भारत का संविधान

"हम भारतवासी,गंभीरतापूर्वक यह निश्चय करके कि भारत को सार्वभौमिक,लोकतांत्रिक गणतंत्र बनाना है तथा अपने नागरिकों के लिए------- न्याय--सामाजिक,आर्थिक,तथा राजनैतिक ; स्वतन्त्रता--विचार,अभिव्यक्ति,विश्वास,आस्था,पूजा पद्दति अपनाने की; समानता--स्थिति व अवसर की व इसको सबमें बढ़ाने की; बंधुत्व--व्यक्ति की गरिमा एवं देश की एकता का आश्वासन देने वाला ; सुरक्षित करने के उद्देश्य से आज २६ नवम्बर १९४९ को संविधान-सभा में,इस संविधान को अंगीकृत ,पारित तथा स्वयम को प्रदत्त करते हैं ।"

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बुधवार, 28 अप्रैल 2010

लिखने वालों, सावधान....!!आगे खड्डा[गढ्ढा] है !!

लिखने वालों, सावधान....!!आगे खड्डा[गढ्ढा] है !!
.....कल मैं अपने रूम में बैठी हुई सोच रही थी कि सोचूं तो क्या सोचूं कि अचानक सामने वाले कोने से दो चूहे निकले और एक दूसरे के पीछे दौड़ने लगे...उनका छुपा-छुपी का खेल देखकर मुझे बड़ा मज़ा आ रहा था.........और आखिरकार वो थक-कर एक ओर निढाल होकर पढ़ गए.....
ब्लागर एक :नाईस
ब्लागर दो :बेहद उम्दा
ब्लागर तीन :बेहतरीन प्रस्तुति
ब्लागर चार :बढ़िया लिखा है
ब्लागर पांच :ब्लागजगत में आपका स्वागत है
ब्लागर छः :बेहद अच्छी रचना,आभार
ब्लागर सात :अच्छा लिखती हो आप,कृपया वर्ड-वेरिफिकेशन हटा लो[ताकि ऐसी उम्दा रचनाओं पर मैं बार-बार आकर आसानी से टिपिया सकूँ ]
ब्लागर आठ :........http:////..............................पे अवश्य पधारें
ब्लागर नौ :.........
ब्लागर दस :..........
अभी-अभी अटलांटा से लौटा हूँ मैं....बहुत थक गया हूँ मगर अपनी ट्रैवलिंग का एक्स्पिरिएन्स आप सबसे शेयर करने से खुद को रोक नहीं पा रहा हूँ ......आपको पता नहीं होगा शायद कि अटलांटा की बरफ एकदम सफ़ेद होती है,झकाझक सफ़ेद और ठोस भी........तो इस तरह बहुत ही रोमांचक रहा मेरा यह सफ़र कभी फुर्सत मिले तो आप भी अटलांटा हो आईये आपको भी बड़ा मज़ा आयेगा.....
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ब्लागर नौ :.........
ब्लागर दस :..........
काली खिड़की पर एक हरा सांप रेंग रहा है
तितलियाँ हंस रही हैं/पर्दा हिल रहा है
लगता है कोई तनहा है और रो रहा है
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ब्लागर दस :..........
"अपनी बेटी का हाथ मेरे हाथों में दे दिया
उसकी अम्मा ने मुझे मरने से बचा लिया
आज फिर वो बला की ख़ूबसूरत लग रही थी
आज फिर मैंने उसके गालों का चुम्मा लिया
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ब्लागर दस :..........
................लिखने वाले धडाधड पैदा होते जा रहे हैं.ब्लागर मंच एक ऐसी जगह हो गया है जहां ठेले वाला,रिक्शेवाला.रेजा,कुली,डॉक्टर,इंजीनियर,अफसर,नेता.
पी.एम्.,सी.एम्.,कलाकार आदि सब के सब एक मिनट के भीतर अपना ब्लाग बनाकर धायं-धायं अपना लेखन पेले जा रहा है,उस लेखन में चाहे वो अपनी योजनायें बताये...चाहे गिनती-पहाडा रटाये,चाहे अपनी दिनचर्या ही क्यूँ ना पढाये कि अपने शौच की प्रक्रिया ही बताने लगे.....मगर क्या है कि हिंदी-लेखन है ना...इससे हिंदी का भला जो होता है...मगर भैया तब तो फिर मस्तराम साहित्य से भी हिंदी का उतना ही भला होता है...बल्कि इसे पढने वाले तो ब्लागरों से निस्संदेह बहुत ज्यादा है....अब ये बात अलग है कि ऐसी हिंदी से हिंदी का क्या भला है यह भी अपन को समझ में आता नहीं...!!
ना व्याकरण,ना लिंग-निर्धारण,ना वचन-संगति,और ना किसी किस्म की "क्वालिटी"ही..............""रात हो गया था हमलोग एक साथ जा रहा था की तभी अँधेरी चंदनी[चांदनी] में /आसमानों में कईएक तारे एक साथ टीमटीमा रहा था कि एक चोर हमको मिले और उन्होंने हमसे सब कुछ को लुट लिया हम तबाह हो गए,बर्बाद हो गए....हम लौट रहे थे खाली हाथ,तलाब का पानी चमचम कर रहा था और उसमे मछलि दौड़ रहा था........ऐसा अद्भुत है यह हिंदी लेखन...जिसे पढ़कर अक्सर सर के बाल और रौंगटे तक खड़े हो जाते हैं....मगर क्या करूँ हिंदी की भलाई के लिए ऐसी ही हिंदी को पढने की विवशता हो गोया...और चिठ्ठाजगत के मेल के थ्रू जब तक मैं इन अद्भुत चिठ्ठों तक पहुँच पाता हूँ....तब तक मुझसे पहले दसियों लोग उपरोक्त टिप्पणियाँ चिपका कर चले जा चुके होते हैं.....
उम्दा-से-उम्दा चीज़ों पर भी नाईस,बेहतरीन,बढ़िया,वाह,सुन्दर....और कूड़े-से-कूड़े पर भी यही नाईस,उम्दा,बेहतरीन,सुन्दर.....यानि कि सब धान साढ़े बाईस पसेरी....और मज़े की बात तो यह है....कि बहुत से वाकई लाज़वाब-से ब्लागों पर कोई जाता तक नहीं...बेशक उनमें अद्भुत और जबरदस्त सामग्री क्यूँ ना हो....!!वहां गलती से तब कोई जाता है जब लिखने वाला खुद किसी ब्लॉग पर टिपिया कर लौटा हो....यह पैकेज-डील यानि कि लेने का देना वाला कारोबार चल रहा है ब्लॉगजगत में...!!हाँ मगर यह है कि ब्लॉगजगत में सभी प्रकार के लिक्खाडों का स्वागत यूँ होता है जैसे हमारी संसद या विधानसभाओं में किसी चोर,उच्चक्के,गुंडे या मवाली का....गोया कि सबसे बड़ा हरामखोर ही यहाँ का सबसे ज्यादा देश-प्रेमी हो !!
कार्य के किसी भी क्षेत्र में कार्य करने के लिए एक न्यूनतम योग्यता....न्यूनतम अहर्ता की आवश्यकता होती है....मगर नेता और लेखक की योग्यता जितनी शून्य हो उतना ही गोया वह सफल व्यक्ति है.....!!यह स्थिति संभवतः भारत के लिए ही निर्मित है.......!!
लिखना तो ऐसा हो गया है जैसे आपने जब चाहा तब "पाद"दिया....जैसे आपके इस अतुलनीय "पाद"से कोई अद्भुत खुशबू आती होओ....या कि कोई विशिष्ट आवाज़.......क्यों भाई लिखना ऐसी भी क्या जरूरी है कि नहीं कुछ जानो नहीं तब भी लिखोगे ही.....!!कि लिखे बगैर तुम्हारी नानी मर जाने वाली होओ....!!कि खुद को व्यक्त नहीं कर पाए तो मर ही जाओगे.....!!क्यों भई तुम्हारे लेखन में ऐसा कौन-सा सरोकार....किस प्रकार की चिंता.....या कौन से सामाजिक दायित्व....या कौन-सी हिंदी की जिम्मदारी झलकती है कि जिसके लिए तुम्हें सराहा जाए कि तुम्हें नमन किया जाये जाए कि स्वागत ही किया जाए....??मगर तब भी तुम्हारा स्वागत है कि तुम तो हिंदी बुढ़िया के अथिति हो....इस तरह उसके देवता हो.....!!तुम्हारा स्वागत है....इसलिए कि तुम भी हमारे ब्लॉग पर आओ....पढो....टिपिआओ....जाओ.....!!
हमने तो वर्ड-वेरिफिकेशन हटा दिया है अब आप भी हटाओ.......
ये सब क्या हो रहा है...समझ ही नहीं आता....मेरे प्यारे लिक्खाडों....प्रत्येक चिठ्ठे पर प्यारी,उम्दा,बेहतरीन,नाईस कहने वालों क्या तुम्हें उबकाई नहीं आती..
....??क्या तुम्हारा जी नहीं मिचलाता....तुम किसी भी भेद-बकरी-मेमने पर महज इसलिए टिपिया आते हो कि वो तुम्हारी फोटो पर क्लिक करके "तुम"और "तुम्हारे" ब्लाग तक पहुँच जाए.......तुम्हारा फोलोवर बन जाए....??......फूलों की कटाई-छंटाई के लिए जैसे माली की दरकार होती है....वैसे ही अच्छी रचना को हम तक पहुँचने में सम्पादक नामक एक खलनायक कि मगर अब तो हर कोई सम्पादक है...मैं चाहे ये लिखूं...मैं चाहे वो लिखूं...मेरी मर्ज़ी.....इस तरह "उम्दा"लिकने वालों का तांता बढ़ता ही जा रहा है...और उससे भी ज्यादा उनपर टिपियाने वाले लोगों की तादाद.....और एक विशाल खड्डा{गड्ढा}तैयार होता जा रहा है जहां फ़िल्टर किया हुआ स्वच्छ पानी और मल-मूत्र सब एक ही जगह समा जा रहा है....क्या अच्छा है...क्या बुरा....इसका भी भेद भी मिटता जा रहा है....कितने अच्छे है ब्लागर लोग,जो ना बुरा देखते हैं...ना बुरा सुनते हैं.....ना बुरा बोलते हैं....कितने विनम्र....कितने प्यारे.....!!
लेकिन मेरे प्यारे बिलागारों इस प्यारे और अनुकूल वातावरण में ही ब्लॉगजगत के सड़ने के बीज पनपने लगें हैं....और अगर तुम सबने ध्यान नहीं दिया तो...हजारों की संख्या के ब्लॉगों में कोई दर्जन ब्लॉग भी ढंग के साहित्य के ढूढने असंभव हो जायेंगे जहां कि तुम्हारा चित्त शांत हो सके...हिंदी कि हिंदी करना अब बंद भी करो...और अभी इसी वक्त से सोचना और करना शुरू कर दो कि किस तरह हिंदी ब्लाग को परिपक्वता मिले....इसे कैसे बचाएं(अरे!!अभी ही तो पैदा हुआ था...!!??)
यहाँ कैसे क्वालिटी प्रोडक्ट को ही बढ़ावा मिले.....यहाँ पर देश-काल-समाज-और यथार्थ से वास्तविक सरोकार रखने वाली चीज़ें पुष्ट हों.....अच्छा मगर अशुद्द लिखने वालों का मार्गदर्शन कैसे हो....घटिया चीज़ों की अवहेलना करनी ही हो....बहुत-सी चीज़ों में तथ्यात्मक गलतियों का निराकार तत्काल ही कैसे हो....ग़ज़ल लिखने वालों को गलतियां विकल्प-सहित कैसे चिन्हित की जाएँ.[गज़लें मैं खुद भी गलत लिखता हूँ....अलबत्ता अपने विषय और दूसरी अन्य बातों के कारण माफ़ कर दी जाती हैं]
यह तो गनीमत है कि ब्लॉगजगत में ऐसे अद्भुत लोग हैं जिनको पढ़ना किन्हीं नाम-चीन लेखकों को पढने से भी ज्यादा सुखद आश्चर्य होता है मगर यह भी तब अत्यंत दुखद हो जाता है जब वो भी किसी ऐरी-गैरी रचना पर वही नाईस-उम्दा-बेहतरीन-सुन्दर की टिप्पणी चेप कर चले आते हैं....कि वो भी भलेमानुषों की तरह उनके ब्लॉग पर आने का कष्ट करें....इस तरह एक अच्छा और उम्दा मंच बन सकने वाली जगह एक कूड़े-करकट के ढेर में तब्दील होती जा रही है....जल्दी ही जिसमें मोती का एक दाना भी खोजना मुश्किल हो जाएगा....इसलिए देवी सरस्वती के हे प्यारे और विनम्र साधकों....इस जगह को सबका शौचालय बनने से बचा लो...तुम्हारी हिंदी का भी कल्याण हो जाएगा.....और तुम्हारे बच्चे जीयें....ऐसी मेरी प्रार्थना है....!!एक बार बोल दो ना प्लीज़.....क़ुबूल.....क़ुबूल......क़ुबूल......! !
शनिवार, 24 अप्रैल 2010

bhoot ka parichya.....................

मैं भूत बोल रहा हूँ..........!!
पिघलता जा रहा हूँ, ये क्या हो रहा है मुझे ?

ओ सूरज,मैं आँख-भर नहीं देख पाता तुझे !!

मैंने किसी के दुःख में रोना छोड़ दिया अब

कितने ही गम और परेशानी हैं खुद के मुझे !!

दिन से रात तलक खटता रहता हूँ बिन थके

उम्र गुजरने से पहले कहाँ है आराम मुझे !!

ना जाने किन चीज़ों के पीछे भाग रहा हूँ

उफ़ ना जाने ये क्या होता जा रहा है मुझे !!

किसी जगह टिक कर रोने को दिल है आज

ऐसा क्यूँ हो जाता है अक्सर''गाफिल''मुझे !!..

८८८८८८८८८८८८८८८८८८८८८८८८८८८८८८८८८८८

८८८८८८८८८८८८८८८८८८८८८८८८८८८८८८८८८८८

किसी शै समझ नहीं पता की क्या करूँ

किसी के कंधे से जा लगूँ और रो पडूँ !!

जिन्दगी अगर इसी को कहते हैं तो फिर

इसी वक्त मर जाऊं,अपनी लाश दफना दूँ !!

कोशिशें,नाकामियाँ,गुस्सा और नफरत,उफ़

घुट-घुट कर रोता रहूँ और बस रोता रहूँ !!

ऊपरवाले का होगा कई सदियों का इक बरस

मैं क्यूँ पल-पल,कई-कई सदियाँ जीता रहूँ !!

इतना हूँ बुरा तो वक्त मार ही दे ना मुझे

उम्र की किश्ती के साथ किनारे जा लगूँ !!

बहुत तड़पती हैं ये धडकनें दिल के भीतर मेरे

दिल को निकाल कर फेंक दूं बेदिल ही जिया करूँ !!

मैं अपने-आप से भाग भी जाऊं तो जाऊं कहाँ

इससे तो अच्छा है कि खुद में ही गर्क हो रहूँ !!

कई दिनों से सोचा था खुद के बारे में कुछ लिखूं

अपने हर इक हर्फ़ में मैं कुत्ते की मौत मरता रहूँ !!

uuuuuuuuuuuuuuuuuuuuuuuuuuuuuuuuuuuu

uuuuuuuuuuuuuuuuuuuuuuuuuuuuuuuuuuuuu

मेरा परिचय :

नाम : राजीव कुमार थेपड़ा [वर्मा]

पिता : स्व किशन वर्मा

जन्म-तिथि :24 सितम्बर 1970

शिक्षा :बी ए आनर्स [दर्शन-शास्त्र]

रूचि :रंगमंच,गायन,लेखन तथा सामाजिक गतिविधियों में सक्रिय [था]

विशेष :1997 में इन्डियन फ़िल्म एन्ड थियेटर अकादिमी [दिल्ली] के टापर

अभिनय-गायन-लेखन-निर्देशन में सैंकड़ों मंचन

पत्र-पत्रिकाओं में यदा-कदा प्रकाशित

चंडीगड तथा इलाहाबाद से सुगम तथा शास्त्रीय संगीत में संगीत-प्रभाकर

इन सभी क्षेत्रों में कई पुरस्कार

आकाशवाणी रांची के कलाकार

मगर फ़िलहाल पैकिंग मैटेरियल के व्यापार में सक्रिय [सभी शौक जो ऊपर उल्लिखित हैं,उनसे किनारा !!]

कार्यालय : प्राची सेल्स

नोर्थ मार्केट रोड

अपर बाजार,रांची

सम्पर्क : 09934305251/093060035/0651-3042630..

http://baatpuraanihai.blogspot.com/

http://ranchihalla.blogspot.com/

http://bhadas.blogspot.com/

http://kabirakhadabazarmein.blogspot.com/

http://dakhalandazi.blogspot.com/
मंगलवार, 20 अप्रैल 2010

वागर्थ के सम्पादक के नाम एक पत्र......!!

सेवा में
श्री विजय बहादूर सिंह जी
चरण-स्पर्श
वागर्थ के अप्रैल २०१० के अंक में आपका लेखक जात के प्रति रोष भरा आलेख पढ़ा हालांकि यह आलेख के अनुपात में मुझे एक जीवंत आख्यान लगा...यह आख्यान इस स्वघोषित विद्वानों के बाप लोगों के लिए एक आईना भी है....मगर विद्वता एक ऐसी चीज़ है जिसके कारण एक व्यक्ति अपने-आप को एक स्वयंभू सम्राट समझ बैठता है...ज्ञान के घोर और असीम अहंकार में डूबकर वह अपने-आप को देखना तक छोड़ देता है...अपने बारे में सोचना तो बहुत दूर की बात है,
ज्ञान का अहंकार दरअसल एक तरह से आदमी के सम्मुख एक अँधेरा पैदा कर देता है....उस अँधेरे में अच्छे-से-अच्छे ज्ञानि को भी रास्ता नहीं सूझता...एक और विशेष बात तो यह भी है ज्ञान का दर्प एक ऐसी अंधी गली है जिसमें भटक कर अनेकानेक सूरमाओं ने आखिरकार अपना गौरव-अपनी इज्ज़त खोयी है फिर भी यह बुद्धि नाम की जो अपरिमित-अपरिभाषेय-निराकार-सी चीज़ है वो हमें अपने कहे गए-सोचे गए सच या तथ्य के अलावा किसी और के सच या तथ्य को सच या तथ्य मानती ही नहीं....कहते हैं ना कि उपरवाला सबके कान में यह फूंककर धरती पर भेजता है कि उसके अलावा कोई अन्य श्रेष्ठ ही नहीं...यह मुगालता एक तरफ तो आदमी के सरवाइव करने का रास्ता है तो दूसरी तरफ दूसरों से अनवरत एक किस्म की फ़िज़ूल की जंग का वाहक भी...बेशक आदमी में तरह-तरह की बुद्धि है मगर खुद को श्रेष्ठ समझने की प्रवृति इस कदर भयंकर है कि जिसके आगे विश्व का सबसे बड़ा ज्वालामुखी भी फेल है,यही वो प्रवृति है जिससे आदमी आगे भी बढ़ता है,हर एक आदमी अपनी ही तरह के एक अनूठे इंसान में विकसित होता है...तो दूसरी तरफ अपनी कुछ "अनुठताओं"के सामने दुसरे की "दूसरी" तरह की "अनुठताओं" को हेय और विकृत समझ लेता है और यहीं से हर इंसान के बीच एक अंतहीन लड़ाई शुरू होती है जो हरेक इंसान की मौत के साथ ही ख़त्म होती है...अन्य मानवेत्तर प्राणियों को देखें तो हम पाते हैं कि वो सिर्फ पेट की भूख,रहने की जगह और स्त्री पर कब्जे के लिए आपस में लड़ते हैं,जो सरवाईव करने के लिए बुनियादी चीज़ें हैं....आदमी में बुद्धि का इजाफा शायद ऊपर वाले की ओर से आदमी को अपने-आप को समझने के लिए एक नेमत है,जिसे आदमी ने महज अपने अहंकार की लड़ाई में गवां दिया है.....हम मानते हैं कि धरती पर आदमी "सबसे" श्रेष्ठ है [काश होते भी !!]मगर ताज्जुब यह है कि हर आदमी यही माने बैठा है कि एक वही "सबसे" श्रेष्ठ है और यह भाव सबसे ज्यादा लेखक-साहित्यकार-विद्वान-कलाकार नाम की जात में है....दैनिक व्यवहार में विचित्र-फूहड़-मैले और दकियानूसी व्यवहार से परिपूर्ण ये "जातें" यह तनिक भी नहीं देखती कि अभी-अभी उन्होंने परदे पर क्या जीया है....कि किताबों में क्या लिखा है....कि क्या रचा है....क्या गढ़ा है... इस तरह ये लोग अपने ही रचे....जिए....लिखे....गढ़े....चरित्रों से इतना-इतना-इतना ज्यादा अलग हो जाते हैं कि कभी-कभी तो ऐसा भी लगने लगता है कि सामने वाला क्या सचमुच वही है...जिसके रचनाकर्म या सृजन ने हमें इतना गहरे तक प्रभावित किया है....सच कहूँ तो अगर हम किसी के लेखन-अभिनय-या किसी भी किस्म की कलाकारी की कसौटी पर उसके सृजक के ही चरित्र को धर दें....तो हम समझ भी नहीं पायेंगे कि क्या सच है और क्या झूठ....सब कुछ धुंआ-धुंआ हो जाएगा...हमारे सारे ख्यालात गर्दो-गुबार में खो जायेंगे...सच कहूँ तो हम चक्कर-घिन्नी ही खा जायेंगे....हमारे सब तरफ तमाम तरह के झूठों के साथ सच इस कदर बौने की तरह चस्पां है कि हमें सच्चाई के होने का अहसास ही नहीं हो पाता....इस तरह से सच्चाई कमज़ोर पड़ती जाती है....दरअसल सच्चाई ही बौनों के हाथ में जा पड़ी है....हम तक पहुँच कर मानव के समूचे गुणों की "बोनासायी"हो जाती है....आदमी बाहर-बाहर जितना विकसित होता दिखता है....भीतर-भीतर उतना ही "लंठ" होता जाता है....मगर दिक्कत तो यह है कि जो वो बनता जाता है....वो दिखना नहीं चाहता.....जो वो दिखाई पड़ता है वो वो होता नहीं...यह विरोधाभास एक नयी परिस्थिति को जन्म देता है...वो है "पाखण्ड".....और उपरोक्त बिरादरी का सारा कार्य-व्यापार इसी एक विशेषण के इर्द-गिर्द फैला है....मैं तो अभी महज चालीस वर्ष का एक जीव हूँ...मगर इन चालीस वर्षों में मैंने जो देखा-भोग-सहा है....उससे मेरी आँखे और ह्रदय फटा-फटा जाता है...."विजय दा" आपने इस आख्यान में एकबारगी जैसे सबकी धज्जियां बिखेर दी हैं....आप और कुछ बोलो....मैं ज़रा इन धज्जियों को समेत लूं.....!!इस माहौल को ज़रा अलग कर दूं....पेश है एक कविता जो दो दिनों पूर्व ही लिखी थी.....
जिस वक्त कोई नहीं था / उस वक्त कोई तो था,
जिसने मे्रे कान में कुछ कहा था धीरे से –

तुझे भेज रहा हूं मैं एक ऐसी वादी में,

जहां से वापस आने का तेरा जी ही ना चाहे-

मगर मु्झे भूल मत जाना तू वहां जाकर;

और मैं यहां चला आया,जहां कि मैं आज हूं !!

जिस वक्त मैं किसी से कर रहा था बातें,

वो “किसी” कोई और नहीं “मैं” खुद ही था,

और वो “खुद” कौन था,अगर कोई और नहीं था ??

मैं बहुत हैरान और परेशान होता रहा यहां आकर,

मगर जब उसके “जबरन” बुलावे पर वापस होने लगा,

मुझे अपने भीतर एक असीम शान्ति का अह्सास हुआ;

मगर अगर धरती पर हैरानी-परेशानी,दुख-सुख का,

ऐसा शाश्वत और अन्तहीन साम्राज्य था,

तो यह असीम-अगाध शान्ति कहां से पैदा हुई ?

शायद मेरे भीतर से, तो जो मेरे भीतर था-

वो कौन था ? वो मैं तो न था !!

मैं सुख में उसे भूल जाया करता था और

दुख् में उसी के दर पर जाकर गिडगिडाया करता था,

जिसने मुझे यहां भेजा था,

मेरे कान में धीमे से कुछ कहकर !!

मुझे यह भी नहीं पता कि वो मेरे हालात पर,

रोता था कि हंसता था,मगर मैं जब उसका-

ध्यान करता तब वही शान्ति और आनंद पाता था,

अलबत्ता तो मैं ईमानदारी से ध्यान भी न करता था,

मगर जब भी यह कर पाता था,

तब खुद में शाश्वत जीवन पाता,मौत से निर्भय होता !!

फ़िर भी पता नहीं क्यों अपनी समस्त समझ के बावजूद,

मैं अपने भीतर न रहकर बाहर-बाहर ही मारा-मारा फ़िरता;

आवारा-सा;बज़ारा-सा ,हैरान और परेशान तन्हा और बेकरार !!

कोई मूझे आवाज़ भी देता,भीतर से कि बाहर से-

शायद भीतर ही से……

तो क्या मुझे यहां भेजने वाला……

मुझे यहां भेजने के पूर्व/मेरे ही भीतर समा गया था ??

हां….…!!…कोई तो था…वरना यह आवाज़ कौन देता था ??

कोई हो ना हो मगर कोई तो है,जो मुझे रखे हुए है !!

और कान वैसे ही थोडा ना बजा करते हैं;

हवा की तरह सायं-सायं……!!
शनिवार, 17 अप्रैल 2010

चिन्ताएं.......!!

मैं भूत बोल रहा हूँ..........!!

चिन्ताएं !!
चिन्ताएं-एक लंबी यात्रा हैं-अन्तहीन,
चिन्ताएं-एक फ़ैला आकाश है असीम,
चिन्ताएं-हमारे होने का एक बोध हैं,
साथ ही हमारे अहंकार का एक प्रश्न भी !!
चिन्ताएं-कभी दूर ही नहीं होती हमसे,
अन्त-हीन हैं हमारी अबूझ चिन्ताएं,
जो हमारे कामों से ही शुरू होती हैं,
और हमारे कामों के बरअक्श वो-
हरी-भरी होती जाती हैं या फ़िर,
जलती-बूझती भी जाती हैं !!
एक काम खत्म तो दूसरा शुरू,
दूसरा खत्म तो तीसरा शुरू,
तीसरा………
हमारे काम कभी खत्म ही नहीं होते,
और उन्हीं की एवज में खरीद ली जाती हैं,
कभी ना खत्म होने वाली अन्त-हीन चिन्ताएं !!
चिन्ताएं-हमारी कैद हैं और हमारा फ़ैलाव भी,
चिन्ताएं-हमारा समाज हैं और हमारा एकान्त भी,
चिन्ताएं-कभी हमारा अमुल्य अह्सास हैं,
तो कभी जिन्दगी के लिए इक पिशाच भी !!
चिन्ताएं प्रश्न हैं तो कभी उनका उत्तर भी !!
हमारे बूते के बाहर होने वाली घट्नाओं पर-
हम कुछ कर भी नहीं सकते चिन्ता के सिवाय !!
और मज़ा यह है कि-
जिसे समझते हैं हम अपना खुद का किया हुआ-
होता है कोई और ही वो सब हमसे रहा करवा !!
जिसे माना हुआ है हमने अपना ही करना,
उसी से दौड़ी चली आ रही हैं हमारी चिन्ताएं !!
चिन्ताएं हमें जलाती भी हैं और बूझाती भी-

चिन्ताओं में यदि थोडा गहरा जायें अगर
तब जान सकते हैं हम अपने होने का वहम,
अपने अस्तित्व के प्रश्न की अनुपयोगिता,
और हमारी चिन्ताओं की असमर्थता !!
हमारे हाथ-पैर मारने की व्यर्थता
दरअसल….दूर आसमान में एक बडा सा खूंटा है-
जिसे कहते हम ईश्वर-
उस खूंटे से अगर हम
अपनी चिन्ताओं को बांध सकें-
आज़ाद हो सकते हैं-
अपनी ही चिन्ताओं के कैद्खाने से हम !!
गुरुवार, 15 अप्रैल 2010

बेचैन आत्मा के ब्लॉग से लौटकर..!!



सचमुच आप भी बड़े बेचैन ही हो....शायद इसलिए ये नाम आपने अपना रखा हो....मेरी समझ नहीं आया कि अपनी बेचैनी का क्या करूँ....और कैसे व्यक्त करूँ सो मैं भूत ही बन गया....बेचैन मैं भी हूँ और यह बेचैनी भी ऐसी कि किसी तरह ख़त्म ही नहीं होती....क्या करूँ...क्या करूँ....क्या करूँ....जो कुछ हमारे आस-पास घटता है, जिसमें कभी हम कर्ता भी होते हैं...कभी शरीक...कभी गवाह....किसी भी रूप में हमारी जिम्मेवारी...हमारी जवाबदेही ख़त्म नहीं होती....मगर हम लिखने वाले शायद कभी भी खुद को कर्ता नहीं मानते....और इस नाते कभी भी कसूरवार भी नहीं होते....जो कुछ होता है...किसी दूसरे के द्वारा...किसी और के लिए....होता है...लिखने वाले यह सब किसी और ग्रह से देख रहे होते हैं....उनका काम है देवताओं की तरह सब कुछ देखना और करूणा से आंसू बहाना....उनके आंसू बहते रहते हैं...बहते आंसुओं के बाईस वो खुद भी गोया देवता ही बन जाते हैं.....और पब्लिक द्वारा अपनी चरण-वन्दना करवाते हैं....पब्लिक को आशीष देते हैं और यह आश्वासन कि समय रहते सब ठीक हो जाएगा...ऐसा बरसों से चला आ रहा है और लेखक नाम की जात अपनी पूजा करवाती आत्मरति में मग्न है...इसको अपने लेखक होने का अहसास भले हो मगर उसके लेखन का औचित्य क्या है उसके लेखन में जनता-जनार्दन के लिए क्या भाव है....जनता उससे सचमुच जुडी हुई है कि नहीं...जिनको वो सरोकार कहते हैं....वो दरअसल किसके सरोकार हैं....और लेखक समुदाय के बीच जो तरह-तरह के गुट-समुदाय हैं और उनकी जो राजनीति है...वो किन सरोकारों और किस करुणा से अभिप्रेरित है...यह सब मुझे भी बेचैन करता है आत्मा तो मैं भी बेचैन हूँ मगर इस सबको बदलने के लिए कुछ कर पाने खुद को असमर्थ पाता हूँ सो वर्तमान से भूत हो गया हूँ.....मगर ऐसे सभी लोगों का मैं मित्र हूँ....जो सचमुच बेचैन हैं....और साथ ही सबके भले के लिए प्रयास रत भी....काश उपरवाला हम सबको इतनी बुद्धि भी दे पाता कि हम सब अपने अहंकार से बस ज़रा-सा ऊपर उठकर सोच पाते....सबके सुख के लिए अपने खुद के हितों की थोड़ी-सी बलि दे पाते.. हम सब अपनी आलोचना खुद कर पाते....सचमुच ही सबसे प्यार कर पाते....तब यह सब जो धोखेबाजी वाला ढकोसला हम सब रचते रहते हैं...यह प्रपंच हमें कभी करना ही ना पड़ता.....और इंसान नाम की यह चीज़ सचमुच एक भरोसे की चीज़ बन पाता.....हमने कुत्ते के नाम को आदमियों के बीच गाली बनाया हुआ है....अरे नहीं-नहीं तमाम जानवरों को ही हमने अपने बीच गाली बनाया हुआ है... मगर मैं एक भूत आज यह चुनौती सब आदमियों को देता हूँ कि है कोई माई का लाल जो दुनिया के किसी भी पशु से अपनी वफादारी की तुलना कर सके....प्रकारांतर से मैं यह कहना चाहता हूँ सबको पहले एक सच्चा पशु तो बन कर दिखाए वह.....आदमी होने के लिए तो उसके बाद और भी मंजिलें तय करनी होंगी.....!
रविवार, 11 अप्रैल 2010

चलो धूप से बात करें............

मैं भूत बोल रहा हूँ..........!!!

कभी-कभी यूँ भी हो जाता है कि कोई चीज़ पढ़कर दिल उतावला सा हो जाता है...आज अभी-अभी मेरे साथ ऐसा ही हुआ...कि इक छोटी सी हिंदी ग़ज़ल मैंने पढ़ी और दिल यूँ बाग़-बाग़ हो गया कि गर्मी के मौसम में जैसे इस बाग़ से मीठे-मीठे आम बस गिरने ही वाले हों..इस मीठी-सी ग़ज़ल को पढ़कर नहीं महसूस कर ऐसा ही लगा और अब इसे रज़िया जी की अनुमति के बगैर आपको अपने ब्लॉग पर ही पढवा रहा हूँ....आप दाद दो उनको,मुझे तो ऐसी खुजली हुई कि मैंने दाद-खुजली सब उनको दे डाली है....उनका लिंक और मेल भी साथ ही लिख रहा हूँ.. अब जिसकी चाहे जैसी मर्ज़ी....रज़िया जी आपको बुरा लगे तो मुआफ कर देना....अच्छा लगे तो भी मैं तो हूँ ही नहीं.....!!
Monday, April 5, 2010
चलो धूप से बात करें ` ` `
कुछ कारणो से लम्बे समय से ब्लागजगत से दूर रही. आज एक रचना के साथ लौट रही हूँ.



चलो धूप से बात करें

अब तो शुभ प्रभात करें

.


रिश्ता-रिश्ता स्पर्श करें

अब तो ना आघात करें

.


सुनियोजित करते ही हैं

कुछ तो अकस्मात करें

.


तेरे-मेरे अपने है-सपने

फिर किसका रक्तपात करें

.

नेह का प्यासा अंतर्मन

कोई नया सूत्रपात करें

Posted by Razia at 6:05 AM
Labels: ग़ज़ल

http://razia-unlimited-sky.blogspot.com/

kazmirazia@yahoo.com
और मेरे उतावले बावरे दिल ने यूँ उनपर अपना प्यार लुटाया....(नीचे देखिये ना...फिर....!!)

हर इक पंक्ति ने मिरे भीतर तक गहरा असर किया
उफ़ रज़िया ये तूने क्या लिख,दिया क्या लिख दिया !
उर्दू की वीणा पर मधुर एक तान सी क्या छेड़ दी
तेरे इस मीठे संगीत ने हिंदी का भी भला कर दिया !
अगर तू इसी तरह वापस लौटा करती है तो वापस जा
इस पछुआ की पवन ने दिल को हरा-भरा कर दिया !
जब भी पढ़े हैं हमने गाफिल किसी के प्यारे-प्यारे हर्फ़
भीतर से निकाल कर यूँ वां अपना दिल ही रख दिया !!
बुधवार, 7 अप्रैल 2010

आसमान तुम्हे देख रहा है !!




मैं भूत बोल रहा हूँ..........!!
ऐय मित्र
आसमान तुम्हे देख रहा है
गर्दन ऊपर उठाओ,आँखे ऊँची करो
ऊपर देखो कि सारा का सारा दिन
टकटकी लगाये यह आसमान तुम्हे देख रहा है!!
शायद तुम्हे यह तो पता ही होगा कि
तुम्हारे होने के बहुत-बहुत-बहुत पहले भी
बहुत-बहुत-बहुत कुछ गुजर चूका है आसमान के नीचे,
आसमान ने देखी है आसमान के नीचे होने वाली
तुम्हारे ईश्वरों की सारी भगवतलीलाएं और
तमाम संत-महात्माओं को भी देखा है आसमान ने !!
धरती के सभी सिकंदरों के हश्र का गवाह है आसमान
लेकिन यह भी सच है कि इसने कभी किसी को कुछ नहीं कहा है
जिसने जो किया,उसे देखा भर है किसी साक्षी की तरह
अगर तुम अपनी किसी भीतरी नज़र से आसमान को देखो-
तो सुनाई देंगी तुम्हे उसकी अस्फूट ध्वनियाँ
और उन ध्वनियों में अन्तर्निहित सारगर्भित अर्थ !!
आसमान तुम्हारी तरह शब्द नहीं बोलता-
लेकिन जब वह बोलता है-
तो ऐसा नहीं हो सकता कि तुम, "तुम" रह जाओ !!
आसमान को अगर तुम महसूस कर पाओ
तो वह तुम्हे "तुम" नहीं रहने देता,
जो कि तुम हो भी नहीं, और आसमान पर
प्रत्येक क्षण तुम्हारी पदचाप लिखी जा रही है !!
आसमान पर लिखा हर इक हर्फ़ अमिट है और
हर क्षण इक नया निशां बनता जा रहा है,
तुम्हारे अपने ही हर कर्म से,कर्मों की श्रृंखला से-
कर्म का फल मिल जाना ही कर्म का ख़त्म हो जाना नहीं है
कर्मफल के बाद भी कर्म है और उसके के उसके बाद भी कर्म !!
कर्म तो अनंत कर्मों की एक अंतहीन झड़ी है
और तुम-सब (हम) उसकी इक छोटी-सी कड़ी !!
तुम अपने से ठीक पहले वाले बुलबुले के ठीक बाद के बुलबुले हो !!
और तुम्हारे बाद के बुलबुले तुम्हारी खुद की संतानें !!
ए मित्र-
इसलिए तुन्हारे कर्मों में ही सन्निहित है-
तुम्हारी अपनी ही संतानों का आगत,भविष्य !!
तुम जो कुछ यहाँ पर कर रहे हो-
उससे निश्चित हो रहा है तुम्हारी संतानों का भी कर्मफल,
इसलिए मेरा तुम्हे यह बताना भी तो फिजूल ही होगा-
कि तुम्हे धरती पर अपने बच्चों के लिए क्या करना चाहिए;
धरती को बचाने के लिए क्या करना चाहिए,
और धरती को स्वर्ग बनाने के लिए क्या.....!!??
तुम जानो-ना जानो....देखो-ना देखो....मगर
आसमान तुम्हे देख रहा है-तुम्हारे ही कहीं भीतर से !!
रविवार, 4 अप्रैल 2010

पता नहीं अच्छाई का रास्ता इत्ता लंबा क्यूँ होता है...!!

मैं भूत बोल रहा हूँ..........!!
पता नहीं अच्छाई का रास्ता इत्ता लंबा क्यूँ होता है...!!
पता नहीं अच्छाई को इतना इम्तहान क्यूँ देना पड़ता है !!
पता नहीं सच के रस्ते पर हम रोज क्यूँ हार जाया करते हैं !!
पता नहीं कि बेईमानी इतना इठला कर कैसे चला करती है !!
पता नहीं अच्छाई की पीठ हमेशा झूकी क्यूँ रहा करती है !!
उलटा कान पकड़ने वाले इस जमाने में माहिर क्यूँ हैं !!
बात-बात में ताकत की बात क्यूँ चला करती है !!
तरीके की बातों पर मुहं क्यूँ बिचकाए जाते हैं !!
सभी जमानों में ऐसा ही देखा गया है,
कौए को तो खाने को मोती मिला करता है,
और हंस की बात तो छोड़ ही दें ना....!!
हर बार हमने देखा है कि सच की जीत ही होती है,
मगर तब तक क्या बहुत देर नहीं हो चुकी होती ??
जिन्दगी भर अच्छाई अपनी जगह से निर्वासित रहे,
और अंत के कुछ दिनों के लिए ताज मिल भी जाए तो क्या है !!
फिर सच को इस तरह से जीतने की खाज ही क्या है !!
क्या हम अभिशप्त हैं ता-जिन्दगी राक्षसों का नर्तन देखने के लिए ??
चिता पर कोई देवता तब आ भी जाए तो क्या है !!
दुनिया अगर स्वर्ग होने के लिए ही है,
तो नरक का ऐसा भयंकर कोढ़ बहुत जरूरी है क्या ??
कोई कुंदन होने के लिए जीवन भर भयंकर आग में जलता रहा करे !!
फटी-फटी आँखों से वह यह सब नारकीय-सा देखता रहा करे !!
शान्ति के लिए युद्ध, ऐसा भी क्यूँ लाजिमी होता है ??
शान्ति पाने के आदमी अपना सब-कुछ क्यूँ खो देता है ??
तब भी शान्ति मिल ही जाए यह कोई ऐसा जरूरी भी नहीं !!
शान्ति के ऐसे यज्ञ के आयोजन का प्रयोजन भी क्या है !!
हम किस बात के लिए पैदा हुआ करते हैं ??
धरती को अपने शरीर का मल और इंसान को,
अपने विचारों की हिंसा का मल प्रदान करने के लिए ??
अगर ऐसा ही है तो हमारा होना ऐसा भी क्या जरूरी है ??
और अगर हम ही ऐसे हैं तो -
खुदा जैसी किसी को हमारे बीच लाना जरूरी है क्या ??

 
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