भारत का संविधान

"हम भारतवासी,गंभीरतापूर्वक यह निश्चय करके कि भारत को सार्वभौमिक,लोकतांत्रिक गणतंत्र बनाना है तथा अपने नागरिकों के लिए------- न्याय--सामाजिक,आर्थिक,तथा राजनैतिक ; स्वतन्त्रता--विचार,अभिव्यक्ति,विश्वास,आस्था,पूजा पद्दति अपनाने की; समानता--स्थिति व अवसर की व इसको सबमें बढ़ाने की; बंधुत्व--व्यक्ति की गरिमा एवं देश की एकता का आश्वासन देने वाला ; सुरक्षित करने के उद्देश्य से आज २६ नवम्बर १९४९ को संविधान-सभा में,इस संविधान को अंगीकृत ,पारित तथा स्वयम को प्रदत्त करते हैं ।"

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गुरुवार, 29 जुलाई 2010

to phir kyaa aam aadmi hi desh drohi hai.....??

                          विकिलिक्स द्वारा अमेरिकी कारर्वाईयों के भंडाफ़ोड किये जाने और अमेरिकी सरकार द्वारा इसे संघीय व्यवस्था का उल्लंघन बताये जाने पर एक प्रश्न अपने-आप ही उठ खडा होता है कि क्या सिर्फ़ सरकारें ही व्यवस्था को बनाये रखती हैं,बाकि सब तंत्र उसका उल्लघंन ही करते हैं??
                             जबसे हमने लिखित इतिहास को पढा और उसके माध्यम से सब कालों में "सरकारों"का जो आचरण जाना और समझा है उससे तो ठीक उल्टा ही प्रमाणित होता है,अब तक के लिखित इतिहास के अनुसार हमने यही देखा है कि तरह-तरह की सरकारों ने किस-किस प्रकार के "सुनियोजित-कुकर्म" किये हैं और जब विभिन्न व्यक्तियों या किन्ही सामाजिक संगठनों ने उनके विरुद्द किसी भी प्रकार की आवाज़ उठायी या आंदोलन भी किया तो किस प्रकार से इस "सो-कोल्ड" सरकारों ने उनका गला घोंटा है या कि अपनी सेना और अपने अधीन तंत्र के द्वारा किस प्रकार की हिंसा के द्वारा कुचला है और मज़ा तो यह भी है कि यह सब आज इस "सो-कोल्ड’' या कहूं कि इस तथाकथित लोकतांत्रिक कहे जाने वाले "सभ्य" युग में भी हो रहा है,अंतर सिर्फ़ इतना है कि ऐसा आचरण करने वाली लोकतांत्रिक कही जाने वाली सरकारों का ढंग और कम्युनिस्ट सरकारों का ढंग एक-दूसरे थोडा अलग है.
             इससे कभी-कभी ऐसा भी प्रतीत होता है कि लोकतांत्रिक देशों में लोक-तंत्र का अर्थ महज इतना ही होता है कि नागरिक अपनी मनमानी करें और अगर सरकार को यह नागवार गुजरे तो वह अपनी मनमानी करे...फर्क सिर्फ़ इतना है कि सरकार की मनमानियां एक भयानक अत्याचार से भी भीषण हो सकती हैं,बाद में भले वह हटा दी जाये और बाद वाली सरकार उससे भी कमीनी साबित हो.....
             अब तक यही समझा जाता रहा है कि लोगों द्वारा चुनी गयी सरकारों में लोगों के हित ज्यादा सुरक्षित होते हैं,हालांकि ज्यादातर इतिहास इस बात की न सिर्फ़ तस्दीक नहीं करता बल्कि इसे नकारता भी है.सरकार के लोग,उपर से नीचे तक चाहे वो कोई भी हों,खुद के कर्म को उचित और आम नागरिक के कर्मों को ज्यादातर गलत बताते हैं....यह गलत होना गैर-कानूनी होने से लेकर देशद्रोह होना तक भी हो सकता है,यहां तक कि इसी तर्ज़ पर आज तक तमाम लोकतांत्रिक देशों के कानून उनके खुद के ही संविधान की धज्जियां उडाते दिखायी देते हैं.....और मज़ा यह है कि जिन कानूनों के बिना पर आम लोगों को कडी-से-कडी सज़ा तक दे दी जाती है....उन्हीं कानूनों की चिथडे उनके रखवाले हर वक्त करते हुए दिखायी देते हैं, मगर चुंकि हर आदमी अपनी ही समस्याओं से भरा उन्हें निपटाने में पगलाया रहता है.....उसे गरज़ ही नहीं होती इस सबको देखने की [जब तक कि वो खुद नहीं इस सब झमेले में फ़ंस जाये ]....और सिर्फ़ और सिर्फ़ इसीलिए यह सब चलता रहता है.....लोग आंख मूंद कर अपना-अपना जीवन व्यतीत करते रहते हैं....और सरकारी दुनिया में बिल्ली के भाग से छींका टूटता रहता है.....उस टूटे हुए छींके से ये सरकारी लोग [बिल्लियां]मलायी मार-मार कर खाते रहते हैं....यहां तक कि कोई आम नागरिक भी अगर इस मलायी को चाटना चाहे तो उसे निस्संदेह किसी ना किसी सरकारी हाथ की मदद का ही सहारा लेना होता है....मज़ा यह कि कल को अगर यह सब उजागर भी होता है तो इसका ठीकरा हर हालत में उस गैर-सरकारी व्यक्ति या समूह के माथे पर ही फ़ूटना होता है....अगर सरकारी हाथ कुछ ज्यादा ही काला हो गया हो तो तो सरकार खुद आगे बढ्कर उसे बचाया करती है...क्युंकि सरकार में भी तो ना जाने कितने ही पक्ष होते हैं,जिन्होने इस मलायी को चाटने में अपना भी मूंह मारा होता है......
           इसका सीधा मतलब आप यह भी लगा सकते हो कि सरकार का दामन हमेशा साफ़ ही होता है...हम जैसे हरामी-कमीने-बेईमान और भ्रष्ट लोग ही सरकार का मूंह काला किये जाते हैं[सरकार के साथ मूंह काला नहीं करते....!!!]और इसीलिये सरकार का विरोध करने वाले.....सरकार अलग सोचने वाले...सरकार से बिल्कुल ही भिन्न नीति रखने वाले....और सरकार के गलत कार्यों का विरोध करने वाले ना सिर्फ़ उसकी [गोपनीय]संघीय व्यवस्था का उल्लंघन करने वाले समझे जाते हैं,अपितु देशद्रोही तक भी साबित किये जा सकते हैं......प्रत्येक सरकारी व्यक्ति,चाहे वह कितना ही अदना-सा....किसी भी सामान्य समझदारी का गैर-जानकार...या कि बिल्कुल ही टुच्ची सी समझ रखने वाला भी क्यों ना हो.....उसके अधिकार.. उसकी ताकत....उसका अहंकार....उसका रुतबा...उसकी कडकता....उसका रूआब....और सबसे बढ्कर ना जाने किन अनजान जगहों से आने वाला अथाह धन उसे हमसे इतर साबित करते हैं....मगर वह देश-द्रोही कभी नहीं कहला सकता....अगर कभी कहला भी गया तो यह माना जाता है कि जरूर ही उसके खिलाफ़ कोई गहरी राजनीतिक साजिश रची गयी है...और इसके पीछे अवश्य ही विपक्षी राजनीतिक दल है....और इस प्रकार उस गद्दार व्यक्ति या समूह इस तरह के तमाम देश-द्रोही कार्यों के प्रति आंख मूंद ली जाती है....और ऐसा क्यों ना हो.....आखिर उस हमाम में सभी शरीक जो हैं.....
           सरकार के अनुदान से चलने वाला बहुतेरा मीडिया भी इस हमाम का ही वासी ही होता है....इस मलायी का चटोरा.....सो एक तरफ़ मीडिया का एक हिस्सा उस गलत व्यक्ति/समूह या सरकार के इन कारनामों को उजागर कर रहा होता है....वहीं....यह मीडिया-विशेष अपनी पूरी ताकत और जद्दोजहद के संग उन गलत कार्यों में बराबर का भागीदार बन कर सरकार का वकील बनकर उन तमाम गलत पक्षों के पक्ष में तमाम निराधार और घटिया दलीलें पेश करता है....जिन्हें हम बराबर हरामीपने के कुतर्क साबित कर सकते हैं....और समय-समय पर ऐसा करते भी हैं......मगर ऐसा कब तक चले.....और क्योंकर चले.....??सरकारों का कार्य क्या सिर्फ़ हरामीपना करना है....??सरकारें क्या किसी और लोक से उतरी हैं और किसी के भी प्रति उत्तर्दायी नहीं हैं.....??और आम आदमी का कोई और काम नहीं है क्या,जो वह सरकारों और उससे जुडे तमाम लोगों पर नज़र रखे....और अपना महत्वपूर्ण काम-धाम छोड देने की कीमत चुका कर "ऐसे लोगों” की पोल खोजता चले.....??सरकारें एयरकंडीशंड रूमों में बैठ कर तमाम उल्टे-सीधे निर्णय ले ले....फिर आम आदमी या संगठन  सडक पर आंदोलन करता चले.....??जब सब राय आम आदमी को देनी है....और सरकार को उसके हर किये हुए कर्म का अच्छा-बूरा बतलाना है.....तो फिर ऐसे निकम्मे लोगों को सरकार बनाने का न्योता ही क्यों देना है...??
                  क्या सरकार होने का मतलब यही होता है.....कि आप मनमानी करते रहो.....मनमाने निर्णय लेकर अपने ही नागरिकों की जान सांसत में डालते रहो....उनका जीवन जीना हराम करते रहो.....??अपनी ऊंची अट्टालिकायें खडी करते रहो.....सब तरह का नाजायज काम उन्हीं नियमों के छेदों की आड में करते रहो...जिसकी बिना पर तुम किसी दूसरे को जेल में झोंक देते हो....???और मीडिया-कोर्ट और सभी तरह के संगठन सरकार के पीछे भोंपू और लाठी लेकर दौडते फ़िरें....???समझ नहीं आता कि आखिर सरकार है तो आखिर है क्या....??सरकारें हम बनाते हैं हममे से कुछ लोगों को अपना प्रतिनिधि बनाकर हमारे बीच सब किस्म की व्यवस्था कायम करने के लिये....वो भी अपने खर्च से हुए चुनाव से और अपने ही खर्च पर दिये जाने वाले उन हज़ारों नेताओं और तमाम सरकारी लोगों को वेतन देकर.....और सब सरकार बनाते ही सिर्फ़ "अपनी व्यवस्था " कायम करने लग जायें....तो उन्हें वापस कैसे बुलाया जाये.....और उनके लिये किस तरह की सज़ा तय हो...अब सिर्फ़ इसी एक बात पर विचार करना है हमारे समाज रूपी तंत्र को....अगर सरकारें अप्रासंगिक हो गयीं हैं...या हरामी हो गयी हैं....तो उसी की वजह से न सिर्फ़ यह कु-व्यवस्था फ़ैलती है....बल्कि नस्लवाद-आतंकवाद नाम नासूर भी यहीं से पनपता है....पल्लवित होता है....और सरकार के हरामीपने की तरह सब जगह फ़ैल जाय करता है.....जिस तरह अपराधियों का इलाज लाठी-डंडे-कोडे तथा अन्य तरह की सज़ायें तय हैं.....उसी तरह यही सजायें क्या इन लोगों के लिये नहीं तय की जा सकती....अगर माननीय न्यायालय कानूनों में छेद की वजह से उचित फ़ैसला कर पाने में अक्षम है....तो फिर जनता को ही क्यों नहीं इसका ईलाज करना चाहिये....!! मुझे उम्मीद है कि यह अनपढ-गरीब और सतायी हुई जनता एकदम ठीक फैसला लेगी.....हो सकता है कि सभ्य लोगों को उसका फैसला "जंगल का कानून सरीखा लगे..."मगर अगर सब तरफ़ जंगली लोग ही हों...और आम जनता के अधिकारों का बर्बरतापूर्वक हनन कर रहे हों तो आप किस तरह उनका इलाज सो कोल्ड सभ्य कानूनों द्वारा कर सकते हैं....!!
                      पानी सर से अत्यधिक उपर जा चुका है....जनता को अब फैसला लेना ही होगा....कि उसे क्या चाहिये.....एक अमानवीय और किसी भी प्रकार की उचित सोच से रहित सरकार......और उसकी नाक तले ऊंघ रहा हरामजादा प्रशासन......कि इन सबसे मुक्ति.....अगर दूसरे रास्ते की मन में है....तब तो आगे बिल्कुल रद्दोबदल कर डालिये......अपने बीच से एकदम नये लोग निकालिये....और उन्हें चेतावनी देकर ही संसद और विधान सभाओं में भेजिये.....और अभी......अभी के लिये यही कहुंगा कि इस वर्तमान को अभी-की-अभी उखाड फेंकिये.....और यह आप सब....हम सब....यानि कि आम जनता ही कर सकती है.....क्योंकि हरामियों को सज़ा देने में हमारा कानून.....और हमारा संविधान भी पस्त हो चुका है.....!!!!


मैं भूत बोल रहा हूँ..........!!


उफ़ ये मेरा दिल क्यूँ रो रहा है
क्या कहीं कोई गुम हो गया है ??
ये क्या कह डाला है हाय तुमने 
हर लम्हा ही तंग हो गया है !!
खुद का दर्द भी नहीं समझता 
दिल कितना सुन्न हो गया है !! 
अब इस राख को मत संभालो 
अब सब कुछ ख़त्म हो गया है !!
ये सच्चाई की बू कैसी है यहाँ 
क्या कोई फिर बहक गया है ??
कब्र में रू से पूछता है "गाफिल
क्या तेरा जिस्म ख़त्म हो गया है ?
गुरुवार, 22 जुलाई 2010

हिंदी के प्रति आप क्या बनेंगे,नमक-हलाल,या हरामखोर.....???

मैं भूत बोल रहा हूँ..........!!

 हिंदी के प्रति आप क्या बनेंगे,नमक-हलाल,या हरामखोर.....?

   दोस्तों , बहुत ही गुस्से के साथ इस विषय पर मैं अपनी भावनाएं आप सबके साथ बांटना चाहता हूँ ,वो यह कि हिंदी के साथ आज जो किया जा रहा है ,जाने और अनजाने हम सब ,जो इसके सिपहसलार बने हुए हैं,इसके साथ जो किये जा रहे हैं....वह अत्यंत दुखद है...मैं सीधे-सीधे आज आप सबसे यह पूछता हूँ कि मैं आपकी माँ...आपके बाप....आपके भाई-बहन या किसी भी दोस्त- रिश्तेदार या ऐसा कोई भी जिसे आप पहचानते हैं....उसका चेहरा अगर बदल दूं तो क्या आप उसे पहचान लेंगे....???एक दिन के लिए भी यदि आपके किसी भी पहचान वाले चेहरे को बदल दें तो वो तो कम ,अपितु आप उससे अभिक  " " परेशान "हो जायेंगे.....!!
                 थोड़ी-बहुत बदलाहट की और बात होती है....समूचा ढांचा ही " रद्दोबदल " कर देना कहीं से भी तर्कसंगत नहीं कहा जा सकता.....सिर्फ एक बार कल्पना करें ना आप....कि जब आप किसी भी वास्तु को एकदम से बिलकुल ही नए फ्रेम में नयी तरह से अकस्मात देखते हैं,तो पहले-पहल आपके मन में उसके प्रति क्या प्रतिक्रिया होती है...!!...तो थोडा-बहुत तो क्या बल्कि उससे बहुत अधिक बदलाहट को हिंदी में स्वीकार ही कर लिया गया है बल्कि उसे अधिकाधिक प्रयोग भी किया जाने लगा है...यानी कि उसे हिंदी में बिलकुल समा ही लिया गया है....किन्तु अब जो स्थिति आन पड़ी है....जिसमें कि हिंदी को बड़े बेशर्म ढंग से ना सिर्फ हिन्लिश में लिखा-बोला-प्रेषित किया जा रहा है बल्कि रोमन लिपि में लिखा भी जा रहा है कुछ जगहों पर...और तर्क है कि जो युवा बोलते-लिखते-चाहते हैं...!!
             ....तो एक बार मैं सीधा-सीधा यह पूछना या कहना चाहता हूँ कि युवा तो और भी " बहुत कुछ " चाहते हैं....!!तो क्या आप अपनी प्रसार-संख्या बढाने के " वो सब " भी "उन्हें" परोसेंगे....??तो फिर दूसरा प्रश्न मेरा यह पैदा हो जाएगा....तो फिर उसमें आपके बहन-बेटी-भाई-बीवी-बच्चे सभी तो होंगे.....तो क्या आप उन्हें भी...."वो सब" उपलब्ध करवाएंगे ....तर्क तो यह कहता है दुनिया के सब कौवे काले हैं....मैं काला हूँ....इसलिए मैं भी कौवा हूँ....!!....अबे ,आप इस तरह का तर्क लागू करने वाले "तमाम" लोगों अपनी कुचेष्टा को आप किसी और पर क्यूँ डाल देते हो....??
              मैं बहुत गुस्से में आप सबों से यह पूछना चाहता हूँ...कि रातों-रात आपकी माँ को बदल दिया जाए तो आपको कैसा लगेगा....??यदि आप यह कहना चाहते हैं कि बिलकुल अच्छा नहीं लगेगा....या फिर आप मुझे गाली देना चाह रहे हों....या कि आप मुझे   नफरत की दृष्टि से देखने लगें हो...इनमें से जो भी बात आप पर लागू हो,उससे यह तो प्रकट ही है कि ऐसा होना आपको नागवार  लगेगा बल्कि मेरे द्वारा यह कहा जाना भी आपको उतना ही नागवार गुजर रहा है....तो फिर आप ही बताईये  ना कि आखिर किस प्रकार आप अपनी भाषा को तिलांजलि देने में लगे हुए हैं ??
               आखिर हिंदी रानी ने ऐसा क्या पाप किया है कि जिसके कारण आप इसकी हमेशा ऐसी-की-तैसी करने में जुटे  हुए रहते है...???....हिंदी ने आपका कौन-सा काम बिगाड़ा है या फिर उसने आपका ऐसा कौन-सा कार्य नहीं बनाया है कि आपको उसे बोले या लिखे जाने पर लाज महसूस होती है....क्या आपको अपनी बूढी माँ को देखकर शर्म आती है...??यदि हाँ ,तो बेशक छोड़ दीजिये माँ को भी और हिंदी को अभी की अभी....मगर यदि नहीं...तो हिंदी की हिंदी मत ना कीजिये प्लीज़....भले ही इंग्लिश आपके लिए ज्ञान-विज्ञान वाली भाषा है... मगर हिंदी का क्या कोई मूल्य नहीं आपके जीवन में...??
                 क्या हिंदी में "...ज्ञान..."नहीं है...??क्या हिंदी में आगे बढ़ने की ताब नहीं ??क्या हिंदी वाले विद्वान् नहीं होते....??मेरी समझ से तो हिंदी का लोहा और संस्कृत का डंका तो अब आपकी नज़र में सुयोग्य और जबरदस्त प्रतिभावान- संपन्न विदेशीगण भी मान रहे हैं...आखिर यही हिंदी-भारत कभी विश्व का सिरमौर का रह चुका है....विद्या-रूपी धन में भी....और भौतिक धन में भी...क्या उस समय इंग्लिश थी भारत में....या कि इंगलिश ने भारत में आकर इसका भट्टा बिठाया है...इसकी-सभ्यता का-संस्कृति का..परम्परा का और अंततः समूचे संस्कार का...भी...!!
              आज यह भारत अगर दीन-हीन और श्री हीन होकर बैठा है तो उसका कारण  यह भी है कि अपनी भाषा...अपने श्रम का आत्मबल खो जाने के कारण यह देश अपना स्वावलंबन भी खो चुका,....सवा अरब लोगों की आबादी में कुछेक करोड़ लोगों की सफलता का ठीकरा पीटना और भारत के महाशक्ति होने का मुगालता पालना...यह गलतफहमी पालकर इस देश के बहुत सारे लोग बहुत गंभीर गलती कर रहे हैं...क्यूँ कि देश का अधिकांशतः भाग बेहद-बेहद-बेहद गरीब है...अगर अंग्रेजी का वर्चस्व रोजगार के साधनों पर न हुआ होता...और उत्पादन-व्यवस्था इतनी केन्द्रीयकृत ना बनायी गयी होती तो....जैसे उत्पादन और विक्रय-व्यवस्था भारत की अपनी हुआ करती थी....शायद ही कोई गरीब हुआ होता...शायद ही स्थिति इतनी वीभत्स हुई होती....मार्मिक हुई होती...!!
               हिंदी के साथ वही हुआ , जो इस देश अर्थव्यवस्था के साथ हुआ....आज देश अपनी तरक्की पर चाहे जितना इतरा ले...मगर यहाँ के अमीर-से-अमीर व्यक्ति में भाषा का स्वाभिमान नहीं है....और एक गरीब व्यक्ति का स्वाभिमान तो खैर हमने बना ही नहीं रहने दिया....और ना ही मुझे यह आशा भी है कि हम उसे कभी पनपने भी देंगे.....!!ऐसे हालात में कम-से-कम जो भाषा भाई-चारे-प्रेम-स्नेह की भाषा बन सकती है....उसे हमने कहीं तो दोयम ही बना दिया है...कहीं झगडे का घर....तो कहीं जानबूझकर नज़रंदाज़ किया हुआ है...वो भी इतना कि मुझे कहते हुए भी शर्म आती है...कि इस देश का तमाम अमीर-वर्ग ,जो दिन-रात हिंदी की खाता है....ओढ़ता है...पहनता है....और उसी से अपनी तिजोरी भी भरता है....मगर सार्वजनिक जीवन में हिंदी को ऐसा लतियाता है....कि जैसे खा-पीकर-अघाकर किसी "रंडी" को लतियाया जाता हो.....मतलब पेट भरते ही....हिंदी की.....!!!ऐसे बेशर्म वर्ग को क्या कहें ,जो हिंदी का कमाकर अंग्रेजी में टपर-टपर करता है.....जिसे जिसे देश का आम जन कहता है बिटिर-बिटिर....!!
                क्या आप कभी अपनी दूकान से कमाकर शाम को दूकान में आग लगा देते हैं.....??क्या आप जवान होकर अपने बूढ़े माँ-बाप को धक्का देकर घर से बाहर कर देते हैं....तो हुजुर....माई.....बाप....सरकारे-आला....हाकिम....हिंदी ने भी आपका क्या बिगाड़ा है,....वह तो आपकी मान की तरह आपके जन्म से लेकर आपकी मृत्यु तक आपके हर कार्य को साधती ही है....और आप चाहे तो उसे और भी लतियायें,अपने माँ-बाप की तरह... तब भी वह आखिर तक आपके काम आएगी ही...यही हिंदी का अपनत्व है आपके प्रति या कि ममत्व ,चाहे जो कहिये ,अब आपकी मर्ज़ी है कि उसके प्रति आप नमक-हलाल बनते हैं या "हरामखोर......"??
http://baatpuraanihai.blogspot.com/
सोमवार, 19 जुलाई 2010

हाँ..........स्थिति वाकई भयावह है....!!

मैं भूत बोल रहा हूँ..........!!


                 हाँ........स्थिति वाकई भयावह है....!!!
                 आज ही रात को बंगाल के एक रेलवे प्लेटफोर्म पर एक भयावह हादसा घटित हुआ है...जिसने भी इस हादसे के बारे में सुना-पढ़ा या देखा है....वो मर्माहत है....सन्न है...किंकर्तव्यविमूढ़ है....समझ नहीं पा रहा कि इस हादसे से अकाल काल-कलवित हो गए लोगों के परिजनों के लिए आखिर क्या करे....उन्हें किस तरह ढाढस बंधाये....और घायल पड़े लोगों को किस तरह राहत दे....चारों ओर कोहराम-सा मचा हुआ है....लोग तड़प रहे हैं....चीख रहे हैं....चिल्ला रहे हैं....भयातुर हैं...किसी को एकबारगी समझ नहीं आ रहा कि इस स्थिति का सामना कैसे करें....चारों और आपाधापी मची हुई है....लोगों के बीच मौत के मातम तांडव कर रहा है...और प्रेस तथा तमाम चैनलों के प्रतिनिधि इस "प्रोग्राम"को कवर करने के लिए घायल लोगों से भी ज्यादा चीख-पुकार मचा रहे हैं...लोगों को राहत पहुंचाने से ज्यादा उनके "बाईट" लेने की होड़ मची हुई है सबके बीच....और इन तमाम "बायिटों" के साथ देश भर के चैनलों में एक-सा माजरा चल रहा है....सब-के-सब किसी नयी सी चीज़ को सबसे पहले अपने द्वारा "कवर" की गयी "स्टोरी" बता रहे हैं....और तरह-तरह की बातें करते हुए....उन्हीं-उन्हीं दृश्यों का वही-वही विश्लेषण करते हुए दर्शकों का समय व्यतीत करवा रहे हैं...!!
                     .इस अचानक घटी "स्टोरी" में भय-रोमांच-मौत-संवेदना और हृदय-विदारकता सभी कुछ है....जिससे खबर बनती है...जिससे चैनलों की डिमांड बढती है...जिससे चैनलों की कमाई.....मैं सोचता हूँ....कि स्थिति वाकई भयावह ही है....एक जिम्मेवार प्रेस का काम आखिर क्या है....??जल्दी-से-जल्दी अपने प्रिय दर्शकों तक "खबर" ओ सॉरी..."स्टोरी" पहुँचाना....और चूँकि कोई भी चीज़ "हराम" की तो होती नहीं.....सो खबर के साथ अथाह-अनगिनत विज्ञापन "पेल" देना....तो दर्शकों अभी-अभी (सिर्फ) हमने आपको यह बताया कि किस प्रकार यहाँ इस हादसे में पचास लोग मारे गए हैं....और सौ से ज्यादा लोग घायल हैं....जिनमें बीस की स्थिति बहुत-ही नाजुक है पता नहीं वे बच भी पायेंगे या नहीं...हम आपको उनके रिश्तेदारों के पास लिए चलते हैं..लेकिन तब तक एक छोटा-सा ब्रेक ( झेलिये आप सब !!) टी.वी.की स्क्रीन पर बांये साइड एक विज्ञापन की तस्वीर आ रही है....किसी शैक्षणिक-संस्थान की जिसमे यह बताया जा रहा है कि उनके संस्थान में फलां-फलां कोर्से की कीमत घटा दी गयी है....और दांयी तरफ एक अंडाकार विज्ञापन दर्शकों को पहले से काफी कम कीमत में फ़्लैट-जमीन-डुप्लेक्स उपलब्ध करा रहा है....और दर्शकों को जल्दी-से-जल्दी इस ऑफर को लूट लेने को कह रहा है.....और सबसे नीचे स्क्रीन पर एक पट्टी विज्ञापन की और चल रही है....जिसमें रेल-दुर्घटना के ब्योरों के बाद चैनल का विज्ञापन विज्ञापनदाताओं के लिए है....जिसमे चैनल यह बता रहा है कि इस चैनल में विज्ञापन देने के लिए हमारे इस-इस प्रतिनिधि से संपर्क करे....मैं रेल-दुर्घटना से विज्ञापन का कोई तारतम्य समझने की चेष्टा कर रहा हूँ....लेकिन मुझ मुरख के पल्ले कुछ पड़ ही नहीं रहा....बस इतना ही कह पा रहा हूँ कि श्तिति वाकई भयावह है....मगर दुर्घटना के सन्दर्भ में.....या चैनलों द्वारा उसे "परोसे" जाने के तौर-तरीके के सन्दर्भ में......??????  
सोमवार, 12 जुलाई 2010

क्या हम सब एक जंगल में रहते हैं.....??



   क्या हम सब एक जंगल में रहते हैं.....??
..........जंगल.....!!यह शब्द जब हमारी जीभ से उच्चारित होता है....तब हमारे जेहन में एक अव्यवस्था...एक कुतंत्र...एक किस्म की अराजकता का भाव पैदा हो जाया करता है....इसीलिए मानव-समाज में जब भी कोई इस प्रकार की स्थिति पैदा होती है तो हम अक्सर इसे तड से जंगल-तंत्र की उपमा दे डालते हैं.....मगर अगर एक बार भी हम जंगल की व्यवस्था को ठीक प्रकार से देख लें तो हम पायेंगे कि हमारी यह उपमा ना सिर्फ़ गलत है....अपितु जंगल-विरोधी भी है....!!
               क्या कभी किसी ने किसी भी जंगल में अव्यवस्था नाम की चीज़ देखी भी है...??अव्यवस्था दरअसल कहते किसे हैं?....जंगल में (प्रक्रिति) का सिस्टम क्या होता है...यही ना कि शेर हिरण को खा जाता है....??मगर कब...जब उसे भूख लगती है केवल-और-केवल तब..!!जब-तब तो नहीं ही ना...मगर यह सिस्टम तो उपरवाले द्वारा प्रदत्त सिस्टम है...जिससे जंगल ही नहीं बल्कि सारा जगत चला चला करता है...मानव-जगत के सिवा....जल-थल और नभ,सब जगह का प्राकृतिक नियम एक समान है कि एक मजबूत भूखा जानवर एक कमजोर जानवर को खा जाता है...मगर सब जगह एक बात सामान्य है...वो यह कि सब जानवरों को जब भूख लगती है....केवल और केवल तभी उसके द्वारा दूसरे को खाये जाने की ऐसी घटना घटती है....इसके अलावा बाकी सब कुछ,सब समय,सब जगह बिल्कुल सामान्य और सहज ढंग से घटता रहता है.....प्राय: सब जानवर एक-दूसरे के संग आपस में घुल-मिलकर ही रहा करते हैं...और ऐसा होना हमारी जानकारी के अनुसार जीव-जगत के प्रादुर्भाव के समय से ही सुचारू ढंग से चला आ रहा है....शायद चलता भी रहेगा.....गनीमत है कि कम-से कम जंगल या जीव-जगत में यह एक अनिवार्य किस्म की नियमबद्द्त्ता जारी ही है....वरना हम हम कभी के नियम नाम की किसी चीज़ को भूल गये होते....!!
                      आदमी के जगत में,भले ही आदमी खुद को क्या-न-क्या साबित करने में लगा रहे मगर,हर पल यह बात साबित होती है कि अनुशासन में बंधना आदमी की फ़ितरत कतई नहीं है....भले ही धरती के कुछ हिस्सों में आदमी नाम की यह जात अनुशासन नाम की चीज़ से बंधी हुई दीख पड्ती है...मगर यह अनुशासन अधिकांशत: भय-जनित प्रक्रिया है,जहां कि नियम का पालन न करने पर कठोर दंड का प्रावधान है....और मज़ा यह कि तमाम कठोर-से-कठोर दंडों के बावजूद भी आदमी नाम का यह उच्चश्रृंखल  जीव नीच-से-नीच कर्म करता पाया जाता है....बेशक फांसी भी चढ जाता है....मगर अपने कुकर्मों से तनिक भी बाज नहीं आता...और मज़ा यह कि यही आदमी हर वक्त खुद को जानवरों से बेहतर बताता है...!!
                                अगर सिर्फ़ सोच के बूते,जबकि उस सोच का अपने जीवन में किसी भी प्रकार की करनी पर कोई असर तक ना हो,एक जात विशेष को बिना किसी से पुछे अपने-आप ही बेहतर बताना एक किस्म की धृष्टता ही कही जायेगी...एक अहंकार-जनित अहमन्यता.....!!मगर आदमी को इससे क्या लेना-देना....वो श्रेष्ठ था,श्रेष्ठ  है और सदा श्रेष्ठ ही रहेगा.... किसी को कोई दिक्कत है तो हुआ करे उसकी बला से....!!मगर आदमी की तमाम करनी को जानवरों के कर्मों से तौलें तो हम यही पायेंगे कि जंगल, आदमी के समाज से सदा बेहतर था...बेहतर है....और शायद जन्म-जन्मान्तर तक बेहतर ही रहेगा क्योंकि जानवर की तलाश सिर्फ़-और-सिर्फ़ पेट की भूख है....मगर आदमी की तलाश पेट से ज्यादा अहंकार.... लालच....और उससे निर्मित स्वार्थ की है....और चुंकि आदमी सोचता भी है....सो भी वह अपने स्वार्थ से ज्यादा कभी कुछ नहीं सोचता...भले वह बातें तरह-तरह की जरूर कर ले....और अपनी लच्छेदार बोलियों से अपने स्वार्थ...अपने अहंकार....अपने लालच...अपनी बेईमानियों को तरह-तरह के प्यारे-प्यारे नाम और काल्पनिक शक्ल क्युं ना दे दे....!!
                        आदमी इस जगत वह सबसे अलबेला जीव है....जो अपने समुचे जीवन में अपनी तमाम कथनी और करनी के अंतर के बावजूद खुद को खुद ही श्रेष्ठ साबित किये हुए रहता है....और मज़ा यह कि इसमें उसका खुद का ही,यानि अपनी खुद की जाति के लोगों का समर्थन भी रहता है....अपने स्वार्थ...अपने अहंकार....अपने लालच...अपनी बेईमानियों के एवज में वो कत्ल करता है.....बम फ़ोडता है....हज़ारों लोगों का एक साथ कत्लेआम करता है....अपने जीवन में खुद को और खुद के संबंधियों को आगे बढाने के लिये ना जाने क्या-क्या करम करता है....खुद के रंग....धर्म....नस्ल....धन....वर्ग को ऊंचा साबित करने से ज्यादा सामने वाले को बौना साबित करने के लिये हर-प्रकार के शाम-दाम-दंड-भेद का सहारा लेता है... चुगलखोट्टा तो यह जीव इतना है कि धरती का हर जीव इसके सम्मुख तुच्छ है....और अहंकारी इतना कि ऊपरवाला भी इसके सामने पानी भरे....लालची भी इतना कि दुनिया का सब कुछ उदरस्थ करके भी इसका जी भरने को ना आये....और मज़ा यह कि फ़िर भी आदमी सबसे श्रेष्ठ है...क्या आपको हंसी नहीं आती आदमी की यानि अपनी इस स्वनामधन्य अहंकार-जनित श्रेष्ठता पर....यदि नहीं....तो आप भी इसी प्रकार की आदमीयत का इक हिस्सा हैं.....
                                आदमी हमेशा समाज-समाज करता रहता है....मगर उसके समाज की अंतरंग सच्चाई क्या है....??
               क्या यह समाज,जो एक ही जाति के लोगों का तथाकथित पढा-लिखा,सभ्य-ससंस्कृत समाज है,क्या वास्तव में यह है.. ??
              क्या धरती के इस हिस्से से लेकर उस हिस्से तक वह किसी भी एक रूप से एक है??
              वसुधैव-कुटुम्बकम की प्यारी-प्यारी धारणाओं के होते हुए भी क्या कभी भी किसी भी वक्त में यह धारणा या ऐसी ही कोई अन्य धारणा धरती पर विचार-भर के अलावा अन्य किसी भी रूप में फलीभूत हुई भी है??                                  
              क्या समाज आज भी तरह-तरह से एक-दूसरे का खून नहीं पीता....??वह भी सामाजिकता का चोला ओढ़कर....!!!!
             यह समाज क्या आज भी बिना किसी कारण के महज अपनी धारणा को पुख्ता बताने के वास्ते दूसरे का सिर कलम नहीं कर देता ??
             क्या यही समाज आज भी किसी गैर के या यहां तक कि अपने ही घर में अपनी बहन-बेटियों का रेप नहीं करता??
             क्या आज भी यह समाज अपने फायदे के लिये कौन-सा गंदे-से-गंदा काम नहीं करता....??
             आदमी के द्वारा किये जाने वाले अगर इन तमाम कामों की फ़ेहरिस्त तैयार करूं तो एक लंबा-सा आलेख अलग से और तैयार करना पडेगा....!!(आप कहें तो शुरू करूँ....??)
             सच तो यह है कि भाषा आदमी की....बोली आदमी की....जानवर तो बिचारे मूक प्राणी रहे हैं सदा से,इसलिए सदा से इस धरती पर बेखट्के राज करता आया है आदमी....मगर करे ना राज आदमी कौन साला उसे मना करता है....मगर अपनी करनी का दंड इस पूरी धरती को क्यूं देता है....अपने किये की गाज जानवरों-पहाडों-नदियों और तमाम तरह के वातावरण पर क्यूं डालता है....??
             और तो और आदमी पशुओं के नाम की गाली क्यूं देता है....पशु बेचारों ने आदमी के बाप का क्या बिगाडा है??यह जो सामाजिक दुर्व्यवस्था है...यह तो आदमी नाम के इस जीव की मौलिक उपज या आविष्कार है...!! इसे जंगल का नाम देकर जंगल बेचारे का नाम बदनाम क्यूं करता है...??
              खुदा ना खास्ते अगर कभी कुछ जानवरों ने आदमी की कुछ हरकतें सीख लीं ना.....तो आदमी का समाज जंगल चाहे बना हो या बना हो.....जंगल अवश्य एक वीभत्स समाज बन जायेगा आदमी की एक घटिया कार्बन-कापी....एकदम बेलगाम...उच्चश्रृंखल ...और इन बेचारों को यह मालूम भी ना पडेगा कि वो क्या-से-क्या बन गए हैं और उनका जंगल भी.....क्या-से-क्या....!!
            आदमी तो शायद अपनी सोच से संभवत: कभी बदल भी पाये.... क्यूंकि शायद कभी तो वह ठीक-ठाक तरह भी सोच ले.....मगर जानवर तो यह सोच भी नहीं सकते कि गलती से वे भी अगर आदमी की तरह हो गये तो धरती किस किस्म की हो जायेगी.....!!!! 
गुरुवार, 8 जुलाई 2010

उम्र भर लिखते रहे..................

मैं भूत बोल रहा हूँ..........!!
उम्र भर लिखते रहे,हर्फ़-हर्फ़ बिखरते रहे
बस तुझे देखा किये,आँख-आँख तकते रहे....!!
उम्र भर लिखते रहे.....
कब किसे ने हमें कोई भी दिलासा दिया
खुद अपने-आप से हम यूँ ही लिपटते रहे....!!
उम्र भर लिखते रहे.......
आस हमारे आस-पास आते-आते रह गयी..
हम चरागों की तरह जलते-बुझते रह गए.....!!
उम्र भर लिखते रहे.....
हम रहे क्यूँ भला इतने ज्यादा पाक-साफ़
लोग हमें पागल और क्या-क्या समझते रहे...!!
उम्र भर लिखते रहे....
आज खुद से पूछते हैं,जिन्दगी-भर क्या किये
पागलों की तरह ताउम्र उल्टा-सीधा बकते रहे....!!
उम्र भर लिखते रहे....!!!!
मंगलवार, 6 जुलाई 2010

कौन समझेगा इस नामाकूल-से भूत की बात......??!

मैं भूत बोल रहा हूँ..........!!
गरज-बरस प्यासी धरती को फिर पानी दे मौला
चिडियों को दाने , बच्चों को , गुडधानी दे मौला !!

कई दिनों से आँखें पानी को तरस रही थीं 
और अब जब पानी बरसा तो कई 
दूसरी आँखें पानी से तर हो गयीं हैं,
पानी उनकी झोपड़-पट्टियों को लील लिए जा रहा है....पानी  
जो सूखे खेतों को फसलों की रौनक लौटने को बेताब है 
वहीं शहरों में गरीबों को लील जाने को व्यग्र...!!
पानी को कतई नहीं पता है कि उसे कहाँ बरसना है और कहाँ नहीं बरसना !!
शायर ने कहा भी तो है, "बरसात का बादल है.....दीवाना है क्या जाने,
किस राह से बचना है,किस छत को बिगोना है !!
तो प्यारे दोस्तों ,यूँ तो प्रकृति हमारी दोस्त है
...और सदा ही दोस्त ही बनी रही है....
लेकिन हम सबने अपनी-अपनी हवस के कारण 
इसे मिलजुल कर अपना दुश्मन बना डाला है....
प्रकृति को हमने सिर्फ़ अपने इस्तेमाल की चीज़ बना डाला है....
और अपने इस्तेमाल के बाद अपने मल-मूत्र का संडास....
ऐसे में यह कहाँ तक हमारा साथ निभा सकती है.....
और जो यह हमारा साथ नहीं निभाती...
तो यह हम पर कहर हो जाती है....
कारण हम ख़ुद हैं...!!!!
और यह सब समझबूझकर भी...........
यही सब करते रहने को अपनी नियति बना चुके
हम लोगों को भविष्य में इस कहर से कोई भी नहीं बचा सकता.....
उपरवाला भी नहीं...!!
पानी भी तो हमारा दोस्त ही है....
और हमारी तमाम कारगुजारियों के बावजूद भी 
हर साल हमारी मदद करने,
हमें जीवन देने के लिए ही आता है !
हम कब ख़ुद इसके दोस्त बनेंगे ??
ख़ुद तो दुश्मनों के काम करना,
और इसके एवज में कोई इसकी प्रतिक्रिया व्यक्त करे 
तो उसे पानी पी-पी कर कोसना
क्या यही मनुष्यता है??
प्यारे मनुष्यों,
मैंने तुम्हें यही बताना है.......... 
कि अपनी हवस को वक्त रहते लगाम दे दो ना...
अपने लालच को थोड़ा कम कर दो ना....!!
तुम्हारे जीवन में सुंदर फूल फिर से खिल उठेंगे....
तुम्हारा जीवन फिर से इक प्यारी-सी बगिया बन जाएगा..!!
जैसा कि तुम सदा से कहते रहे हो...."धरती पर स्वर्ग"...
तो इस स्वर्ग को बनाने का भी यत्न करो....
कि नरक बनाए जाने वाले कृत्यों से "स्वर्ग"नहीं निर्मित होता...
कभी नहीं निर्मित होता....यही सच है....!!         
मगर शायद  आदमी के  संग सबसे बड़ी दिक्कत तो यही है 
कि वह समझता तो बहुत है और बातें भी अपनी समझ से बहुत ज्यादा करता है
....मगर काम अपनी बतायी गयी बातों के ठीक विपरीत ही करता है....
हर समय अपने किये गए कार्यों के परिणाम की बाबत रोता भी रहता है....
और ठीक उसी क्षण वो वही कार्य करने भी लग जाता है....
आदमी की लीला शायद भगवान् भी नहीं जानता....
सो पानी  पानी बरस रहा है...तो कहीं बरसता ही जा रहा है....
और कहीं वह धरती से इतनी दूर है कि लगता ही नहीं कि कभी बरसेगा भी....
उफ़...कैसा है यह आदमी.....
उफ़ कब सुधरेगा ये आदमी....
उफ़ क्या होगा इस आदमी का.....
उफ़ कौन समझ पायेगा इस नामाकूल-से भूत की ये बात.........!!!???!

 
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