनी सचमुच की कलाकारी.......यह देश सदियों-सदियों आपका अहसानमंद रहेगा....और इसकी संताने आपकी सदा के लिए कृतज्ञ ....!!
मुक्ति की कामना और बंधन से मोह,
सुलझने की तमन्ना और ऊहापोह की फितरत.......
पैर टिकाये रखने का प्रयत्न और फिसलन का भय.....
मानव के स्वभाव के भीतर क्या है...??
सरल-सा शब्द "मन"और इसकी जटिल सरंचना,
सुलगता हुआ दिल और इसे ठंडा रखने की कवायद.....
उड़ने को बेचैन आत्मा...और मरने से खौफ....
ये सब क्या है...??
आदमी बाहर से दिखता तो कैसा है.....!!
और इसके भीतर क्या है....??
.........अल्लाह रे कुछ तो बता,ये माजरा क्या है....!!
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स्लम-डॉग .........इक सच....इक झूठ.......!!
रविवार, 25 जनवरी 2009
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10 टिप्पणियां:
गणतंत्र दिवस की आपको बहुत बहुत बधाई
कलाकार का काम तो यही है कि समाज की कोई भी अच्छी या बुरी तस्वीर को जस का तस जीवंत प्रस्तुत कर दे. बुरी बात यह है कि विदेशों में भारत की गंदी तस्वीर पेश कर लोग वाह वाही और पैसे कमा रहे हैं. अच्छी तस्वीर पेश करती कोई फ़िल्म आजतक चर्चित नहीं हुई.
बहुत अच्छा......गणतंत्र दिवस की बहुत बहुत शुभकामनाएं।
भइया इस तरह के चित्रण को कर के दुनिया के तमाम फिल्मी मंचों पर तालियाँ अवश्य बटोरी जा सकती है.....मगर उससे कुछ भी बदल नहीं पाता........ सच kha aapne....!
बिल्कुल सही, सटीक और रोचक अंदाज़ में प्रश्न उठाया है आपने ....हमेशा की तरह विदेशियों ने बिना कीचड़ छुए कमल और खुशबू बटोरी है ...
इन बेशर्म मोटी चमड़ी वाले नेताजी को कितना भी कोसो,फर्क नहीं पड़ता.
मेरी दूसरी टिपण्णी गलती से आ गयी इस लिए सन्दर्भ हीन है. क्षमा प्रार्थी हूँ.
bahut sahi kaha hai aapne.. is per hame sochne ki jarurat hai .. aur naa sirf sochne ki balki kuch karne ki..
पता नही इसके निर्देशक उन स्लम्स में रहने वाले बच्चो में से किसी के पढने लिखने का इंतजाम करेगे या नही....या शायद किसी एक ऐसी व्यवस्था को आर्थिक मजबूती देगे जो इन स्लम्स में वर्षो से काम कर रही है.....नैतिक रूप में उन्हें देना चाहिए .....वास्तिविक तौर पे उन्होंने किया है या नही ये भविष्य बताएगा...दरअसल चेतना की फटकार सालो तक रहनी चाहिए सिर्फ़ कुछ दिनों का जोश नही....वैसे भी ये समस्या भारत की है ओर हमारे समाज की....इससे जूझने के लिये हमें सामूहिक प्रयास करने होगे ...सारे समाज को...
khara khara likha hai aapne. bahut si baaton se sahmat hoon. inhein bharat ke liye kuch karna thode hai, inhein market ke liye ek mudda mila, film bana ke bech di, inse kuch aur ki ummid karna bemani hai.
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