भारत का संविधान

"हम भारतवासी,गंभीरतापूर्वक यह निश्चय करके कि भारत को सार्वभौमिक,लोकतांत्रिक गणतंत्र बनाना है तथा अपने नागरिकों के लिए------- न्याय--सामाजिक,आर्थिक,तथा राजनैतिक ; स्वतन्त्रता--विचार,अभिव्यक्ति,विश्वास,आस्था,पूजा पद्दति अपनाने की; समानता--स्थिति व अवसर की व इसको सबमें बढ़ाने की; बंधुत्व--व्यक्ति की गरिमा एवं देश की एकता का आश्वासन देने वाला ; सुरक्षित करने के उद्देश्य से आज २६ नवम्बर १९४९ को संविधान-सभा में,इस संविधान को अंगीकृत ,पारित तथा स्वयम को प्रदत्त करते हैं ।"

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मंगलवार, 21 दिसंबर 2010

ओ स्त्री...बच के तुम जाओगी कहाँ....भला...!!??

ओ स्त्री...बच के तुम जाओगी कहाँ....भला...!!??
ऐ स्त्री !!बहुत छटपटा रही हो ना तुम बरसों से पुरुष के चंगुल में…
क्या सोचती हो तुम…कि तुम्हें छुटकारा मिल जायेगा…??
मैं बताऊं…?? नहीं…कभी नहीं…कभी भी नहीं…
क्योंकि इस धरती पर किसी को भी पुरुष नाम के जीव से
मरे बगैर या विलुप्त हुए बगैर छुटकारा नहीं मिलता…
पुरुष की इस सत्ता ने ना जाने कितने प्राणियों को लुप्त कर डाला
पुरुष नाम के जीव की सत्ता की हवस के आगे कोई नहीं टिक पाया
यह तो सभ्यता की शुरुआत से भी शायद बहुत पहले से लडता आ रहा है
तुम तो इसके साथ ही साथ रहती आयी हो,क्या इतना भी नहीं जानती
कि यह लडने के सिवा और कुछ जानता ही नहीं…!!
और अपने स्वभाव के अनुसार यह सबको एक जींस समझता है…!!
तुम भी एक जींस ही हो इसके लिए,बेशक एक खूबसूरत जींस…
और मज़ा यह कि सबसे आसान…और सर्वसुलभ भी…
सदियों से इसकी सहधर्मिणी होने के मुगालते में…
इसकी यौन-इच्छाओं की पूर्ति का एक साधन-मात्र बनती रही हो तुम
पता है क्यूं…?सिर्फ़ अपनी सुरक्षा के लिए,मगर यह तो सोचो…
कि कभी भी,किसी भी काल में यह सुरक्षा तुम्हें मिल भी पायी…??
कि पुरुष की सुरक्षा,उसके द्वारा बनाए गये देशों की सीमाओं की सुरक्षा के निमित्त
सुरक्षाकर्मियों ने हर युद्ध में तुम्हारे मान का चीर-हरण किया…
क्या यह पुरुष पशु था…नहीं…पशु तो ऐसा नहीं करता कभी…!!
नहीं ओ मासूम स्त्री…यह जीव कोई पशु या अन्य जीव नहीं…
यह पुरुष ही है…आदमजात…मर्द…धरती की समुची सत्ता का स्वयंभू स्वामी…
धरती के समस्त साधनों का निर्विवाद एकमात्र नेता…एकछत्र सम्राट्…
इसके रास्ते में इसके वास्ते तुम आखिर हो क्या ओ स्त्री…??
तुम्हें सुन्दर कह-कहकर…विभिन्न अलंकारों से विभूषित कर…
तुम्हें तरह-तरह की देवियों के रूप प्रतिस्थापित करके,तुम्हारी बड़ाई करके
हर प्रकार के छल-कपट का सहारा लेकर तुम्हें अंकशयनि बना लेता है यह अपनी…
और अपनी छ्ल-कपट भरी प्रशंसा सुन-सुन तुम फूले नहीं समाती हो…
और त्रियाचरित्र कही जाने वाली तुम इस विचित्र-चरित्र जीव द्वारा ठगी जाती हो…
ओ स्त्री…!अपनी देह के भीतर तुम एक इन्सान हो यह तुमने खुद भी कब जाना…?
तुम तो खुद अपनी देह का प्रदर्शन करते हुए नहीं अघाती हो,क्योंकि वो तुम्हारी देह है…!
ऐसे में बताओ तुम इस चूंगल से बचकर जाओगी तो जाओगी कहां भला…?
तुमने तो खुद ही चुन लिया है जाने-अनजाने इक यही रास्ता…एक अंधी गली…!!
तुम्हारा सहारा कहा जाने वाला कोई भी…पिता-पति-बेटा या कोई और यदि मर जाये…
तो ये सारा पुरुष वर्ग प्रस्तुत है तुम्हारी रक्षा के लिए…गर इसकी कीमत तुम चुकाओ…!!
और वह कीमत क्या हो सकती है…यह तुम खूब जानती हो…!!
तुम्हें किसी भी प्रकार का कोई सहयोग…कोई लोन…कोई नौकरी…या कोई अन्य मदद…
सब कुछ प्रस्तुत है…हां बस उसकी कीमत है…और वह कीमत हर जगह एक ही है…!!
वह कीमत है तुम्हारे शरीर की कोई एक खास जगह…बस…!!
कहां जाओगी तुम ओ स्त्री…कानून के पास…??
तो उसके रखवाले सवाल पूछेंगे तुमसे ऐसे-ऐसे कि तुम सोचोगी कि
इससे तो अच्छा होता कि तुम एक बार और बलत्कृत हो जाती…
कानून के रखवाले क्या आदमी नहीं हैं…??क्या उनकी कोई भूख नहीं है…??
तो तुम इतनी मासूम क्यूं हो ओ स्त्री…??
क्यूं नहीं देख पाती तुम सबके भीतर एक आदिम भूख…??
किसी भी उम्र का पुरुष हो…भाई-बेटे-पोते…किसी भी उम्र का व्यक्ति…जो पुरुष है…
किस नज़र से देखता है वो तुम्हें…आगे से…पीछे से…ऊपर से…नीचे से…उपर से नीचे तक…तुम घबरा जाओगी इतना कि मर जाने को जी करे…!!
मगर तुम मर भी नहीं सकती ओ स्त्री…क्योंकि तुम स्त्री हो…
और बहुत सारे रिश्ते-नाते हैं तुम्हारे निभाने को…जिनकी पवित्रता निभानी है तुम्हें…
और हां…तुम तो मां भी हो ओ स्त्री…
और भले ही सिर्फ़ भोग्या समझे तुम्हें यह पुरुष…
मगर उसे भी दरकार है तुम्हारी…अपने पैदा होने के लिए…!!
गुरुवार, 16 दिसंबर 2010

हैलो राडिया(नीरा)…!!…नमस्कार…!!कैसी हो ??

हैलो राडिया(नीरा)…!!…नमस्कार…!!कैसी हो ??
क्या गज़ब है ना नीरा कि मीडिया के द्वारा अक्सर ऐसे-ऐसे नाम प्रकाश में आ जाया करते हैं,जिन्हें आम जगत में कल तक कोई जानता तक नहीं होता…॥किन्तु बदनाम भी होंगे तो क्या नाम ना होगा कि तर्ज़ पर अक्सर बद्ननामी के रूप में ही ऐसे लोग अक्सर अचानक  राजनैतिक,सामाजिक या अन्य किसी क्षितिज पर प्रकाशमान दिखाई देते हैं और कुछ ही समय पश्चात किसी अज्ञात ब्लैक-होल में जाकर समा जाते हैं…और उस वक्त तक तारी सारी बदनामियों का तब क्या होता है,वे कहां बिसूर दी जाती हैं,सो कोई नहीं जानता…!!, जैसा कि नीरा इस समय तुम्हारे साथ भी घट रहा है…है ना नीरा…??
       देखने में तो ओ नीरा तुम अत्यन्त सुन्दर या कहूं कि बडी हुश्नो-फ़रोश दिखाई पड्ती हो,किन्तु क्या गज़ब कि ऐसे ही लोगों को तमाम शायरों ने बडा घातक…कातिल… जानलेवा और ना जाने क्या-क्या तो कहा है…और जब-जब ऐसी कहानियां सामने आया करती हैं,तब-तब ऐसा प्रतीत होता है,कि हमारे शायर कितनी पुख्ता और सच्ची सोच रखते हैं तुम जैसे लोगों के बारे में…!!हुश्न है और प्राणघातक ना हो…यह कैसे हो सकता है भला…??क्या अदाएं हैं उफ़ तुम्हारी ओ नीरा…कुछ ढेर सारी स्त्रियों में और हो जाए तो ये देश तर ही क्यों ना जाए भला…!!
        नीरा…!!एक बात तो बताओ यार…!!…ऐसी जालिमपने वाली अदाएं आती हैं तो आखिर आती कहां से हैं भला तुम जैसे लोगों में…अपनी इस अदा का उपयोग तुम जैसे लोग कभी देश के अच्छे के लिए भी करते हो क्या…??कभी करके तो देखो यार…तब सच्ची,बडा सच्चा मज़ा आएगा तुम्हें हां…और हां यह भी कि तब जो नाम होगा ना,वो नाम भी ऐसा होगा कि जिस पर तुम खुद्…तुम्हारे बच्चे…तुम्हारा परिवार…और यहां तक कि यह समुचा देश भी,जिसे बडे प्यार और फ़ख्र से हम वतन भी कहा करते हैं,उसे भी तुम पर बहुत-बहुत-बहुत नाज होगा…नीरा…!!यार मैं एकदम सच कह रहा हूं…!!
         दरअसल नीरा हम सब जितना समय देश की हानि करके धन कमाने का उपक्रम करते रहते हैं,और उसके एवज में हम जितना धन पैदा कर पाते हैं…उससे बहुत कम मेहनत और समय खर्च करके वो साख,वो नाम कमाया जा सकता है,जिसकी कि कोई मिसाल ही ना मिले…मगर ओ नीरा समझ नहीं आता मुझे धन के लिए कोई अपने भाई-बन्धु को बेच दे तो बेच दे…अपने देश को कैसे भला बेच सकता है…दरअसल नीरा, तुम जैसे कुछ हज़ार लोग अगर सुधर जाओ तो इस देश की तकदीर और तदबीर मिनटों में बदल सकती है,और मज़ा यह कि यह सब तुम नहीं जानते…दुर्भाग्य यह कि तुम जैसे लोग सिवाय अपने स्वार्थ और कतिपय हितों के कुछ जानते ही नहीं…और उससे बडा दुर्भाग्य यह कि यह सब किसी का बाप भी तुम्हें समझा नहीं सकता…!!
        मैं तो नीरा सदैव भगवान से यह प्रार्थना करता रहता हूं कि तुम जैसे तमाम इस तरह के स्वार्थी लोगों को जरा-सी,बस जरा-सी भर यह बुद्धि दे दे कि तुम बजाय अपने…अपने परिवार्…और कुछेक अपने लोगों से उपर उठकर देश के काम आ सके… देश-हित की बाबत सोच सके…अगर भगवान में इतना दम है…अगर सचमुच वो भगवान है…तो काश वो तुम जैसों को सदबुद्धि प्रदान कर दे…तो गांधी-सुभाष-भगत-चंद्रशेखर का यह देश…सचमुच अपनी सदगति को प्राप्त हो पाये…और नीरा पता नहीं क्यूं,मुझे ऐसा यकीन है कि वो ऐसा करेगा…ऐसा करके ही रहेगा…करेगा ना नीरा…??
बुधवार, 8 दिसंबर 2010

तो फिर मत आईये ना राष्ट्रपति जी यहाँ......!!!

तो फिर मत आईये ना राष्ट्रपति जी यहाँ......!!!
             क्या आपको यह पता भी है ओ राष्ट्रपति जी कि आप जहां आने वाले हो ,वहां आपके आने की ख़ुशी में हज़ारों पेड़ सड़क से काट डाले गए हैं ?क्या पेड़ में आपके दुश्मन छुपे हुए होंगे ,जो आपका इंतज़ार कर रहे होंओं,कि कब आप आओ और वो आपका काम तमाम कर डालें ? 
            क्या आपको यह पता भी है ओ राष्ट्रपति जी कि आप जहां आने वाले हो ,वहां आपकी सुरक्षा के लिए जो एहतियात किये जा रहे हैं,जो रिहर्सल की जा रही है ,उससे स्कूल के बच्चों के बसें सड़क पर घंटे-घंटे भर के लिए ठहर जा रही हैं और उनमें बैठे बच्चे भूख से तड़प रहे हैं और उनके माँ-बाप बस-स्टोपेज पर हैरान-परेशान घूम रहें हैं ??
            क्या आपको यह पता भी है ओ राष्ट्रपति जी कि आप जहां आने वाले हो ,वहां का जन-जीवन आपकी सुरक्षा के लिए असामान्य बना दिया गया है ,वह तो तब है जबकि आप आये भी नहीं हो ,जिस दिन आप आओगे,उस दिन एयर-पोर्ट से राजभवन तक और फिर राजभवन से रांची-यूनिवर्सिटी तक चक्का-जाम जैसी स्थिति उत्पन्न हो जाने वाली है....इसके अलावा आम लोगों पर पुलिस का जलवा तारी होगा सो अलग....!!
                 अगर आपके आने का यही मतलब है ओ राष्ट्रपति जी ,तो फिर मेरे शहर के बच्चे ,उनके अभिभावक,आम आदमी और खुद मेरी आपसे यह विनम्र अपील है कि आप ना ही आओ तो अच्छा है !!क्यूंकि राष्ट्र के नेता  राष्ट्र और उसकी जनता की हिफाजत के लिए होते हैं ,जिन्हें जनता ने अपनी सेवा के लिए और राष्ट्र को संप्रभु बनाए रखने के लिए तैनात किया होता है और अगर राष्ट्र के वे नेता अपने ही राष्ट्र में इतने ही असुरक्षित हैं तो फिर अपने महलों में ही महदूद क्यूँ ना रहें...क्यों बाहर निकल कर अपने लिए असुरक्षा और जनता के लिए सर-दर्द मोल लेते हैं....आमीन....!!

रोइए जार-जार क्या....कीजिये हाय-हाय क्यूँ !!!


                      रोइए जार-जार क्या....कीजिये हाय-हाय क्यूँ !!
बड़ा शोर सुन रहा हूँ इन दिनों स्पेक्ट्रम वगैरह-वगैरह का.....मन ही नहीं करता कि कुछ लिखूं....हमारा लिखना कुछ यूँ है कि हमारे जैसे ना जाने लिखते-चीखते-चिल्लाते रह जाते हैं....और घोटाले करने वाले घोटाले कर-कर के नहीं अघाते हैं....बड़े-बड़े अफसर फाईलों पर अपनी चेतावनी की कलम चलाते हैं....मगर किसी साले का कुछ नहीं बिगाड़ पाते हैं....कोई अफसर अंगुली उठाता है तो अपने महकमे से बाहर कर दिया जाता है....और तो और कोई प्रधानमन्त्री नाम का कोई शख्स भी जवाब माँगता है तो उलटे हाथ खरी-खोटी सुनकर हाथ मलता रहा जाता जाता है....आप देखिये कितना विकेंद्रीकृत हो गया सब कुछ.....जब पी.एम.नुमा जीव भी किसी अदने से मंत्री की फटकार सुनकर चुप रह जाता है.....और बरसों अपनी जीभ सीए रहता है कुछ इस तरह....जैसे कि मूंह में जुबां ही ना हो....और फिर एक दिन जुबां खोलता भी है तो इस तरह....जैसे कोई भीगी बिल्ली हो.....दोस्तों प्रधानमन्त्री नाम के इस शब्द का पराभव हो चुका है भारत के इस शासन काल में....इतना विगलित हो जाने से अच्छा किसी भी प्रधानमन्त्री के लिए आत्महत्या कर लेना होता....मगर इस प्रकार की हरकतें करके उन्होंने ना सिर्फ इस पद का बल्कि अपनी खुद की निजी इज्जत का,समूचे देश के सम्मान का.....और देश की समूची जनता के सर को शर्म से नीचा कर दिया है.....जनता कुछ समय बाद सब कुछ भूलभाल कर बेशक उन्हें  कभी माफ़ भी कर दे....मगर इतिहास उन्हें कभी माफ़ नहीं करेगा....!!
                    दोस्तों कभी-कभी आप निजी तौर पर गद्दार नहीं होते हुए भी गद्दार से भी ज्यादा हो जाते हैं...और इस गद्दारी को भले ही परिभाषित नहीं किया जा सके मगर....मगर इस कालिमा के छींटे हमेशा-हमेशा के लिए आपके दामन पर छा जाते हैं....आप बेशक खुद को सबूतों के अभाव में निष्कलंक बताते रहें....मगर मुर्ख से मुर्ख जनता भी जानती है कि दरअसल हो क्या रहा है....और जो हो रहा है....उससे जनता की आँखे भले ही कुछ देर से खुल रही हैं....मगर जब पूरी तरह खुल जायेंगी तो वह सबको दौड़ा-दौड़ा कर मारेगी.....बेईमानों को भी और इमानदारी का नकाब पहने हुए गद्दारों को भी....और यह सच होकर ही रहेगा....!!!!!!
रविवार, 5 दिसंबर 2010

आखिर किसको बदलना चाहते हैं आप ??

मैं भूत बोल रहा हूँ..........!!
                                         आखिर किसको बदलना चाहते हैं आप ?? 
                   अभी-अभी एक मित्र के घर से चला आ रहा हूँ,अवसर था उसके दादाजी की मृत्यु पर घर पर बैठकी का...और इस संवेदनशील अवसर पर उस मित्र से जो कहा गया,उस पर सोच-सोच कर अचंभित-व्यथित और क्रोधित हुआ जा रहा हूँ,मेरे उस मित्र ने प्रेम विवाह किया है,जिसे उसके घर वालों ने कभी मन से स्वीकार नहीं किया,हालांकि मित्र अपनी पत्नी सहित अपने परिवार के घर यानी कि अपने ही घर में रहता है,मगर पत्नी के घरवालों को इस घर द्वारा कभी स्वीकार नहीं किया गया है और अब जब मित्र के दादाजी की मृत्यु हुई है और उसके ससुराल वाले बैठकी पर उपस्थित हुए तो उनके चले जाने के बाद मित्र के घरवालों द्वारा मित्र को यह कहा गया कि अपने ससुरालवालों से यह कह दे कि आज भर आ गए सो आ गए मगर अब टीके-पगड़ी की रस्म के वक्त वो टीका लेकर ना उपस्थित हों जाएँ.....और तब से मेरा मन बड़ा विचलित है.....कारण कि इतनी तेजी से बदलती दुनिया में आज भी एक अदना सा इंसान किसी दूसरे इंसान को इंसान नहीं समझता...तरह- तरह के अभिमानों से भरा यह इंसान अपने तरह-तरह के गुट बनाए हुए अपने उस गुट में पूरी तरह रमा हुआ अपनी उस दुनिया में पूरी तरह डूबा हुआ रहता है...और उससे इत्तर दुनिया से उसे कोई मतलब नहीं होता और तो और वह किसी और की कोई परवाह तक नहीं करता....अपने अभिमान,अपनी ठसक,अपना पैसा और अपना समाज बस यहीं तक उसे सब कुछ ठीक लगता है और इसके पार सब कुछ एक मजाक...बल्कि हीन....बल्कि कुरूप....बल्कि घृणा से भरा हुआ.....बल्कि उस पर थूक देने लायक.....यहाँ दूसरे को सम्मान देना तो दूर एक मिनिमम कटसी भी मेंटेन नहीं रखी जा सकती.....और हम हमेशा समाज को बदलने की बात करते हैं....!!
                          आखिर किस समाज को बदलना चाहते हैं हम और आप....यहाँ जहां तरह-तरह की घृणा और वैमनस्य भरा हुआ है....हम हमेशा राजनैतिक भ्रष्टाचार को गालियाँ दिया करते हैं...,मगर हम अपने खुद के बीच जो तरह-तरह की सामाजिक विसंगतियां....अंधविश्वास...अविश्वास....वहम.....गलतफहमियाँ और पता नहीं किन-किन बेवजह की बातों पर किन-किन से बेवजह घृणा का एक अंतहीन सैलाब अपने-अपने मन में ना सिर्फ पाले बैठे हैं....बल्कि उसे दिन पर दिन पाल-पोष कर और भी बढाए चले जाते हैं,उसका क्या ??किसी दूसरे की बात तो क्या करें हम... अपने किसी गरीब या कमतर-कमजोर या कम बुद्धि वाले किसी रिश्तेदार के साथ कैसा सुलूक होता है हमारा...क्या हम उसके साथ दो भात का व्यवहार नहीं करते....क्या उसके साथ का देन-लेन उसकी हैसियत देखकर नहीं करते....क्या उसका माथा देखकर उसे तिलक नहीं करते....अपने इस आचरण को हम भला कब देख पाते हैं....क्या जिन्दगी भर हम अपना खुद का यह चरित्रहीन आचरण देख भी पाते हैं....??उसे सुधारना तो बहुत दूर की बात है......!!!
                         दोस्तों हो सकता है कि हमने अपने समूचे जीवन में कभी किसी का बुरा नहीं चाहा हो....और ना ही अपने जानते किसी का बुरा किया भी हो....और यहाँ तक कि हम मुक्त हस्त से दान भी देते आयें हों...और किसी की गरीबी पर हमारी आँख भी भर आयीं हों....और हमने बेशक तब उसके भले के लिए बहुत कुछ किया हो.....यानी कि समूचे जीवन हमने अच्छा-ही-अच्छा काम किया हो,जिससे हमें सदा बडाई-ही-बडाई ही मिली हों.....और यहाँ तक कि हमने सदा साधू-संतों का सत्संग ही किया हो.....मगर अपने ही परिवार में किसी-ना-किसी प्रकार की गलतफहमियाँ पाल कर किसी अपने ही खून के साथ,या किसी भी अन्य के साथ  कोई अन्याय नहीं किया....??....कभी शांतचित्त से सोचकर देखें दोस्तों तो हम पायेंगे कि हाँ हमने ऐसा किया है....और दोस्तों सच बताऊँ....हमारे सब अच्छा कर्म करने के बावजूद हो सकता है.....कि हमारे सारे पुण्य हमारे द्वारा किये गए इन अनजाने पापों द्वारा कट गए हों....अगर अगर हम कभी भी एक बार भी इस तरह से सोच पायें....तो हो सकता है कि कि हम अपने कुछ पापों को त्याग पायें....वरना किसी को गालियाँ देना उतना ही बेकार है....जितना कि किसी भैंस के आगे बीन बजाना.....और सच बताऊँ  तो ऐसा कोई कर्म या व्यवहार करने के बाद हम किसी भी समाज,सत्ता,राजनीति या किसी को गालियाँ बकने के हकदार भी नहीं रह जाते....बाकी हमारी मर्जी है,हम चाहे जो करें....हम रसूखवाले लोगों को टोकने वाला भला है ही कौन....सिवाय हमारी आत्मा के....अगर हम उस आत्मा की किसी भी किस्म की आवाज़ को सुनने में सक्षम नहीं....तो मैं आपसे....हम सबसे यही पूछ कर अपनी बात ख़त्म करना चाहूँगा कि आखिर किसको बदलना चाहते हैं.....हम....और आप.....!!!!!    
बुधवार, 17 नवंबर 2010

जब कुछ नहीं बोलती स्त्री......!!


जब कुछ नहीं बोलती स्त्री
तब सबसे ज्यादा बोलती हुई कैसे लगती है !
जब गुनगुनाती है वो अपने ही घर में
तब सारी दिशाएं गाती हुईं कैसे लगती हैं भला !
जब आईने में देखती है वो अपने-आपको
तो चिड़िया सी फुदकती है उसके सीने में !
बच्चों के साथ लाड करती हुई स्त्री
दुनिया की सबसे अनमोल सौगात है जैसे !
जब कभी वो तुम्हें देखती है अपनी गहरी आँखों से
तुम सकपका जाते हो ना कहीं अपने-आप से !!
स्त्री ब्रह्माण्ड की वो सबसे अजब जीव है
जिसकी जरुरत तुम्हें ही सबसे ज्यादा है !
और गज़ब तो यह कि -
तुम उसे वस्तु ही बनाए रखना चाहते हो
मगर यह तो सोचो ओ पागलों
कि कोई वस्तु कैसी भी सुन्दर क्यूँ ना हो
सजीव तो नहीं होती ना....!!
जगत की इस अद्भुत रचना को
इसकी अपनी तरह से सब कुछ रचने दो !
कि सजीव धरती ही बना सकती है
तुम्हारे जीवन को हरा-भरा !
और सच मानो -
स्त्री ही है वो अद्भुत वसुंधरा !!
गुरुवार, 4 नवंबर 2010

सुलगता क्यूं है कश्मीर ??,एक बिलकुल अलग-सा विचार...!!

                            सुलगता क्यूं है कश्मीर ??,एक बिलकुल अलग-सा विचार...!!
                    कभी-कभी समस्याएं होती नहीं हैं बल्कि बना ली जाती हैं !कभी आपने ध्यान दिया कि जब किसी घर का कोई सदस्य किसी के प्रेम में पड्ता है तब क्या होता है ?होता यह है कि घर के सारे सदस्य उस प्रेमी और प्रेयसी के एकदम खिलाफ़ हो जाते हैं,यहां तक कि हत्या पर उतारू भी हो जाते हैं,वहीं प्रेमी भी जान जाए पर वचन ना जाए की तर्ज़ में करुंगा तो उसी से वरना किसी से नहीं टाईप की ही बात करता है और तमाम प्रकरणों में कहीं घर वाले तो अगर प्रेमी-प्रेमिका भाग्यशाली हुए तो वे जीत जाते हैं,ध्यान दीजिये कि प्रेमी/प्रेमिका या घरवाले/समाज की "हार" और "जीत" के रूप में इस बात को लिया जाता है !अर्थात यहां दोनों पक्षों के बीच किसी भी प्रकार का सामंजस्य समझौता कहलाता है और समझौता ना हो पाने की स्थिति हार या जीत ! शब्दों के इस चुनाव से हम समाज की बुनावट की भीतरी अर्थ सहज ही समझ सकते हैं और इस बुनावट का सीधा-सादा अर्थ है हमारा अहंकार !!
                    कश्मीर पर हम जरा रुक कर आयेंगे,पहले जरा इस बात की (बुनावट) तह तक हो आएं !जिस परिवार और समाज का निर्माण हमने किया है अपने भीतर सुव्यवस्था के लिए,उसकी बुनियाद में एक खंभा हमने अहंकार का लगा दिया है,और दुर्भाग्यवशात यह खंभा मानव-जीवन के समुचे आचरण में सबसे ज्यादा अहम हो गया है और हमारे अधिकतम व्यवहार इसी बुनियाद के साये में तय होते हैं और हम यह भी जानते हैं कि संसार के सारे धर्मों की सारी किताबों में इसे गलत बताया गया है,और त्याज्य बताया गया है अब यह बात भी अलग है कि ऐसा बताने वाले अधिकतर लोग भी ऐसा बताने के अनुरूप आचरण नहीं कायम रख पाए ! तो दोस्तों जब किसी बिल्डिंग की कोई भी एक बुनियाद गलत रख दी जाती है तब क्या होता है यह आप सब जानते हैं ना...?चलिये मैं यह नहीं पूछ्ता आपसे,मैं यह मानकर ही चल रहा हूं कि यह आप सब जानते ही होंगे !!
           जैसा कि उपर बताया गया कि मानव-जीवन के अधिकतम व्यवहार अहंकार से ही तय होते हैं और विचित्र यह है यह बात प्रेम-त्याग-ममत्व-कर्तव्य जैसी सबसे आवश्यक आधारभूत संरचनाओं से युक्त समाज की सबसे महत्वपूर्ण इकाई "परिवार" से ही आरंभ हो जाती है,यानि कि झगडा तो परिवार नाम की बुनियादी सामाजिक संरचना से ही शूरू हो जाता है...अब आप बोलेंगे कि इस बात का संबंध हमारे आज के शीर्षक से क्या है भला,तो आपको मैं बता रहा हूं कि इसी बात पर मैं आ रहा हूं,मगर जरा रुकिये,इससे पहले एक बात समझनी ज्यादा जरूरी है !!
           परिवार,जहां कि हम बच्चे पैदा करते हैं और उन्हें पाल-पोस कर बडा करते हैं,उनमें हम आखिर किस प्रकार का आचरण भरते हैं,यह कभी हमने सोचा भी है ?हम उन्हें पैसे के रसूख और इस प्रकार अहंकार के गौरव का अहसास करा देते हैं,परिवार तक में भी किसी पैसे वाले सदस्य का रसूख और किसी गरीब सद्स्य के सम्मान में एक ऐसा भीषण अंतर होता है,जिससे गरीब सदस्य और उसके गरीब बेटे-बेटियां तथा बीवी एक कटु हाहाकार करते हुए अपना जीवन-यापन करते हैं,हम तमाम जीवन एक अमीर सद्स्य के आचरण का और उसके बच्चों की तमाम कारस्तानियों का बचाव करते हैं और एक दिन बच्चे अपने मां-बाप से भी ज्यादा अहंकारी और जिद्दी बन जाते हैं,थेथर तो वो पहले से ही होते हैं !!नहीं जी आप भले ना माने मगर इस बात का कश्मीर के सुलगने से संबंध अवश्य ही है!क्या कहा मैं मजाक कर रहा हूं ?नहीं जी फ़िलवक्त तो मेरा ऐसा इरादा कतई नहीं है !!आईए ना आगे बढते हैं थोडा और कुछ बताऊं तो शायद आप मेरी बात समझ पाएं !!
           दोस्तों,परिवार के बाहर निकलने पर हम एक ऐसी जगह जा पहुंचते हैं,जिसे समाज कहते हैं !जिसे हम उसके शाब्दिक अर्थों से तो जानते हैं, मगर उसकी वास्तविकताओं से,उसकी आवश्यकताओं से,उसकी संवेदनाओं से तथा अन्य मूलभूत चीज़ों से सर्वथा-सर्वथा अपरिचित होते हैं,चुंकि एक परिवार में रहते हुए हम यह अनुभव कर आए होते हैं कि परिवार के सभी सद्स्यों की कभी नहीं चलती,बल्कि सर्वदा उसी की तूती बोलती होती है,जो ताकत-वर होता है !और ताकत-वर माने कौन ?यह समझने का जिम्मा मैं आप पर छोडता हूं !तो इस प्रकार हमारी सोच में अनिवार्यरूपेण यह कीडा घुसा हुआ होता है कि यदि हम ताकत-वर हैं,तो हमारी ही बात सही है,उचित है और यदि हमारी बात उचित है तो हमारी मनमानियां भी बिल्कुल उचित हैं !और दोस्तों एक बात मैं आपको बताऊं ?....जब हम सही होते हैं तो दूसरा हर कोई गलत ही होता है....!आपका क्या सोचना है मित्रों ??
          बच्चा भटक जाता है तो हमेशा अनिवार्य रूप से सीधे-सीधे उसे दोषी ठहरा कर उसे सज़ा दे दी जाती है,परिस्थितियों को कभी नहीं पकडा जाता, पकडना तो दूर,संभावित जिम्मेवार परिस्थितियों की तरफ़ तो शायद ताका भी नहीं जाता !क्योंकि हर हालत में अभिभावक-गण यानि कि बुजुर्ग-गण ज्यादा अनुभवी,ज्यादा गुणी,ज्यादा दूरदर्शी-दूरअंदेशी और सबसे बडी बात सबसे ज्यादा पढे-लिखे यानि कि सर्वगुणसंपन्न होते हैं !अब अगर ऐसा ही है मेरे भाईयों तो क्या वे कभी गलत हो सकते हैं....नहीं ना ??और तब बच्चे को तो गलत होना ही ठहरा !!बच्चा गलत ही होता है,अनुभवहीन होता है ना,मासूम होता है ना,तमीज नहीं होती ना उसे और दुनियादारी की समझ ?वो तो बिल्कुल ही नहीं !!गलत और सही का यह आधार,यह संस्कार बच्चे के जनमते ही पहले ही पल से हम उसे देना शरू कर देते हैं और जब वही बच्चा विभिन्न सामाजिक गतिविधियों में,संगठनों में और तरह-तरह के कार्यों में यह कहता है कि मैं सही हूं.....मैं ही सही हूं....मैं कह रहा हूं ना...मेरी सुनो...सिर्फ़ मेरी ही सुनो !!
           दोस्तों,अब हम कश्मीर पर आते हैं !दोस्तों पहले आप यह सोच कर बताईये कि कश्मीर की जनता के अभिभावक कौन हैं,और इन अभिभावकों के अभिभावक कौन है !मज़ा यह कि ये अभिभावक भी दो किस्म के हैं एक तो सत्ताधीश अभिभावक और दूसरे जो आन्दोलन कर रहे हैं और तीसरी है कश्मीर की अवाम और चौथी है बाकि के देश की जनता,जो कश्मीर नाम की जगह-प्रदेश से महज इसीलिए जुडी हुई है,क्योंकि दुनिया और भारत के नक्शे में इस नाम की जगह को भारत नाम के एक देश का एक अटूट हिस्सा बताया जाता है और इसके अलग होने से सर्वसंप्रभुत्व-संपन्न देश की अखंडता के प्रश्न पर प्रश्न पैदा हो जाता है....दोस्तों देश के एक नागरिक होने के नाते किसी भी प्रदेश से हमारा यह मानसिक जुडाव प्रयाप्त है ?यह सवाल इसीलिए भी उत्त्पन्न होता है क्योंकि सो काल्ड कश्मीर के तरह-तरह के रखवालों का कश्मीर नाम के एक प्रदेश से महज इतना ही जुडाव है,यहां तक कि जो कश्मीर के ही हैं उनका भी,जो कि वहां की राजनीति कर रहे हैं !!
          सारा देश चिल्ला-चिल्ला कर कहता है कि धारा एक सौ सत्तर खत्म करो,सैनिकों को और अधिकार दो,कश्मीर को दी जाने वाली अथाह सहायता और तरह-तरह की रियायते खत्म करो..ऊपर-ऊपर तो सब तार्किक लगता है,मगर कोई यह नहीं जानता कि सैनिकों को अभी तक के दिए गए अधिकारों का वास्तविक परिणाम क्या है,और अधिकार देने के खतरे क्या हैं....!!कश्मीर को दी जाने वाली अथाह सहायता और रियायतों का लाभ कौन उठा रहे हैं....मज़ा यह कि यही लोग कश्मीर की जनता के अभिभावक हैं और केन्द्र में शीर्ष पर बैठे कुछ लोग उनके भी अभिभावक और मज़ा तो यह भी है कि इनमें से कोई गलत नहीं है !कहीं तो शीर्ष पर बैठे नेताओं को अवाम की समस्याओं से कोई मतलब ही नहीं है,और तमाम स्थानीय मुख्यमंत्री नीरो की भांति या तो सोते हुए पाए जाते हैं या फ़िर अपने तरह-तरह के हरम में ऐश-मौज मस्ती करते हुए !!
          कोई मुझे यह बता सकता है दोस्तों कि अपने मां या बाप किसी को भी किसी गैर के साथ रंगरेलियां मनाते हुए एक बार भी देखकर आपके मन पर क्या बीत सकती है ?शायद आप विद्रोह कर सकते हैं,शायद आप घर से बाहर जा सकते हैं घर छोड कर या फिर अपने मां-बाप की हत्या भी कर सकते हैं....!!शायद यही कुछ बातें संभव दिखती हैं और दोस्तों जिस दिन भी आप ऐसा कुछ भी करते हो तो जो सूचना के विस्तार के क्षेत्र में ज्यादा मजबूत होगा,उसे सही मान लिया जाएगा मगर ज्यादा संभावना तो इसी बात की है आप भगौडा,झगडालू और हत्यारे मान लिए जाएं,बिना बात की तह तक जाए हुए....!!
               ....दोस्तों इससे आगे कहने के पूर्व मैं ज़रा रुकना चाहूँगा...और आगे की बात तभी कहूंगा...जब आप इसकी मुझे आज्ञा दोगे....आपकी आगया दरअसल आपकी एक तरह की सहमति भी तो होगी मेरी बातों के प्रति......है ना दोस्तों....!!

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मंगलवार, 19 अक्तूबर 2010

भारत विश्व की एक महाशक्ति बन सकता है बशर्तें......!!!

मैं भूत बोल रहा हूँ..........!!

भारत विश्व की एक महाशक्ति बन सकता है बशर्तें......!!!

   इन दिनों तमाम पत्र-पत्रिकाओं में लगातार ही भारत के एक महाशक्ति बनने के कयास लगाये जाते हैं,महाशक्ति बन चुके और महाशक्तिमान अमेरिका को चुनौती देते चीन से उसकी तुलना भी की जाती है,मगर भारत की इस महत्वकांक्षा में सबसे बडा रोडा भारत खुद ही है और अगर यह देश अपनी कतिपय किन्तु महत्वपूर्ण खामियों को दूर करने का प्रयास नहीं करेगा तो महाशक्ति बनना तो दूर उसके धूल में मिल जाने की गुंजाईश ही ज्यादा लगती है !!आज हम इन खामियों का विश्लेषन ना भी करते हुए सिर्फ़ उन्हें चिन्हित करने का प्रयास भर करें तो भारत के महाशक्ति बनने की राह में कौन सी बाधाएं हैं,उन्हें जानकर दूर करने का प्रयास किया जा सकता है,मज़ा यह कि ये कमजोरियां इतनी खुल्लमखुल्ला हैं कि उन्हें आंख मूंदकर भी जाना जा सकता है,बशर्ते कि हम अपने भीतर ईमानदारी से झांकने को तैयार हों !!  
                पहला,भारत के राजनेताओं में देश के प्रति ममत्व का अभाव तथा दूरदर्शिता की कमी--विगत कई बरसों से यह देखा जा रहा है, तरह-तरह की खिचडी सरकारों ने अपने असुरक्षा-बोध के कारण देश के खजाने को निर्ममतापुर्वक तथा निहायत ही बेशर्मीपुर्वक ऐसा लूटा है,जिसकी की कहीं और कोई मिसाल ही नहीं मिलती तथा अपने इसी असुरक्षाबोध के कारण उन्होने अपने शासन के दौरान धन कमाने(कमाने नहीं बल्कि लूट्पाट करने)के बाद बचे-खुचे समय में भी बजाय शासन करने के एक-दूसरे की टांग-खिंचाई ही की है,सिर्फ़ विरोध के लिए विरोध...निन्दा के निन्दा ही जैसे उनका एकमात्र मकसद रह गया प्रतीत होता है.ऐसे में देश के लगभग सभी राज्यों की प्रशासनिक व्यवस्था प्रायश: चुल्हे में जा गिरी है,और आर्थिक व्यवस्था पर तो जैसे घून ही लगा जा रहा है,हर कोई बस अपना-अपना हिस्सा बांटने के लिए सत्ता में भागीदार बन रहा है और इसीलिए हर कोई हर किसी को अपना हिस्सा खाने में मददगार बनकर अपना हिस्सा सुरक्षित करने भर में आत्मरत है,तो फिर ऐसे देश,जिसकी सभी व्यवस्थाओं का जहां उपरवाला ही मालिक है,के महाशक्ति बनने की कामना या स्वप्न एक हंसी-ठठ्ठे से ज्यादा और कुछ नहीं लगता....!!
                दूसरा ,भारत के व्यापारी वर्ग की भयंकर आत्मरति भरी बनियावृत्ति --भारत का व्यापारी वर्ग,चाहे वो किसी भी जात-वर्ग या धर्म-विशेष का ही क्यों ना हो,उसकी वृत्ति आज भी प्राचीन काल की तरह आत्मलीन-आत्मरत और स्वार्थ से ओत-प्रोत रहते हुए अपने हितों की रक्षा करने हेतु शासक-वर्ग की चिरौरी करना और उसके तलवे चाटना भर है.इस स्थिति में आज इतना फ़र्क अवश्य आ गया है कि इस ग्लोबल युग में बडे-बडे उद्योगपति सत्ता की वैसी चिरौरी नहीं करते,बल्कि सरकारों को अपने राज्य और देश के विकास के लिए उन उद्योगपतियों की राह में आगे चलकर फूल बिछाने पडते हैं,मगर इससे इस स्थिति में अलबत्ता कोई फ़र्क आ गया हो,नहीं दिखाई देता...क्योंकि आज के दौर में सत्ता और बडे व्यापारी और उद्योगपति एक-दूसरे के पूरक बन चुके हैं,दोनों ही एक-दूसरे का खूब दोहन करते हैं और इसका परिणाम कभी नंदी-ग्राम,सिंगूर तो कभी उडीसा-झारखंड के विभिन्न हिस्सों में पैदा हुई हिंसा के रूप में दिखाई देता है,इसका अर्थ यह भी है कि भारत का सत्ता-तंत्र भारत के विकास में यहां के आम लोगों को विश्वास में लेने का हिमायती नहीं है और यदि ऐसा है तो भी आने वाले दिनों में तरह-तरह के विरोध के स्वर की अनुगूंज और हिंसा का वातावरण दिख पडने वाला है,जिसके मूल में होगा इन्हीं बनिया लोगों का क्षूद्र स्वार्थ और लालच,जिसे देश के विकास का जामा पहना कर आम जनता का हक छीनते जा रहे हैं ये कतिपय लोग !!
                 तीसरा,विकास की किसी समुचित अवधारणा का नितान्त अभाव-- भारत के विकास में किसी भी भारतीय में विकास का कोई खाका,कोई मानचित्र,कोई रास्ता,कोई सोच या किसी भी किस्म की समुचित अवधारणा का सर्वथा अभाव है.या यूं कहूं कि भारत कैसा हो ,ऐसा कोई सपना भारत के किसी नागरिक के मन में पलता हो,ऐसा दिखाई नहीं देता,या कम-से-कम इसके जिम्मेवार नेताओं में तो बिल्कुल भी नहीं,और मिलाजुला कर कोई एक खाका खींच पाने को कोई व्यक्ति,समूह तत्पर हो,ऐसा भी देखने में नहीं आता !बस विकास-विकास का रट्टा चल रहा है हमारे चारों तरफ़,कि इसको बुला लो,उसको बुला लो...लेकिन यह तय नहीं है कि कैसे,कितना कितने समय में और क्या करना करना है,यह कोई नहीं जानता कि कितने प्रतिशत खेती करनी है,उस खेती के लिए उसके साधनों का क्या-कितना-कैसा विकास करना है और विकास की इस अवधारणा के चलते जो अहम चीज़ पीछे छूट जाती है वो यह है कि इसका कोई अनुमान,आकलन या सरसरी तौर पर लिया गया कोई आंकडा तक नहीं है कि जिस विकास के लिए उपजाऊ खेतों को यानि कि किसानों की रोजी-रोटी के एकमात्र साधन यानि कि [अभी के आकलन के अनुसार "सेज" की खातिर (प्रस्तावित जमीन)ली जाने वाली याकि छीनी जाने वाली जमीन के ऊपर प्रतिवर्ष दस लाख टन अनाज उपजाया जाता है !!]को छीनकर उसके बदले किए जाने वाले विकास का क्या मूल्य है,क्या गुणवत्ता है,क्या आयु है और क्या पर्यावरणीय नुकसान या फ़ायदे हैं,उनसे किनको और किस हद तक फ़ायदा है तथा देश के लिए,इसकी सामाजिक,आर्थिक और पारम्परिक स्थितियों के मद्देनज़र कौन-सा विकास सचमुच ही फ़ायदेमन्द है !!
                  चौथा,इस अदूरदर्शिता के कारण घट सकने वाले संकट को देख पाने में असमर्थता-- अपनी इस अदूरदर्शिता की वजह से पहले आओ-पहले पाओ की तर्ज़ पर बुलाए और निमंत्रित किए जाने वाले लोगों की बन आयी है और आने वाले लोगों की बांछे सरकारों की ऐसी तत्परता देख कर वैसे ही खिल-खिल जाती है,और वो काम को अमली जामा तो बाद में पहनाएं या कि पहनाएं कि ना पहनाएं,मगर तरह की शर्तें और डिमांड पहले धर देते हैं कि पहले ये दे दो-वो दे दो,ये फ़्री करो-वो फ़्री करो,इतनी जमीन चाहिए,इतनी बिजली,इतना पानी इतने सस्ते मज़दूर,इतनी दूर या पास और इस तरह का बाज़ार और "सेल" की गारंटी यानि इतनी सरकारी खरीदी की गारंटी....वल्लाह क्या बात है...सुभानल्लाह क्या बात है और ले देकर वही बात कि ये खान दे दो,वो खान दे दो...फ़ैक्टरी के नाम और स्थानीय लोगों को रोजगार देने के नाम पर ली गयी तमाम रियायतों के बावजूद होता ठीक इसका उलटा ही है,यानि कि कानून को धत्ता बताना,नियमों की धज्जी उडाना,कायदे-कानूनों को ताक पर धर देना...स्थानीय लोगों को रोजगार तो क्या,कभी फ़ैक्टरी के दर्शन तक नसीब नहीं हो पाते गांव-वालों को...क्योंकि यह सब सुगमतापूर्वक शायद भारत में ही संभव है !!
                  पांचवा,आम भारतीय जन की काहिली और गप्पबाजी की खतरनाक आदत-- यह एक मुद्दा हमें कोसों पीछे ढकेल सकता है अगर इसके प्रति हम सचेत नहीं हुए,कि हम आम भारतीय भौगोलिक कारणों से या फिर अपनी जन्मजात काहिली की आदत के कारण ऐसे ही आम-तौर पर काफ़ी पीछे धकेले दे रहे हैं और मज़ा यह कि हमारी यह आदत हमें तो क्या किसी को हमारी बूरी आदत के रूप में दिखाई नहीं देती !!भारतीयों की इस बुराई(या खूबी??)के चलते भारत को गपोडियों का देश भी कहा जा सकता है,वो भी ऐसा कि यहां का एक सडक छाप आदमी भी दुनिया के प्रत्येक विषय में गहन रूप से पारंगत प्रतीत होता है,जो शायद अन्यत्र दुर्लभ ही है,आम भारतीय की प्रवृत्ति उन्हें दरअसल मसखरा बना देती है,मगर शायद हमें इन मामूली बातों से कोई फ़र्क पड्ता हो ऐसा देखने को नहीं मिलता,मगर सच तो यह है कि काम के दौरान की जाने वाली व्यर्थ की बातों के कारण किस प्रकार मिनटों का काम घंटों में परिणत हो जाता है,इसे देखने का होश शायद अब तक किसी को नहीं है या फिर ये भी संभव हो कि इसे समस्या के रूप में देखा ही ना जाता हो,क्योंकि काम के प्रति सबका रवैया एक-सा ही है इसलिए सबकी कार्यशैली तकरीबन यही बन चुकी है,किन्तु गप्पबाजी की यह आदत कब कामचोरी में बद्ल जाती है इसका अहसास भी आम भारतीयों को नहीं है,इसीलिए किसी भी काम में लेट-लतीफ़ी समस्त भारतीयों की पेटेंट फ़ितरत है और इस फ़ितरत के रहते हुए महाशक्ति तो क्या क्षेत्रीय शक्ति बनने के आसार भी नज़र नहीं आते !!
         छ्ठा,विज्ञान के साथ आम भारतीयों का अलगाव--विज्ञान के साथ आम भारतीयों का अलगाव साथ भारत के पारम्परिक ज्ञान के साथ भारत के वैज्ञानिकों का दुराव-- किसी भी देश की प्रगति में समय के साथ कदम-ताल मिला कर चलने की प्रवृत्ति के साथ ही अपनी परम्परा से आयी हुई खास आदतों और विशेषताओं को सहेज कर रखना भी विकास की ही एक कसौटी मानी जाती है जबकि भारत के सन्दर्भ में इसका ठीक उल्टा ही होता प्रतीत होता है कि जहां यहां के लोगों में किसी भी प्रकार की वैज्ञानिक चेतना का अभाव है बल्कि यहां के  वैज्ञानिकों में भी भारत के बहुमुल्य पारम्परिक ज्ञान के प्रति कोई सम्मान का भाव नहीं है और मिलाजुला कर इन दोनों पक्षों की अज्ञान-पूर्ण सोच के कारण आम लोगों में  विज्ञान का प्रसार तथा खास लोगों में पारम्परिक चेतना का प्रसार होता नहीं दिख पड्ता और इस स्थिति के रहते भी सामंजस्य पूर्ण विकास कतई सम्भव होता नहीं दिखता,क्योंकि इस तरह से कोई कार्य अपने जमीनी रूपों में साकार होता नहीं दिख पड्ता,सोच की यह विषमता दोनों पक्षों में एक किस्म का दावानल ही है !!
         कुल मिलाकर हम यह पाते हैं कि-- सच में ही भारत की तरक्की की राह में खुद भारत ही यानि कि भारतीय ही सबसे बडी बाधा हैं और सवाल यह है कि क्या हम भारतीय अपनी इन कमियों को स्वीकारने को तैयार हैं?देश जैसी एक भावूक चेतना का पोषन करने के लिए अपनी निजता का हनन करना होता है,अपने स्वार्थों को परे धरना पड्ता है,खून और पसीना बहाकर दिन-रात एक करना होता है!!सवाल यह कि क्या हम भारतीयों में भारत के प्रति कोई आमूल सोच,कोई विजन,कोई सपना है!मगर उससे भी बडा प्रश्न तो यह है कि भारत के रहनुमाओं के पास भारत के लिए कोई दिशा है?कोई अध्ययन,कोई रोशनी है कि थोडी सी दूर तक भी भारत उस रोशनी में अपने पांव बढा सके!!इनके मन में ऐसा कोई सपना भी है,जिसे तिरसठ साल पहले इसे आज़ाद कराने वाले स्वतन्त्रता सेनानियों ने बोया था तथा कुछ  ने तो बडी सीधी सी राह भी दिखाई थी!! दरअसल सपने ही वो रोशनी होते हैं,जिसकी आंच में तपकर आदमी निखरता है और जिसके प्रकाश में विकास,या तरक्की जो जो कहिए,के भीने-भीने और सुगन्ध भरे फूल खिलते हैं,और भारत के मामले में भी यह सच निस्सन्देह ही उलट तो नहीं हो सकता !! 

मंगलवार, 12 अक्तूबर 2010

हां....गर्व से कहिए कि हम एक समाज हैं......!!

मैं भूत बोल रहा हूँ..........!!

  हां....गर्व से कहिए कि हम एक समाज हैं......!!                                

कभी जब भी मैं अपने आस-पास के समाज पर नज़र दौडाता हूं....तो ऐसा लगता है कि यह समाज नहीं....बल्कि एक ऐसी दोष-पूर्ण व्यवस्था है,जिसमें लेशमात्र भी सामाजिकता नहीं.....उदाहरण हर एक पल हमारे सामने घटते ही रहते हैं....इस समाज में जीवन-यापन के लिए नितांत आवश्यक चीज़ है आजीविका का साधन होना....और दुर्भाग्यवश यही आजीविका का सिस्टम ही ऐसा बना दिया गया है कि इससे बचने का कोई रास्ता भी नज़र नहीं आता....अब ये सिस्टम क्या है,ज़रा इस पर भी गौर करें...मगर इससे पूर्व यह भी देख लें कि पहले कम-से-कम भारत में क्या हुआ करता था....सदियों पहले व्यापार जब हुआ करता था...उसमें व्यापारी लोग किसान या उत्पादन-कर्ता से माल खरीद कर खुद उसे यत्र-तत्र ले जाकर बेचा करते थे....इस प्रकार लोगों को महज दो हाथों से होकर किसी भी तरह का माल उपलब्ध हो जाया करता था...इसका अर्थ यह भी हुआ कि किसी भी तरह का माल अपने उत्पादक हाथों से [उनके उचित लाभ को जोडकर]व्यापारी से होकर [पुन: उनके उचित लाभ को चुकाकर]छोटे शहरों के दुकानदारों के हाथों [उनका लाभ चुकाकर]उपयोग-कर्ताओं तक पहुंचता था...देख्नने में तो यह बात आज की परिस्थितियों जैसी ही जान पड्ती है....मगर वैसा है नहीं....यहां देखने वाली बात यह है कि...यहां कोई बिचौलिया आदि  का अस्तित्व नहीं दिखायी देता और साथ ही माल ढोने वाला ट्रांसपोर्टर खुद् व्यापारी ही हुआ करता था...इस प्रकार कम-से-कम दो जगह लाभ का बंट्वारा होने से बचता था....इसका अर्थ यह भी हुआ कि उपयोग-कर्ता तक कोई भी माल थोडी कम,या यूं कहूं कि वाजिब कीमत में,पहुंचता था,तो भी गलत नहीं होगा...मेरे द्रष्टिकोण से जिस समय इस वर्तमान किस्म का व्यापार का चलन ना हुआ होगा....व्यापारी भी उचित लाभ लेकर ही कीमत का निर्धारण किया करता होगा....कम-से-कम पुराने काल की कीमतों को जब हम आंकते हैं तो साफ़-साफ़ यह पता चलता है.....कि बहुत दूर तो क्या अभी हाल के सात-आठ दशकों पूर्व भी कीमतें बिल्कुल उचित हुआ करती थीं...और यह भी कि उस वक्त कीमत तय करने का सिसट्म बेहद पारदर्शी हुआ करता था....जहां अंतिम खरीदार को भी सभी जगह वितरीत हुए लाभों का पता हुआ करता था !!
                   आज अब जैसा कि सिस्टम बना जा रहा है....या कि बनाया जा रहा है...या कि बना दिया है...उससे यह साफ़ परिलक्छित होता है कि यह सिस्ट्म सत्ताधिकारियों-उत्पादन-कर्ताओं और बडे व्यापारियों की सांठ-गांठ रूपी व्यभिचार का सिस्टम है...जिसमें सरकार उत्पादनकर्ता या बडे रसूखदार व्यापारी को सब-कुछ करने की असीम छूट देती है...बदले में सरकार को पिछ्ले रास्ते से उसका "हिस्सा" पहुंच जाया करता है...और बेशक यह किसी को भी दीख नहीं पाता....यह सब इतना सुचारू है... नियमित है...प्रबंधित है....कि आम आदमी की तो क्या बिसात....अच्छे-अच्छों को भी इस सिस्टम में छिपे व्यभिचार का जरा भी आभास नहीं है....सिर्फ़ वो ही लोग इसे जान और समझ पाते हैं,जो इस सिस्टम से जा जुड्ते हैं....और इसकी कीमत चुकाते हैं... अरबों-अरबों लोग....क्या कोई जानता है...कि उसके हाथों तक पहुंचने वाली किसी भी वस्तु की उचित कीमत क्या होनी चाहिए..??
                             क्या किसी को इस बात का आभास भी है....बडी-बडी "बहु"-राष्ट्रीय कंपनियां...जो अपनी मोनोपोली द्वारा अकूत लाभ बटोरे जाती हैं,वो दरअसल हमें पता भी नहीं कि एक रुपये की लागत की वस्तु का मुल्य यानी कि एम.आर.पी. क्या तय कर सकती हैं...क्या आप में से कोई अंदाजा भी लगा सकता है...??नहीं....!!??.....तो फिर जान लीजिये आपके लिये यह कीमत कम-से-कम दस रुपये तो होगी ही....बीस रुपये तक भी हो सकती है....और किसी असामयिक परिस्थिति में [अर्थशास्त्र के अनुसार डिमांड बढ्ने पर वस्तुओं के मूल्य में ब्रद्धि होती है....और यह अर्थ-शास्त्र किन लोगों ने लिखा....??]पचास रुपये तक भी जा सकती है...और अकसर जाया भी करती है....!!
                     कहने को तो आदमी ने अपनी सुरक्शा के लिए इस समाजरुपी तंत्र का निमार्ण किया है....हम खुद भी समाज के रूप में स्वयं को शायद बेहतर समझते हैं....मगर....समाज अगर सच्ची ही समाज है....तो क्या वह अपने सदस्यों से इस तरह की लूट्पाट कर सकता है...??.....एक रुपये की वस्तु का इतना नाजायज मुल्य ले सकता है....मोनोपोली....बिचौलिए .....सरकारी कमीशन.....ट्रांसपोर्टर.....और आज का सबसे बडा खर्च विग्यापन....और सबसे बढ्कर इन ये सब मिलकर किसी भी वस्तु का मुल्य...इतना-इतना-इतना ज्यादा बढा देते है....कि आम आदमी को तो यह भी नहीं पता कि उसके द्वारा उसकी अथाह मेहनत से कमाए जा रहे जरा से रुपये से किया जाने वाला एक-एक रुपये का खर्च किस प्रकार कुछ थोडे से लोगों की संपत्ति में इजाफा किये जा रहा है.....!!!  

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गुरुवार, 7 अक्तूबर 2010

आदरणीय प्रधानमंत्री जी......................


आदरणीय प्रधानमंत्री जी,
                समुचे देशवासियों की और से आपको राम-राम (साम्प्रदायिक राम-राम नहीं बाबा !!)
                आदरणीय पी.एम. जी,अभी कुछ दिनों पहले आपका बयान देखा था अखबारों में लाखों-लाख किलो अनाज के सडने पर अदालतों द्वारा उसे गरीबों को मुफ़्त मुहैया कराये जाने के आदेश पर,जिसे पहले आपके परम आदरणीय मंत्रियों ने सलाह बतायी और फिर अन्य गोल-मोल बातें बताने लगे,आपने भी अदालतों को सरकार के नीतिगत मामलों में नसीहत ना देने की नसीहत दे डाली !लेकिन ऐसा कहते वक्त आपने एक क्षण के लिए भी यह नहीं सोचा कि अदालतों को क्या किसी पागल कुत्ते ने काटा है जो वह आये दिन बार-बार ऐसे मामलों पर आदेश या राय देती है जो असल में सरकारों को करना चाहिए,मगर दुर्भाग्यवश वो करती ही नहीं...अभी अभी मैनें एक जज को यह शेर कहते हुए सुना कि"उलझने अपने दिल की सुलझा लेंगे हम.....आप अपनी ज़ुल्फ़ को सुलझाईए...!!तब मेरा भी कुछ कहने को जी चाहने लगा और मैं आपको यह पत्र लिखने बैठ गया !!
                           "वो नहीं सुनते हमारी,क्या करें....मांगते हैं हम दुआ जिनके लिए....चाहने वालों से गर मतलब नहीं....आप फिर पैदा हुए किनके लिए" ये दोनों शेर मेरे लिए ऐसे हैं जैसे वोट देते हैं हम सभी जिनके लिए......और अपनी ही जनता से गर मतलब नहीं...आप फिर पैदा हुए......तो आदरणीय श्री पी.एम.जी और केन्द्र तथा राज्य की सभी सरकारों के परम-परम-परम आदरणीय श्री-श्री-श्री सभी मंत्री-गण जी.....बात-बात में अदालतों के कोप से क्रोधित होने के बजाय आप सब अपनी बात-बात को,हर बात को अदालत में घसीटने के बजाय आपस में क्यूं नहीं सलटा लिया करते हो...ओटो वाले के भाडा बढाने की बात हो,बच्चों के नर्सरी में एडमिशन का सवाल हो,जन सामान्य की सुविधा के बस खरीदने का प्रश्न हो,ट्रैफ़िक व्यवस्था सुधारने का प्रश्न हो,फ़ुटपाथ दुकानदारों के हटाने का सवाल हो या उन्हें पुन: बसाने का प्रश्न,किसी कारखाने या किसी भी सरकारी योजना के कारण अपनी जगह से हटने वाले लोगों के पुनर्वास का प्रश्न हो या कि किसी भगवान आदि के जन्म-स्थल को तय करने जैसे एकदम से जटिल और किसी भी तरह की अदालत से बिल्कुल अलग रहकर या अदालतों को किसी भी हालत में उन मामलों में ना घसीट कर आपस में ही सर्वमान्य सहमति कायम करने के मामले हों.....हुज़ुरे-आला जरा जनता को यह बताने की कष्ट करेंगे कि इन मामलों में किसी भी किस्म का फैसला किसे करना चाहिये...??और अगर वो फैसले उन फैसलों को करने वाली अधिनायक ताकत नहीं कर पाती है तो क्यों...??तो फिर उस ताकत यानि उस सत्ता में बने रहने का हक क्यों है,उसने किस काम के लिए चुनाव जैसी चीज़ में येन-केन-प्रकारेण जीत पाकर कौन सा काम करने के लिए सत्ता में जाने का जिम्मा लिया है...??अपने किसी भी तरह के फैसले को जनता के बीच लागू करवाने की नैतिक ताकत इस सत्ता में क्यों नहीं है और इसके लिए उसे बारम्बार पुलिस और सैनिकों की आवश्यकता क्यों है...??अपनी हर बात को किसी सैनिक-शासक की तरह जबरिया लागू कराने की विवशता क्यों है...??...और अन्त में यह कि तरह-तरह की तमाम बातों को अदालतों में घसीट कर ले ही गया कौन है....किसी भी मुद्दे पर अपने द्वारा लिए जाने वाले फैसलों को अदालतों पर टाला किसने है....??
                  आदरणीय श्री पी.एम.जी और केन्द्र तथा राज्य की सभी सरकारों के परम-परम-परम आदरणीय श्री-श्री-श्री सभी मंत्री-गण जी अभी कुछ दिनों बाद ही दशहरा है,और आपको पता है कि ये अदालतें आपकी तमाम सरकारों को क्या आदेश या सलाह देने वाली हैं....वो कहने वाली हैं कि सडकों पर फ़ैले कचरे को उठाओ....बजबजाती नालियों को साफ़ करो भैईया...क्योंकि दशहरा और दुर्गा-पूजा देखने जाने वालों को कोई कष्ट ना हो....और फिर उसके कुछ दिनों बाद ही दीवाली और छठ आएगी और एक बार फिर ये अदालतें एक बार फिर उन्हीं लोगों को वही नसीहत देंगी और यह भी कहेंगी कि भैईया लोगों अब जरा तमाम नदी-तालाब-घाटों को भी साफ़ कराओ....तब प्रशासन की नींद खुलेगी और वो अचानक हरकत में आएगा....तो अदालतों के साथ-साथ मेरा और तमाम देशवासियों का भी आप सबसे यही सवाल है कि आप सब वहां क्यों हैं अगर आपको हर प्रशासनिक कार्य करवाने के लिए गहरी नींद से जगाना पडे...हर महत्वपूर्ण कार्य के लिए जनता को आंदोलन ही करना पडे...यहां तक कि आप ही के यहां काम करने वाले अपने वेतन या पेंशन के लिए अदालत तक जाना पड जाए...यहां तक कि आप किसी शिक्षक को पच्चीस-पच्चीस बरस तक वेतन ही ना दो....उसका लाखों-लाख रुपया आपके पास बकाया हो और उसके बाल-बच्चे भूखे मरें....और तो और....जो काम आप सब करो उसमें भी बस ही अपना वारा-न्यारा कर डालो.....जनता के लिए किए जाने वाले कार्य में जनता का धन खुद ही डकार जाओ....और जनता को खबर भी ना हो....यही नहीं भूखी मरती हुई जनता के लिए भेजी गयी सहायता राशि की बंदरबांट कर लो...और जनता कलपती हुई मर जाए....धरती के उपर के और नीचे के तमाम कच्चे या पक्के माल या साधनों की बंदरबांट कर लो....और वहां रहने वाले गरीबों को हमेशा के लिए बेदखल कर दो.....वो जीये चाहे मरें....तुम्हारी बला से.....क्योंकि तुम विकास चाहते हो....क्योंकि उस विकास में ही दरअसल तुम सबका "विकास" है !!??
                         आदरणीय श्री पी.एम.जी आप आज की तारीख में सबसे ईमानदार पी.एम कहे जाते हो......किन्तु सरकार मुझे इस बात से तनिक भी इत्तेफ़ाक नहीं है...क्योंकि अगर आपकी  नाक के एन नीचे यह सब चलता होओ....आपके अगल-बगल के समस्त मंत्रीगण बिना किसी लाभकारी व्यापार या व्यवसाय के करोडपति हों,अरबपति हों....और आपकी भुमिका उसमें कतई नहीं...ऐसा कोई पागल भी नहीं मान सकता....और तो और आपके खुद के कार्यकाल में लगातार यही सब हो रहा होओ,जो पिछ्ले साठ-बासठ बरसों से होता आया है....तो मुझे आप यह तो बताओ कि क्यों नहीं इस सबमें आपकी भुमिका को संदिग्ध माना जाये.....यह तो एक अल्बत्त मज़ाक है कि एक ऐसी सरकार,जिसके सब लोग धन के समन्दर में गोते-पर-गोते खाये जा रहे हों,उसका मुखिया किनारे खडा होकर यह कह रहा होओ....कि हम तो बिल्कुल नहीं भीगे जी....हमें तो छींटे पडे ही नहीं.....पता आपको इस किस्म की बेहुदी बातें कौन लोग करते हैं.....भांड लोग...भांड....!! लेकिन यह भी बडा मज़ाक है कि यह बातें मैं किससे कर रहा हुं....उससे, जो किसी के प्रति जवाब-देह ही नहीं....कम-अज-कम जनता से तो नहीं ही...जिसने अपने सब कार्य-कलापों का चिट्ठा सिर्फ़ एक उस व्यक्ति को देना है,वो खुद भी किसी महत्वपूर्ण सरकारी पद पर नहीं बैठा हुआ होने की वजह से किसी के प्रति जवाब-देह ही नहीं....कम-अज-कम जनता के प्रति तो नहीं ही...बेशक वो ना केवल पी.एम. पद को अपितु सभी मंत्रालयों को अपनी मर्ज़ी के अनुसार चलाता होओ...अरे-रे-रे ऐसा मैं नहीं कहता...बल्कि सब कहते हैं और मैं सुनता हूं..और ऐसा मानने में मुझे कोई हिचक नहीं होती कि शायद ऐसा हो भी...जो तकरीबन दिखाई भी देता है...जो शायद गलत नहीं भी है....तो यह भी एक मज़ाक ही है देश के प्रति कि देश को चलाने वाला प्रधानमंत्री एक ऐसा व्यक्ति है जो संसद या देश के प्रति जवाबदेह ना होकर अपनी पार्टी के प्रति जवाबदेह है....और उसकी पार्टी को चलाने वाला मुखिया चुकिं सरकारी ओहदे पर नहीं है,इसलिए वो भी संसद और देश के प्रति अपनी जवाबदेही से च्यूत है.....अगर ऐसा ही है सरकार....तो हम सब भी पागल ही तो हैं...जो जगह-जगह शोर मचाते हैं....हज़ारों पन्ने काले करते हैं....और तमाम मंत्रियों की खुदगर्ज़ जिन्दगी में दखल देने की गैरजिम्मेदाराना हिमाकत करते हैं....अगर देश के तमाम लोग भी ऐसे ही हैं...मैं खुद भी ऐसा ही हूं....तो यह सब बातें तो विधवा का विलाप ही हैं....सो इस विलाप के लिए मुझे माफ़ करें....इस बात-बहस के लिए मुझे माफ़ करें...सरकार सच कह रहा हूं,मुझे माफ़ करें !!
-- http://baatpuraanihai.blogspot.com/
शनिवार, 2 अक्तूबर 2010

विभिन्न धर्मों के लोगों में से एक इंसान की आवाज़....!!

मैं भूत बोल रहा हूँ..........!!
                   पिछले दो दिनों से सोच रहा हूँ कि इस विषय पर लिखूं कि ना लिखूं....ऐसा यह विषय,जो शोध का है,पुरातत्व का है,इतिहास का है,वर्तमान का है,भविष्य का है,आस्था का है,कर्तव्य का है,दायित्व का है,भाईचारे का है,बड़प्पन का है,सौहार्द का है,धर्म का है,देश की शान्ति का है,आपस में मिलकर रहने का है....और हम चाहें तो यह अब न भूतो ना भविष्यति वाली मिसाल का भी हो सकता है...मगर अहम भला ऐसा क्यूँ होने देंगे...!!पांच-सौ साल से लटके हुए एक मुद्दे पर किसी कोर्ट ने एक फैसला दे दिया है.....जिसके लिए उसने हज़ारों तरह के साक्ष्य,पुरातात्विक प्रमाण,गवाहियां और ना जाने क्या-क्या कुछ देखा है,समझा है...इस प्रकार एक किस्म का गहनतम शोध किया है हमारे न्यायाधीशों ने इस विषय पर...और तब ही उन्होंने आने वाले भविष्य को ध्यान में रखते हुए...भारतीय-जनमानस और उसकी हठ-धर्मिता की संभावना को भांपकर यह फैसला लिया है....कभी-कभी क़ानून भी परिस्थितियों के मद्देनज़र फैसला लिया करता है...बेशक आप उसे गलत ठहरा दें...मगर जो मामला आप उसके पास ले जाते हैं....जरूरी नहीं कि उसमें क़ानून की बारीकियां ठीक उसी तरह काम करें...जिस तरह वो अन्य भौतिक मामलों में काम करती हैं...और अगर ऐसा ही आसान मामला आप इस राम-जन्म-भूमि मामले को समझते हो तो आपको गरज ही क्या थी इसे कोर्ट ले जाने कि...और आपने अगरचे कहा था कि आप कोर्ट का कोई फैसला आये उसे मानने के लिए बाध्य होगे....तो अब क्या सुप्रीम-कोर्ट-सुप्रीम कोर्ट की रट लगा रहे आप....??
                   सबसे पहली बात तो यह कि जिन लोगों का यह कहना है कि यह फैसला आस्था के आधार पर दिया गया है...उनसे कुछ बिन्दुओं पर दृष्टि डालने पर जोर दूंगा(१)हम सब अपने लिखित और अलिखित इतिहास से यह जानते हैं कि हिन्दुओं के आराध्य भगवान् राम का जन्म अयोध्या में हुआ है...और हमारे सारे पौराणिक ग्रन्थ इस बात की तस्दीक करते हैं...भले आप धर्म-निरक्षेप-वादियों और अन्य धर्मावलम्बियों की दृष्टि में एक मज़ाक हो,थेथरई हो,हठ-धर्मिता हो,या बेबुनियाद आस्था ही हो,जो भी हो...मगर एक मात्र सत्य तो आपको मानना ही पडेगा कि अयोध्या ही भगवान् श्री रामचंद्र जी की जन्म-भूमि थी और चूँकि थी,इसीलिए है और रहेगी...और यह भी सच है यह भूमि अयोध्या के किसी और स्थान पर नहीं मानी जाती इसीलिए अवश्य ही यही रही होगी...अगर राम जी पता होता कि भविष्य में किसी गैर-धर्मावलम्बी द्वारा हथिया कर या फिर स्वयं नष्ट होकर ऍन उसी जगह पर किसी मस्जिद के रूप में निर्मित हो जाने वाली है तो शायद उन्होंने उस जगह का चुनाव संभवतः नहीं ही किया होता....किन्तु अब चूँकि पहली गलती राम से ही हो चुकी...सो उसका परिणाम तो उनके वंशजों को भुगतना ही ठहरा....(२)मेरे प्यारे-प्यारे पढ़े-लिखे सम्मानीय भाईयों और बंधू-बांधवों...अब चूँकि अयोध्या नामक उस जगह पर राम जी जन्मस्थान का कोई और क्षेत्र भारतीयों द्वारा कभी निर्धारित ही नहीं किया जा सका इसीलिए यह मानना भी हमारी विवशता ही होगी कि दुर्भाग्यवश श्री राम जी ने वहीँ जन्म लिया....अब चूँकि श्री राम जी ने किसी झोपड़ी में जन्म ना लेकर एक राजा के महल में जन्म लिया था...तो इससे कम-से-कम यह भी तय है कि वह राजमहल कई एकड़ जमीन पर फैला हुआ होगा....सो यह भी तय हुआ कि आज की तारीख में तो क्या उस समय का भी उसका कोई नक्शा अब तक किसी के पास होने से ठहरा...अब चूँकि नक्शा ही नहीं है तो एकदम से यह नहीं बताया जा सकता कि वह कौन सा बिन्दु था जहां श्री राम जी जन्म लिया होगा....!!!
                     मगर अबे मेरे बाप-दादाओं....और तमाम सम्मानित लोगों ,अगर यह तय ही है कि अयोध्या ही राम का जन्म-स्थान है....और भले ही मान्यतावश यह माना जाता है कि वही स्थान राम का जन्मस्थान हो सकता है,चूँकि कोई और स्थान की डिमांड यहाँ नहीं हो रही...और जिस पर कालान्तर में ताकत द्वारा कब्जा कर लिया गया.....जो भी हो यहाँ यह कहना भी बात को असंगत मोड़ देना हो जाएगा... क्योंकि जैसा कि हम जानते हैं कि विगत इतिहास में मुगलों द्वारा भारतीयों पर किसी किस्म का अत्याचार-शोषण आदि नहीं हुआ था और उस काल में हम सब मिलजुल कर रहते थे....और मुग़ल इतने सहिष्णु हुआ करते थे कि उन्होंने मंदिर तोड़ना तो दूर....अपितु हमें मंदिर बनवा-बनवा कर दान में दिए थे...छोड़िए,यह भी  विषयांतर हो जाएगा...तो अब चूँकि राम-लला वहीँ के थे,हैं,और रहेंगे....तो भईया लोगों इसमें आस्था का क्या सवाल है...!!.अब हमारा इतिहास हमेशा से लिखित इतिहास नहीं रहा तो क्या यह कोई पाप हो गया...??हमारा कोई आराध्य पूर्वज हजारों-हजार साल पहले होकर चला गया,अपना बिना कोई लिखित विवरण दिए....तो इसमें उसका या हमारा कोई अपराध है...?? अ
                    हम फिर से उसी बात आते हैं....!!अब अगर कोई महल है तो उसके फैले हुए क्षेत्रफल में कहाँ से कहाँ तक किस-किस तरह के प्रकोष्ठ...शयन-कक्ष या किन्हीं अन्य तरह के कक्ष रहें होंगे....इस बात की तस्दीक अब कौन करेगा...बुखारी जी,जिलानी जी,मोहन भागवत जी,आडवाणी जी,मुलायम जी या जस्टिस श्री शर्मा जी,अग्रवाल जी या कि खान साहेब जी....कौन करेगा इस बात की तस्दीक....??और चूँकि हम सब यह जानते हैं कि इसे सही तरह से साबित ही नहीं किया जा सकता...तो इस पर किसी भी तरह का सवाल उठाने का अधिकार ना तो हममे से किसी का था....और ना किसी जस्टिस के फैसले का सवाल ही था...और जब यह दोनों ही बातें थीं....तो इस पर दे दिए गए किसी भी किस्म के फैसले पर सवाल उठाने या आक्षेप करने का अधिकार किसी भी किस्म की ताकत को होना चाहिए !!
                   ध्यान रहे यह सबको कि यह बात कोई एक हिन्दू नहीं कह रहा....हमारा किसी भी जात या धर्म  का होना या ना होना एक संयोग मात्र है...इसे हमें अपनी मानवीयता पर किसी भी कीमत पर हावी नहीं होना देना चाहिए...इस धरतीं पर राम जी कृपा से हर एक कौम का अपना एक मुख्य काबा....या जो भी कुछ है...उसमें अगर एक काबा हिन्दू का भी हो जाए तो उसमें किसी का क्या बिगड़ता है....सिर्फ यह बात भी हम सब सोच लें तो बात बन सकती है....वरना सदियों से हमने अपने धर्म को फैलाने के लिए कोई कम खुनी लड़ाईयां नहीं खेली हैं....अगर धर्म का नाम किसी के खून से होली ही खेलना है तब तो मुझे कुछ नहीं कहना....मगर अगर सच में हममें मानवीयता नाम की कोई चीज़ अगर बची हुई है तो इस फैसले को शिरोधार्य कर ही लेना चाहिए....खुदा-ना-खास्ता अगर सुप्रीम-कोर्ट में यही बात साबित हो गयी कि हाँ यही राम-लला का जन्म-स्थान है....तब....या इसका उलटा ही साबित हो गया....तब.....तब कौन सा भाईचारा बचा रह पायेगा....तब या तो यह होगा और या तो वह....और दोनों ही स्थिति में......मैं इस पर कुछ कहना नहीं चाहूँगा...किन्तु मैं हिन्दू ना भी होता तो इस आस्था....श्रद्धा के इस घनीभूत केंद्र पर लोगों की अपने प्रभु-दर्शन को प्यासी आँखें देखकर उसे उनलोगों को ही समर्पित कर डालता....यहाँ तो बाकायदा हजार साल चली आ रही श्रद्धा है....और क्या मजाक है कि आप इसे बेबुनियाद या इसी टाईप की कुछ चीज़ बताये जाते हो....??
                         दोस्तों इस फैसले में अगर आस्था नाम की चीज़ का अंश है भी तो आप मुझे यह तो बताईये....कि ऐसे सवाल उठाने वाले खुद क्या आस्थावान नहीं हैं....वो किस तरह के फैसले देते......या ऐसे अहम् और जन-मानस को झकझोर देने वाले प्रश्न पर अपना क्या स्टैंड रखते....और अगर वो किसी भी पक्ष की आस्था से प्रेरित हुए होते तो किस प्रकार के फैसले लेते....और आस्थावान ही ना हुए होते तो भला फैला ही क्या दे पाते....कभी-कभी क़ानून की रक्षा करने से बेहतर आदमी की, आदमियत की,और आदमी के भीतर अन्य चीज़ों की रक्षा करना होता है....और यह सब होता है आदमी को आदमी के साथ मिलजुल कर रहने देने के लिए.... वरना क़ानून तो क़ानून है.....वो किसी को भी कहीं से भी बेदखल कर कर सकता है....सच (या झूठ की भी ??)की बुनियाद पर...अगर वहां से राम लला बेदखल हो सकते है तो मीर बांकी या बाबर भी....महत्वपूर्ण यह है कि आप किसे आदमी के जीवन के लिए महत्वपूर्ण मानते हो....बाबर को....या राम को....चाहे आप किसी भी धर्म के क्यों ना हों...!!(....यहाँ किसी छोटा या बड़ा सिद्ध नहीं किया जा रहा,सिर्फ जीवन में आस्था के प्रश्न का औचित्य बताया जा रहा है...)हो सकता है एक बहुत बड़े वर्ग की दृष्टि में कोई बाबर या कोई मीर बांकी ,किसी दूसरी कौम के पूज्य आराध्य देव राम से ज्यादा इम्पोर्टेंट हों.....मगर इससे राम की महत्ता गिर नहीं जाएगी...और अगर राम का ना नाम लेकर यह जमीन किसी ने मस्जिद को सौंप भी दिया तो कोई बड़ा भाईचारा स्थापित नहीं हो जाएगा....भाईचारा अब किस बात में है....इस फैसले का आधार अब कोर्ट ने तैयार कर दिया है....इसे समझना अब हमारा काम है....और सबसे बड़ी बात तो यह है कि बेशक आप सब बहुत बड़े तत्व-ज्ञानी हो सकते हो.... भले तीनो माननीय जजों से से बुद्धिमान भी हो सकते हो....मगर आप राम से बड़े हों....तो ले जाईये भगवान् राम को घसीट कर सुप्रीम कोर्ट और कर दीजिये उनके आदर्शों की ऐसी की तैसी.....मर्यादा तो खैर आपमें कभी थी ही नहीं....!!!   

सोमवार, 27 सितंबर 2010

बोलो जी तुम अब क्या कहोगे....??

मैं भूत बोल रहा हूँ..........!!
                    ज़माना बेशक आज बहुत आगे बढ़ चूका होओ,मगर स्त्रियों के बारे में पुरुषों के द्वारा कुछ जुमले आज भी बेहद प्रचलित हैं,जिनमें से एक है स्त्रियों की बुद्धि उसके घुटने में होना...क्या तुम्हारी बुद्धि घुटने में है ऐसी बातें आज भी हम आये दिन,बल्कि रोज ही सुनते हैं....और स्त्रियाँ भी इसे सुनती हुई ऐसी "जुमला-प्रूफ"हो गयीं हैं कि उन्हें जैसे कोई फर्क ही नहीं पड़ता इस जुमले से...मगर जैसा कि मैं रो देखता हूँ कि स्त्री की सुन्दरता मात्र देखकर उसकी संगत चाहने वाले,उससे प्रेम करने वाले,छोटी-छोटी बच्चियों से मात्र सुन्दरता के आधार पर ब्याह रचाने वाले पुरुषों...और ख़ास कर सुन्दर स्त्रियों, बच्चियों को दूर-दूर तक भी जाते हुए घूर-घूर कर देखने की सभी उम्र-वर्गों की जन्मजात प्रवृति को देखते हुए यह पड़ता है कि स्रियों की बुद्धि भले घुटने में ही सही मगर कम-से-कम है तो सही....तुममे वो भी है,इसमें संदेह ही होता है कभी-कभी....स्त्रियों को महज सुन्दरता के मापदंड पर मापने वाले पुरुष ने स्त्री को बाबा-आदम जमाने से जैसे सिर्फ उपभोग की वस्तु बना कर धर रखा है और आज के समय में तो विज्ञापनों की वस्तु भी....तो दोस्तों नियम भी यही है कि आप जिस चीज़ को उसके जिस रूप में इस्तेमाल करोगे,वह उसी रूप में ढल जायेगी....समूचा पारिस्थितिक-तंत्र  इसी बुनियाद पर टिका हुआ है,कि जिसने जो काम करना है उसकी शारीरिक और मानसिक बुनावट उसी अनुसार ढल जाती है...अगर स्त्री भी उसी अनुसार ढली हुई है तो इसमें कौन सी अजूबा बात हो गयी !!    
                     दोस्तों हमने विशेषतया भारत में स्त्रियों को जो स्थान दिया हुआ है उसमें उसके सौन्दर्य के उपयोग के अलावा खुद के इस्तेमाल की कोई और गुंजाईश ही नहीं बनती...वो तो गनीमत है विगत कालों में कुछ महापुरुषों ने अपनी मानवीयता भरी दृष्टि के कारण स्त्रियों पर रहम किया और उनके बहुत सारे बंधक अधिकार उन्हें लौटाए....और कुछ हद तक उनकी खोयी हुई गरिमा उन्हें प्रदान भी की वरना मुग़ल काल और उसके आस-पास के समय से हमने स्त्रियों को दो ही तरह से पोषित किया....या तो शोषित बीवी....या फिर "रंडी"(माफ़ कीजिये मैं यह शब्द नहीं बदलना चाहूँगा.... क्योंकि हमारे बहुत बड़े सौभाग्य से स्त्रियों के लिए यह शब्द आज भी देश के बहुत बड़े हिस्से में स्त्रियों के लिए जैसे बड़े सम्मान से लिया जाता है,ठीक उसी तरह जिस तरह दिल्ली और उसके आस-पास "भैन...चो....और भैन के.....!!)जब शब्दों का उपयोग आप जिस सम्मान के साथ अपने समाज में बड़े ही धड़ल्ले से किया करते हो....तो उन्हीं शब्दों को आपको लतियाने वाले आलेखों में देखकर ऐतराज मत करो....बल्कि शर्म करो शर्म....ताकि उस शर्म से तुम किसी को उसका वाजब सम्मान लौटा सको....!!
                 तो दोस्तों स्त्रियों के लिए हमने जिस तरह की दुनिया का निर्माण किया....सिर्फ अपनी जरूरतों और अपनी वासनापूर्ति के लिए....तो एक आर्थिक रूप से गुलाम वस्तु के क्या हो पाना संभव होता....??और जब वो सौन्दर्य की मानक बनी हुई है तो हम कहते हैं कि उसकी बुद्धि घुटने में....ये क्या बात हुई भला....!!....आपको अगर उसकी बुद्धि पर कोई शक तो उसे जो काम आप खुद कर रहे हो वो सौंप कर देख लो....!!और उसकी भी क्या जरुरत है....आप ज़रा आँखे ही खोल लो ना...आपको खुद ही दिखाई दे जाएगा....को वो कहीं भी आपसे कम उत्तम प्रदर्शन नहीं कर रही,बल्कि कहीं -कहीं तो आपसे भी ज्यादा....कहने का अर्थ सिर्फ इतना ही है कि इस युग में किसी को छोटा मत समझो...ना स्त्री को ना बच्चों को...वो दिन हवा हुए जब स्त्री आपकी बपौती हुआ करती थी...अब वो एक खुला आसमान है...और उसकी अपनी एक परवाज है...और किसी मुगालते में मत रहना तुम....स्त्री की यह उड़ान अनंत भी हो सकती है....यहाँ तक कि तुम्हारी कल्पना के बाहर भी....इसीलिए तुम तो अपना काम करो जी...और इस्त्री को अपना काम करने दो.....उसकी पूरी आज़ादी के साथ......ठीक है ना.....??आगे इस बात का ध्यान रखना....!!!
शुक्रवार, 24 सितंबर 2010

ये हमारी प्यारी धरती,और हम है यहाँ के राजा......!!

मैं भूत बोल रहा हूँ..........!!
ये हमारी प्यारी धरती,और हम है यहाँ के राजा......!!
अरे हम सब मिलकर बजाते हैं हम सब का ही बाजा !! 
अरे हमने धरती के गर्भ को चूस-चूस कर ऐसा है कंगाल किया 
पाताल लोक तक इसकी समूची कोख को कण-कण तक खंगाल दिया 
ये हमारी प्यारी धरती,और हम है यहाँ के राजा.....!!
हमने सारे आसमान का एक-एक बित्ता तक नाप लिया 
जहां तक हम पहुंचे अन्तरिक्ष को अपनी गन्दगी से पाट दिया 
ये हमारी प्यारी धरती,और हम है यहाँ के राजा.....!!
इस धरती का रुधिर हमारे तन में धन बन बन कर बहता है
हमारा बहाया हुआ केमिकल धरती की रग-रग में बहता है
ये हमारी प्यारी धरती,और हम है यहाँ के राजा.....!!
इस धरती हम सेठ-किंग और जाने क्या-क्या कहाते हैं 
हर नदी-तालाब-नाहर-नाले में अपना कचरा बहाते हैं 
ये हमारी प्यारी धरती,और हम है यहाँ के राजा.....!!
जिस अबला पर मन आ जाए उसे हम अपने धन-धान्य से पाट देते हैं 
और जो ना माने हमारी उसका बलात चीरहरण हम कर देते हैं 
ये हमारी प्यारी धरती,और हम है यहाँ के राजा.....!!
छोटे-छोटे बच्चे भी हमारी वहशी नज़रों से बच तक नहीं पाते हैं 
जिन्होंने जन्म लिया है अभी ही,वो भी भेंट हमारी चढ़ जाते हैं 
ये हमारी प्यारी धरती,और हम है यहाँ के राजा.....!!
कर ले यहाँ पर हम कुछ भी मगर कभी पापी नहीं कहलाते हैं 
और सभी पापों में भर कर गंगा में ही नहा आते हैं 
ये हमारी प्यारी धरती,और हम है यहाँ के राजा.....!!
आत्मा हमारी ऐसी है जो सबके धन की ही प्यासी है 
जो भी दे दे धन इन्हें ये बस उन चरणों की दासी है 
ये हमारी प्यारी धरती,और हम है यहाँ के राजा.....!!
भूखे-नंगे-गरीब-अनाथ कोई भी हमें दिखाई ही नहीं देते है 
जिसकी भी जर-ज़रा-जमीं-जोरू हो,हम तिजोरी में भर लेते हैं 
ये हमारी प्यारी धरती,और हम है यहाँ के राजा.....!!
कितना भी खा जाए मगर हम डकार कभी नहीं लेते हैं 
"फ़ोर्ब्स"पत्रिका में खुद को पाकर हम खुश-खुश हो लेते हैं 
ये हमारी प्यारी धरती,और हम है यहाँ के राजा.....!!
देश हमारी ठोकर पर है हर मंत्री हमारा नौकर,सब कहते हैं 
हम इतने गिरे हुए हैं भाई,किसी की भी जूती चाट लेते हैं 
ये हमारी प्यारी धरती,और हम है यहाँ के राजा.....!!
अरे हम सब मिलकर बजाते हैं हम सब का ही बाजा !! 

मंगलवार, 21 सितंबर 2010

रो मत मेरी बच्ची !!

मैं भूत बोल रहा हूँ..........!!
                                                        रो मत मेरी बच्ची !!
                  मेरी प्यारी-प्यारी बच्ची !!तुझे बहुत-बहुत-बहुत प्यार और तेरी माँ तथा तेरे भाई बहनों को भी मेरा असीम प्रेम !!
                  मेरी बिटिया मैं तेरा पिता लूकस टेटे धरती से बहुत दूर की दुनिया से बोल रहा हूँ....आज ही किसी अखबार में तेरे पत्र के बारे में मैंने जाना तो मेरी आँखे,मेरा दिल,मेरी आत्मा एकदम से भर्रा गयी....और बड़े गीले मन से और कराहती आत्मा से मैं तुझे कुछ कहना चाह रहा हूँ,मुझे उम्मीद है कि तू मेरी बात को ना सिर्फ समझेगी बल्कि जो मैं कहूँ उसे मानेगी भी....मानेगी ना तू ??
                  मेरी बिटिया,तेरी तरह मुझे भी यह नहीं पता कि  मेरे नक्सली भाईयों ने मुझे ही क्यूँ मारा ?जबकि मैं तो उन्हें अब तक जल-जंगल-जमीन और उस पर रहने वाले आदिवासियों के व्यापक हित या हक़ में लड़ने वाला कुछ उग्रपंथी ही मानता था,जो सरकारी कार्यशैली और उसमें व्याप्त व्यापक भ्रष्टाचार के कारण गरम दल के रूप में परिणत हो गए एक गुट के रूप में देखा करता था!!मगर मैं भी तो अपने और अपने परिवार का पेट पालने के लिए संयोग-वशात या दुर्भाग्यवश सरकार के हक़ में रहने वाला एक अदना-सा कर्मचारी मात्र था,जिसका कार्य महज अपने आकाओं की हुक्मउदूली करना भर था,इस प्रकार सरकार और जनता दोनों ही की सेवा के लिए नियुक्त ऐसा कर्मचारी,जिसे हर समय तलवार की धार पर खडा रहना पड़ता था,हमारी किसी भी प्रकार की चूक हमें जनता या नेता किसी की भी गालियों का शिकार बना डालती थी,यहाँ तक कि हम किसी से मार खाकर भी उफ़ भी नहीं कर सकने वाले एक विवश कर्मचारी मात्र थे और ऐसे विवश आदमी को मारना यह,मेरी बिटिया,अब तक मेरी समझ से बाहर है!और तुम सब की याद में यहाँ मेरी आत्मा तड़फा करती है !!
                   मेरी प्यारी बिटिया,जंगल-जमीन-जल और आदिवासियों की बातें करने वाले ये लोग क्या सच में अब नक्सली ही हैं,इस बात पर अब मुझे शक होने लगा है,क्यूंकि सरकारी नीतियों और पूँजीवाद का विरोध करते हुए ये लोग उन्हीं की तरह धन-संपत्ति का संग्रह करते और जगह-जगह जमीन-मकान लेते ये लोग,बैंकों तथा डाक-खाने और शेयरों में पैसे का इन्वेस्ट करते ये लोग,तरह-तरह की अय्याशियाँ करते,रखैल रखते और संगठन की नेत्रियों को जबरन बलत्कृत करते ये लोग, हड़िया-दारू और अन्य प्रकार के नशों में धुत्त रहने वाले ये लोग,कहीं से लगता ही नहीं कि यही लोग आन्दोलनकारी हैं कि इन्हीं पूंजीपतियों और नेताओं की एक भद्दी कार्बन कॉपी !!और ये लोग जो आन्दोलन के नाम पर सिवाय हत्या,आगजनी,बंदी,अपहरण आदि के कुछ जानते तक नहीं !!निर्दोष नागरिकों का खून,सरकारी और निजी संपत्ति को नुकसान बस यही इनकी फितरत है जैसे,कुछ बनाना जो नहीं जानते,कितनी आसानी से सब कुछ को नष्ट कर देते हैं,एक मिनट भी नहीं लगता उन्हें यह सब करने....यह सब मात्र व्यवस्था के विरोध के नाम पर....!!
                    मेरी प्यारी बिटिया, तू बार-बार अखबार के माध्यम से यह मत जताया कर कि उन्होंने मुझ आदिवासी को ही क्यूँ मारा !!अरे मेरी पगली बिटिया उन्होंने किसी को भी मारा होता तो उस घर में आज हमारे घर की तरह ही अन्धेरा होता है ना !!तो यह अच्छा ही हुआ ना कि मैं उनके काम आ गया,उनके घरों में आज अँधेरा होने से बच गया !!मेरी बिटिया,अगर हमारी वजह से किसी और की जान बच जाए तो हमें मरने से डरना नहीं चाहिए !!और मेरी बच्ची मैं जानता हूँ कि तू कितनी बहादूर है और इस वक्त भी अपनी माँ और अपने भाई-बहनों को ढांडस देने की ही चेष्टा कर रही होगी और मैं यह भी जानता हूँ कि समय रहते तू सब कुछ संभाल लेगी! अब तू इक्कीस बरस की हो गयी है ना! तू शिक्षक बनना चाहती है ना ?तो मैं आ चुका हूँ यहाँ भगवान् के पास तेरी अर्जी लगाने !उन्होंने तेरी अर्जी मंजूर भी कर ली है मगर वो मुझसे कह रहे हैं कि मैं तुझसे कहूँ कि तू शिक्षक बन कर बच्चों में देश के प्रति प्रेम की अलख जगाए और उनमें देश के लिए मर जाने का जज्बा पैदा करे !! क्योंकि आज इस देश में इसके लिए मरने वालों की संख्या बेहद कम हो गयी है,बल्कि इसे लूटने वाले,इसके गौरव,इसकी अस्मत का हरण करने वाले लोगों की बहुतायत हो गयी है!
                   इसलिए ऐ बिटिया ,भगवान् हमसे कह रहा है कि आगे तू भी अगर बच्चों की माँ बने तो,तो अपने बच्चों के भीतर इस करप्ट व्यवस्था से लड़ने का और अच्छे काम के लिए मर-मिटने का संकल्प भर दे !मेरी बिटिया हमारे देश की सारी समस्याओं की जड़ इसका करप्शन और इससे लड़ने के संकल्प की कमी का है !!    
जो पैसे वाले हैं,वो शायद पैसों के अलावा कुछ नहीं सोच पाते,मगर सेमिनारों में अच्छे-अच्छे व्याख्यान देते फिरते हैं और जिनके सर पर देश का ताज है,वो तो जैसे करप्टओ के बाप के बाप के भी बाप हैं और उन्हें इस बात से भी अंतर नहीं पड़ता कि देश कहाँ जा रहा है या कि उनके कर्मों से रसातल के किस दलदल में औंधा घुसा चला जा रहा है और ये लोग बड़े-बड़े मंचों से विकास और गौरव आदि की बात किया करते हैं....इस सारे सिस्टम से,ओ मेरी बिटिया, अपने बच्चों में अब लड़ने की इच्छा और और इससे हर हाल में जीतने का संकल्प भरना ही होगा !!
                    मेरी प्यारी बिटिया !!सच तो यह भी है कि पहले गांधी ,भगत सिंह और आज़ाद जैसे वीरों की माएं पैदा होती हैं,तब तो उनसे भगत सिंह पैदा होते हैं और समय की मांग भी यही है कि तेरे जैसी बिटियाएँ अब देश के ऐसे रखवालों को पैदा करें जो इन सरीखे तमाम महिषासुरों का मान-मर्दन कर सकें,उनका खात्मा कर सकें !और राज्य की बागडोर अपने नेक हाथों में लेकर इसकी चहुँ ओर फैली विपन्नता को दूर करें....बिटिया मेरी,मेरे जैसे एक आदमी का क्या सपना होता है ?यही ना कि हम सब अपनी मिनिमम जरूरतों को पूरा करके निम्नतम हद तक भी खुशहाल हो सकें,इसी प्रकार हमारे जैसे तमाम अन्य आम आदमी भी खुशहाल रहे !!और अपनी इस कामना के लिए हम स्टेजों पर हुंकारे नहीं भरते, मगर अरबों- खरबों पतियों वाली धन्ना-सेठों की यह भूमि अपने करोड़ों नागरिकों का पेट भरने तक के लिए चोरों की मोहताज हो जाए तो भगवान् से भी मोहभंग हो जाए, मेरी बिटिया, सबका !! 
                       इसलिए ऐ मेरी प्यारी और बहादूर बिटिया !मत रो रे ! मत रो !!तू रोएगी तो मैं भी रो पडूंगा !क्या तू यही चाहती है कि मैं यहाँ आकर भी रोता ही रहूँ ?अगर मैंने तुझे अपना सच्चा प्यार दिया है तो जा दुनिया के सब बच्चों में वह प्यार बाँट !मेरे इस अवांछित तरीके से हुए बलिदान के बावजूद तू समाज को सच्चा और नैतिक बनाने में अपना योगदान दे !अगर तू ऐसा कर पायी तभी मैं खुश होउंगा !तभी मेरी आत्मा को मुक्ति भी मिलेगी !मगर तब तक, ओ मेरी बिटिया, मैं तड़पता ही रहूंगा !मेरी आत्मा कसमसाती ही रहेगी !!मेरी बच्ची ,अब इस महान कार्य को मैं तुझे सौंपता हूँ !तू मेरे सपने को पूरा करे,इतनी आशा तो मैं तुझसे कर सकता हूँ ना,तेरा बाप हूँ मैं !तुझे आशीर्वाद देता हूँ कि तेरे जैसी तमाम बच्चे-बच्चियों में मेरे देश का भविष्य सुरक्षित रहे !!इसी कामना के साथ विदा मेरी बेटी !!
                                                                                                                                                                                              तेरा अभागा बाप     
                                                                                                                                                                                                    लूकस टेटे 
 
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