भारत का संविधान

"हम भारतवासी,गंभीरतापूर्वक यह निश्चय करके कि भारत को सार्वभौमिक,लोकतांत्रिक गणतंत्र बनाना है तथा अपने नागरिकों के लिए------- न्याय--सामाजिक,आर्थिक,तथा राजनैतिक ; स्वतन्त्रता--विचार,अभिव्यक्ति,विश्वास,आस्था,पूजा पद्दति अपनाने की; समानता--स्थिति व अवसर की व इसको सबमें बढ़ाने की; बंधुत्व--व्यक्ति की गरिमा एवं देश की एकता का आश्वासन देने वाला ; सुरक्षित करने के उद्देश्य से आज २६ नवम्बर १९४९ को संविधान-सभा में,इस संविधान को अंगीकृत ,पारित तथा स्वयम को प्रदत्त करते हैं ।"

Visitors

सोमवार, 29 मार्च 2010

हे दुनिया की महान आत्माओं...संभल जाओ....!

मैं भूत बोल रहा हूँ..........!!
मेरी गुजरी हुई दुनिया के बीते हुए दोस्तों.....मैं तो तुम्हारी दुनिया में अपने दिन जीकर आ चूका हूँ....और अब अपने भूतलोक में बड़े मज़े में अपने नए भूत दोस्तों के साथ अपनी भूतिया जिन्दगी बिता रहा हूँ....मगर धरती पर बिताये हुए दिन अब भी बहुत याद आते हैं कसम से.....!!अपने मानवीय रूप में जीए गए दिनों में मैंने आप सबकी तरह ही बहुत उधम मचाया था....और वही सब करता था जो आप सब आज कर रहे हो....और इसी का सिला यह है कि धरती अपनी समूची अस्मिता खोती जा रही.... अपने वातावरण से बिलकुल मरहूम होती जा रही है....इसके पेड़-पौधे-नदी-जंगल-तालाब-पहाड़-मौसम और वे तमाम चीज़ें जिनसे हमारा जीवन सुन्दर-प्यारा-रंगीला और सुकुनदायक बनता है उन्हें हम सबने पागलों की तरह ऐसा इस्तेमाल कर डाला,कि ये सारी नेमतें धरती से समय से पूर्व ही नष्ट हो चली हैं,यहाँ तक कि इसके तरह तरह के जीवनदायक मौसम जो हमें आनंद प्रदान करते थे....आज हमें तनाव प्रदान कर रहे हैं.....हम सबने अमीर-अमीर और अमीर बनने के लालच में धरती के समूचे संसाधनों को भुक्खड़ों की तरह गपचा डाला....और बड़े-और बड़े-और बड़े होने के अहंकार को पुष्ट करने के लिए हम सब प्रकार के संसाधनों को यूँ गप्प करते चले गए जैसे कि किसी और को इन सब चीज़ों की कोई आवश्यकता ही नहीं....अपनी ताकत से हर ताकतवर ज्यादा से ज्यादा संसाधन हजम करता गया....इसके एवज में कम ताकतवर इंसान इसका हर्जाना भरता गया.....एक अमीर की अमीरी के पीछे हज़ारों गरीब की गरीबी बढती गयी.....!!
एक ही शरीर....एक ही चेतना....एक ही सृष्टि के सबसे होनहार माने जाने वाले जीव ने अपने जीवन को सहज बनाने की खातिर बाकी हर किसी का जीवन जीना दूभर कर दिया...इतना ही नहीं अन्य मानवेत्तर जीवों की सभी प्रजातियों को भी अपने पागलपन का शिकार बनता गया....हर एक जीव-सजीव-निर्जीव इसके अंतहीन लालच का शिकार बन अकाल काल-कलवित होता गया....सभी चीज़ें एक-एक कर नष्ट होती गयी....होती गयी....होती गयी....धरती रंगों से....या कि जीवन से रंगहीन होती चली गयी....और आज....??....आज हालत यह बन चुकी है कि खुद मानव को को अपना जीवन जी पाना दूभर लगने लगा है...क्योंकि मानव की बनायी हुई हर एक वस्तु से मानव का जीवन देखने में संवरता ही दीखता है....मगर दरअसल उसका जीवन पल-प्रतिपल ख़त्म होता जा रहा है....आदमी के जीने की गति को तेज करने वाले तमाम साधनों से धरती के मरने की गति उससे भी तेजी से बढती जा रही है....अब तो ऐसा लगने लगा है कि धरती की जिन्दगी सौ-पचास वर्ष भी नहीं बची है......!!उससे पहले ही यह ख़त्म हो जायेगी....अपने संग अंतहीन प्राणों की जान लेकर.....!!
मेरी गुजरी हुई दुनिया के वर्तमान प्यारे-प्यारे दोस्तों.....मैं तो अब मर चूका हूँ....इसलिए मैं इस धरती के लिए सिर्फ दुआ ही कर सकता हूँ....!!लेकिन दवा करना तो तुम जिन्दा इंसानों के हाथ में ही है....!!क्या अब भी तुम अपना लालच कम करने को तैयार हो....??क्या तुम्हारा जीवन सिर्फ तुम्हारे पेट की भूख को शांत करके नहीं जीया जा सकता....??क्या ऊँचे-ऊँचे ख्वाब देखना और उन्हें पूरा करने के लिए पागलपन की इन्तेहाँ तक चले जाना और सबका जीवन जीवन मुहाल कर देना ही मानव जीवन का ध्येय है......??क्या रसूख-अहंकार-और कथित बड़प्पन की चाह ही मानवीयता की निशानी है....??
धरती की हे तमाम महान आत्माओं तुम्हारे जीने के इन्ही तथाकथित मकसदों की वजह से तुम जीवन के इस विनाशक मोड़ पर आन पहुंचे हो और अगरचे अब भी यही सब धत्त्करम करते रहे तो याद रखो कि जल्द ही तुम सब ख़त्म हो जाने वाले हो....ये सही है है कि मरना तो सबको ही है मगर जिस तरह से जिस दिशा में जाकर और जिस-जिस तरह के करम करके तुम मरने को तत्पर हो वह शर्मनाक ही नहीं बल्कि निंदनीय भी है....क्या ये बातें तुम तक पहुँच रही हैं....क्या ये बातें तुम सब समझ पा रहे हो....क्या सचमुच तुम्हारे पास वह समझ है जिसके कारण तुम अपने-आप को सृष्टि के बाकी जीवों से महान और बड़ा साबित किये हुए हो ....हालाँकि किसी और ने ये उपाधियाँ तुम्हें नहीं दी हैं बल्कि तुमने खुद ही खुद को दुनिया का खुदा घोषित किया हुआ है यह बात तो खुद में ही बहुत बड़ा मज़ाक है कि कोई खुद ही खुद को सबसे बड़ा-सबसे तेज़-सबसे आगे घोषित कर दे......खैर ये तो दूसरी बात हुई....तुम्हारे लिए अहम् बात अब यही है कि कि अभी तुरत से ही तुम सब संभल जाओ....नेकनीयत बन जाओ....."आदमी" हो जाओ.....क्यूंकि अपनी जिस संतान के लिए तुम जीवन जीते हो....उस संतान के बारे में ही ज़रा सोच लो तो समझ सकोगे कि जो धरती तुम अपने बाद छोड़ कर जाने वाले हो वह जीने के लिए नहीं बल्कि मरने के लिए है......!
शुक्रवार, 26 मार्च 2010

एक था बचपन

एक था बचपन !!
बड़ा ही शरारती,बड़ा ही नटखट !!
वो इतना भोला था कि
हर इक बात पर हो जाता था हैरान
बन्दर के चिचियाने से,तितली के उड़ने से
मेंढक के उछलने से,चिड़िया के फुदकने से !!
वो बड़ो को बार-बार करता था डिस्टर्ब.....
काम तो कुछ करता ही नहीं था,और साथ ही
खेलता ही रहता था हर वक्त !!
कभी ये तोड़ा,कभी वो तोड़ा और कभी-कभी तो
हाथ-पैर भी तुडवा बैठता था खेल-खेल में बचपन
तो कभी कुछ जला-वुला भी लेता था अनजाने में बचपन
बचपन कभी किसी की कुछ सुनता भी तो नहीं था ना....!!
बस अपनी चलता था और तब.....
मम्मी की डांट खाता तो सहम-सहम जाता था बचपन
पापा मारते-पीटते तो सुबकने लगता था बचपन
मगर अगले कुछ सेकंडों में ही सब कुछ भूल-भुला कर
वापस खेलने लगता था बचपन !!
और मम्मी की गालों की पप्पी ले लेता
और पापा के गले में झूल जाता था बचपन...!!
सब कुछ तुरत ही भूल जाता था बचपन
मम्मी की डांट....पापा की मार.....
और बदले में वह उन्हें देता था
अपना प्यार....अपना दुलार.....!!

बचपन की बातें ख़त्म....
और बड़प्पन की शुरू.....!!
बड़ों के बारे में तो बस इतना ही कहना है कि
जिंदगी बचाई जा सकती थी
अगरचे बचा कर रख लिया जाता
अपना ही थोडा सा भी बचपन.......!!!!
शनिवार, 20 मार्च 2010

प्रलय अब होने को ही है.......!!!

मैं भूत बोल रहा हूँ..........!!

चारों तरफ धूप फैलती जा रही है......गर्मी का साम्राज्य सब दिशाओं को अपनी आगोश में लेता जा रहा है ...और अमीर लोगों के घरों में ूलरों,.सी.और सबको ठंडक पहुँचाने के अन्य साधन सर्र-सरर र....की आवाजें करते धड़ल्ले से चलने लगें हैं...जहां तक इनकी हवा जाती है वहा तक तो सब ठीक-ठाक सा लगता है मगर उसके बाद गरमी की भयावहता वैसी की वैसी...यानी कि विकराल और खौफनाक....!!

आदमी को मौसमों से हमेशा से ही डर लगता रहा है....मगर उसके बावजूदउसने जो कुछ भी धरती पर आकर किया है उससे मौसमों का मिजाज़ खराब ही हुआ है...आदमी की करनी से से वो क्रमश भड़कता ही जा रहा है....!!

आदमी की चाहना भी बड़ी अजीब और बिलकुल विपरीत सी होती है....आदमी से जो भी चीज़ ईजाद होती है वो होती तो दरअसल उसके सुकून के लिए है मगर उसके ठीक ल्टा उससे धरती का वातावरण खराब से और खराब हुआ जाता है और खराब भी क्या ऐसा-वैसा....!!जीने लायक भी नहीं रहता धरती का वातावरण ....

किसी जमाने में बेशक आदमी धरती के रहमो-करम पर निर्भर होता होगा..........अब तो धरती की आबो-हवा आदमी के रहमो-करम पर निर्भर हो चुकीहै...वो चाहे तो अपनी अनाप-शनाप इच्छाएं त्याग कर अभी भी धरती को उसका सुगढ़ स्वास्थ्य लौटा सकता है और धरती के आँचल के साए में किसी माँ के अपनापे की भांति किल्लोल करता ुआ आनंद पूर्वक जी-खा-खेल सकता है !!

क्या यह बहुत अजीब सी बात नहीं है कि आदमी को जीना धरती पर ही होता है उसे अपनी सारी इच्छाएं धरती पर धरती के मार्फ़त ही पूरी करनी होती हैं और इसके उल्टा धरती ही जैसे उसके रास्ते में रुकावट बन जाती है हालांकि धरती ने कभी भी किसी को भी कुछ भी करने से रोका नही है....मगर आदम का हर कार्य जैसे एक दलदल की तरह होता है एक तरफ तो वो सुविधाओं के बीच सुकून से जीना चाहता है....तो दूसरी तरफ उस के कार्यों का परिणाम उसे क्रमश मौत की और ले जाता हुआ प्रतीत होता है और मज़ा यह मौत की समूची भयावहता के बावजूद भी आदमी अपने लिए वाही सुविधाएं चुनता है,बुनता है,जो उसके तत्काल को बेहतर बनाती है हालांकि यह भी सच ही है कि आदमी ये भी जानता है...कि एक क्षण ही बाद आने वाला भविष्य ही उसके उस क्षण का तत्काल होगा....मगर फिर भी......!!!

तो मौसम है कि बिदकता ही जाता और आदमी नाम का यह जीव हर प्रकार के "कोपेनहोगेनों" और धरती को वापस स्वर्ग बनाने अपने तमाम दावों-प्रतिदावों बावजूद उसी दलदल को लगातार बढ़ता ही जाता है जिसमें कि धंसकर उसकी अकाल जान जानी निश्चित है और बस इसी करके मौसम बिदक रहें हैं...आदमी के साथ धरती का समूचा जीवित जगत भी रोता जा रहा है,आदमीएक ऐसा भयानक जीव है जिसने

सिर्फ धरती का ही नहीं अपितु समूचे अन्तरिक्ष का "शिकार" कर डाला है, अब ये बात अलग है कि वह खुद अपना शिकार बन चूका है.........!!

खुदा ने जब आदमी को धरती पर भेजा होगा तब शायद यही सोचा होगा कि यह जीव समूची धरती को रंग बिरंगा कर डालेगा इसके जीवन को सुखी और समृद्द बनाएगा.....और अब यह सोच-सोच कर तड़पता होगा...अपना सर धुनता होगा.....कि हाय उसने आदमी को क्यूँकर बना डाला......और शायद मौसमों का मिजाज़ खुदा खुद बदल रहा हो....ताकि किसी तरह धरती पर प्रलय जाए बेशक हज़ारों प्राणी काल-कलवित हो जाएँ मगर दमी नाम यह जीव सदा के लिए धरती से विदा हो जाए....!!

दुनिया के बाकी प्राणियों......बेशक आने वाले समय में तुम सब नष्ट हो जाने वाले हो ओ....क्यूंकि यः भी सच है कि गेहूं से साथ घुन भी पिसता है.....तो आदमी के साथ-साथ तुम सबको भी मिट जाना ही है....मगर ओ दुनिया के अन्य समस्त प्राणियों.....ये जान लो कि ये बात भी उतनी ही सच है कि उपरवाला यः सब जान-बूझकर ही कर रहा है.....उसके मन में तो सदा से ही यह सपना रहा था कि दुनिया आनंदपूर्ण रहे और उसी की पूर्ति के लिए और दुनिया को स्वर्ग बनाने के ही उसने आदमी को भी यहाँ भेजा था....मगर उसे क्या मालूम था कि.........!!!!????

हे दुनिया के समस्त प्राणियों उपरवाला फिर से यानि नए सिरे से नयी दुनिया बसने जा रहा है... जिसमें आदमी के लिए कोई जगह मुमकिन नहीं होगी....और तुम सब के सब एक जुट होकर इस समूची धरती को अपना समझकर मिलजुलकर राज करोगे....एक दुसरे के संग अपने पूरे प्रेम-भाव के साथ रहोगे....अब यह मत सोचने लगना कि हाय....कि आदमी के बगैर तुम्हारी ये दुनिया कैसी होगी....!!खुदा ने तो आदमी को तुम्हारे रूप में बहुत-कुछ दिया...मगर आदमी ने तुमको क्य दिया .....?????

 
© Copyright 2010-2011 बात पुरानी है !! All Rights Reserved.
Template Design by Sakshatkar.com | Published by Sakshatkartv.com | Powered by Sakshatkar.com.