भारत का संविधान

"हम भारतवासी,गंभीरतापूर्वक यह निश्चय करके कि भारत को सार्वभौमिक,लोकतांत्रिक गणतंत्र बनाना है तथा अपने नागरिकों के लिए------- न्याय--सामाजिक,आर्थिक,तथा राजनैतिक ; स्वतन्त्रता--विचार,अभिव्यक्ति,विश्वास,आस्था,पूजा पद्दति अपनाने की; समानता--स्थिति व अवसर की व इसको सबमें बढ़ाने की; बंधुत्व--व्यक्ति की गरिमा एवं देश की एकता का आश्वासन देने वाला ; सुरक्षित करने के उद्देश्य से आज २६ नवम्बर १९४९ को संविधान-सभा में,इस संविधान को अंगीकृत ,पारित तथा स्वयम को प्रदत्त करते हैं ।"

Visitors

शनिवार, 30 मई 2009

दोस्तों....आप सबको मेरा असीम....अगाध प्रेम.....!!

मैं भूत बोल रहा हूँ..........!!
दोस्तों....आप सबको मेरा असीम....अगाध प्रेम.....!!
मेरे प्यारे दोस्तों,आप सबको भूतनाथ का असीम और निर्बाध प्रेम,
मेरे दोस्तों.......हर वक्त दिल में ढेर सारी चिंताए,विचार,भावनाएं या फिर और भी जाने क्या-क्या कुछ हुआ करता है....इन सबको व्यक्त ना करूँ तो मर जाऊँगा...इसलिए व्यक्त करता रहता हूँ,यह कभी नहीं सोचता कि इसका स्वरुप क्या हो....आलेख-कविता-कहानी-स्मृति या फिर कुछ और.....उस वक्त होता यह कि अपनी पीडा या छटपटाहट को व्यक्त कर दूं....और कार्य-रूप में जो कुछ बन पड़ता है,वो कर डालता हूँ....कभी भी अपनी रचना के विषय में मात्रा,श्रृंगारिकता या अन्य बात को लेकर कुछ नहीं सोचता,बस सहज भाव से सब कुछ लिखा चला जाता मुझसे....आलोचना या प्रशंसा को भी सहज ही लेता हूँ....अलबत्ता इतना अवश्य है कि इन दोनों ही बातों में आपका प्रेम है,और वो प्रेम आपके चंद अक्षरों में मुझपर निरुपित हो जाता है.....और उस प्रेम से मैं आप सबका अहसानमंद होता चला जाता हूँ...हुआ चला जा रहा हूँ....दबता चला जा रहा हूँ...और बदले में मैंने इतना प्रेम भी नहीं दिया....मगर आज आप सबको यही कहूंगा कि आई लव यू.....मुझे आप-सबसे बहुत प्रेम है....और यह मुझसे अनजाने में ही हो गया है....सो मुझे जो बहुत ना भी चाहते हों,उन्हें भी क्षमा-याचना सहित मेरा यह असीम प्रेम पहुंचे...और वो मुझे देर-अबेर कह ही डालें आई लव यू टू.....खैर आप सबका अभिनन्दन....मैं,सच कहूँ तो अपनी यह भावना सही-सही शब्दों में व्यक्त नहीं कर पा रहा....सो इसे दो लाईनों में व्यक्त करे डालता हूँ.....
"मेरे भीतर यह दबी-दबी-सी आवाज़ क्यूँ है,
मेरी खामोशी लफ्जों की मोहताज़ क्यूँ है !!
अरे यह क्या लाईने आगे भी बनी जा रही हैं....लो आप सब वो भी झेलो....
"मेरे भीतर यह दबी-दबी-सी आवाज़ क्यूँ है,
मेरी खामोशी लफ्जों की मोहताज़ क्यूँ है !!
बिना थके हुए ही आसमा को नाप लेते हैं
इन परिंदों में भला ऐसी परवाज़ क्यूं है !!
गो,किसी भी दर्द को दूर नहीं कर पाते
दुनिया में इतने सारे सुरीले साज़ क्यूं है !!
जिन्हें पता ही नहीं कि जम्हूरियत क्या है
उन्हीं के सर पे जम्हूरियत का ताज क्यूं है !!
जो गलत करते हैं,मिलेगा उन्हें इसका अंजाम
तुझे क्यूं कोफ्त है"गाफिल",तुझे ऐसी खाज क्यूं है !!
जिंदगी-भर जिसके शोर से सराबोर थी दुनिया
आज वो "गाफिल" इतना बेआवाज़ क्यूं है !!
सब कहते थे तुम जिंदादिल बहुत हो "गाफिल"
जिस्म के मरते ही इक सिमटी हुई लाश क्यूं है !!
उफ़!वही-वही चीज़ों से बोर हो गया हूँ मैं "गाफिल"
कल तक थी जिंदगी,थी,मगर अब आज क्यूं है ??
आप सबका बहुत-बहुत-बहुत आभार....आप सबका "भूतनाथ"
गुरुवार, 28 मई 2009

हाय समाज........तू भी देता है ना जाने कैसे-कैसे दंश.....!!

मैं भूत बोल रहा हूँ..........!!

हाय समाज........तू भी देता है ना जाने कैसे-कैसे दंश.....!!

............न पुरूष और न ही स्त्री..............दरअसल ये तो समाज ही नहीं.........पशुओं के संसार में मजबूत के द्वारा कमजोर को खाए जाने की बात तो समझ आती है......मगर आदमी के विवेकशील होने की बात अगर सच है तो तो आदमी के संसार में ये बात हरगिज ना होती.......और अगरचे होती है.....तो इसे समाज की उपमा से विभूषित करना बिल्कुल नाजायज है....!! पहले तो ये जान लिया जाए कि समाज की परिकल्पना क्या है.....इसे आख़िर क्यूँ गडा गया.....इसके मायने क्या हैं....और इक समाज में आदमी होने के मायने भी क्या हैं....!!
..............समाज किसी आभाषित वस्तु का नाम नहीं है....अपितु आदमी की जरूरतों के अनुसार उसकी सहूलियतों के लिए बनाई गई एक उम्दा सी सरंचना है....जिसमें हर आदमी को हर दूसरे आदमी के साथ सहयोग करना था....एक दूसरे की जरूरतों को पूरा करना था.....एक आदमी ये काम करता.....और दूसरा वो काम करता....तीसरा कुछ और....हर आदमी अपने-अपने हुनर और कौशल के अनुसार समाज में अपने कार्यों का योगदान करता....और इस तरह सबकी जरूरतें पूरी होती रहतीं.....साथ ही हारी-बीमारी में भी लोग एक-दूसरे के काम आते....मगर हुआ क्या............??
हर आदमी ने अपने हुनर और कौशल का इस्तेमाल को अपनी मोनोपोली के रूप में परिणत कर लिया...........और उस मोनोपोली को अपने लालच की पूर्ति के एकमात्र कार्यक्रम में झोंक दिया.......लालच की इन्तेहाँ तो यह हुई कि सभी तरह के व्यापार में ,यहाँ तक कि चिकित्सा आदि के क्षेत्रों में भी लालच की ऐसी पराकाष्ठा का यही घृणित रूप तारी हो गया.....और आज यह राजनीति और सेवा कार्यों में तक में भी यही खेल मौजूं हो गया है....तो फ़िर समाज नाम की चीज़ अगर हममे बची है तो मैं जानना चाहता हूँ कि वो है तो आख़िर कहाँ है....एक समाज के सामाजिक लोगों के रूप में हमारे कार्य आख़िर क्या हैं.....कि हम जहाँ तक हो सके एक-दूसरे को लूट सकें...........????

.......क्या यह सच नहीं कि हम सब एक दूसरे को सहयोग देने की अपेक्षा,उसका कई गुणा उसे लूटते हैं.....वरना ये पेटेंट आदि की अवधारणा क्या है......??और ये किसके हित के लिए है.....लाभ कमाने के अतिरिक्त इसकी उपादेयता क्या है.....??क्या एक सभ्य समाज के विवेकशील मनुष्य के लिए ये शोभा देने वाली बात है कि वो अपनी समझदारी या फ़िर अपने किसी भी किस्म के गुण का उपयोग अपनी जरूरतों की सम्यक पूर्ति हेतु करे ना कि अपनी अंधी भूख की पूर्ति हेतु......??
मनुष्य ने मनुष्य को आख़िर देना क्या है.....??क्या मनुष्यता का मतलब सिर्फ़ इतना है कि कभी-कभार आप मनुष्यता के लिए रूदन कर लो.....या कभी किसी पहचान वाले की जरुरत में काम आ जाओ....??..........या कि अपने पाप-कर्म के पश्ताताप में थोड़ा-सा दान-धर्म कर लो.......??

........मनुष्यता आख़िर क्या है...........??............अगर सब के सब अपनी-अपनी औकात या ताकत के अनुपात में एक दूसरे को चाहे किसी भी रूप में लूटने में ही मग्न हों....??..........और मनुष्य के द्वारा बनाए गए इस समाज की भी उपादेयता आख़िर क्या है..........??
.........और अपने-अपने स्वार्थ में निमग्न स्वार्थियों के इस समूह को आख़िर समाज कहा ही क्यूँ जाना चाहिए..........??.........हम अरबों लोग आख़िर दिन और रात क्या करते हैं........??उन कार्यों का अन्तिम परिणाम क्या है......??अगर ये सच है कि परिणामों से कार्य लक्षित होते हैं.............तो फ़िर मेरा पुनः यही सवाल है कि इस समूह को आखर समाज कैसे और क्यूँ कहा जा सकता है......और कहा भी क्यूँ जाना चाहिए.......??

जहाँ कदम-दर-कदम एक कमज़ोर को निराश-हताश-अपमानित-प्रताडित-और शोषित होना पड़ता है......जहाँ स्त्रियाँ-बच्चे-बूढे और गरीब लोग अपना स्वाभाविक जीवन नहीं जी सकते.... ?? जहाँ हर ताकतवर आदमी एक दानव की तरह व्यवहार करता है........!!??
......दोस्तों मैं कहना चाहता हूँ कि पहले हम ख़ुद को देख लें कि आख़िर हम कितने पानी हैं.....और हमें इससे उबरने की आवश्यकता है या इसमें और डूबने की........??हम ख़ुद से क्या चाहते हैं......ये अगर हम सचमुच इमानदारी से सोच सकें तो सचमुच में एक इमानदार समाज बना सकते हैं............!!
याद रखिये समाज बनाने के लिए सबसे पहले ख़ुद अपने-आप की आवश्यकता ही पड़ती है........तत्पश्चात ही किसी और की.....!!आशा करता हूँ कि इसे हम पानी अपने सर के ऊपर से गुजर जाने के पूर्व ही समझ पायेंगे..........!!!!
मंगलवार, 26 मई 2009

आई लव यु दद्दू,सेम तू यु बुद्दू......!!

मैं भूत बोल रहा हूँ..........!!
अरे सुनो ना दद्दू.....!!
अबे....बोल बे बुद्धू....!!
एक सरकार बनाओ ना.....!!
बात क्या है,बताओ ना....!!
हमको समर्थन देना है...!!
मगर हमको नहीं लेना है....!!
ले लो ना समर्थन हमसे.....!!
अरे नहीं लेना समर्थन तुमसे....!!
लेकिन हम तो दे के रहेंगे.....!!
लेकिन हम तुमको कोई पद नहीं देंगे....!!
पद की किसको पड़ी है दद्दू...!!
तो समर्थन किस बात का बुद्दू...??
हम सांप्रदायिक सरकार नहीं चाहते....!!
और हम धर्म-निरक्षेप सांप्रदायिक कहलाते हैं....!!
तो क्या हुआ धर्म-निरक्षेप तो हैं ना...!!
लेकिन हम तो इसका अर्थ भी नहीं जानते....!!
तो क्या हुआ धर्म-निर तो हैं ना...!!
लेकिन हमने इसके लिए कभी कुछ किया ही नहीं.....!!
तो क्या हुआ धर्म-निरक्षेप तो हैं ना...
लेकिन इस धर्म-निरक्षेपता का कोई मतलब भी तो हो.....!!
अरे आपकी मैडम है ना...इतना ही बहुत है.....!!
लेकिन हमारी मैडम तो सरकार चलाती नहीं....??
तो क्या हुआ वो आपको उँगलियों पर तो नचाती है.....!!
इस नाचने में दर्द बहुत गहरा है बुद्दू.....!!
और सरकार चलाने का सुख भी तो गहरा है ना दद्दू ....!!
लेकिन हमें तुझसे समर्थन नहीं लेना है भाई.....!!
लेकिन हम तुम्हारे ही साथ हैं भाई.....!!
तुम और हमारे साथ...??....अबे कैसा साथ...??
तू तो सदा हमसे लड़ता ही रहा है....!!
बाहर भी दुश्मनों का साथ ही दिया है....!!
आपको ग़लत फहमी है दद्दू.....!!
वो तो राजनीति की बिसा थी......!!
तो अब और क्या है भाई ...??
अब तो आप ही हमारे बाप हो......!!
और मैडम ही है हमारी माई.....!!
अबे तू आदमी है कि गिरगिट....??
तूने राजनीति को बना दिया है किरकिट....!!
अरे दद्दू, हम ना आदमी हैं ना गिरगिट.....!!
असल में राजनीति ही है हमारी सर्विस.....!!
अपनी में जब हम जाते हैं...!!
देश को भी पका कर खा जाते हैं....!!
तुम भी तो दद्दू हमारी ही जात के हो.....!!
आज थोड़ा दम हो गया hai तो.....
हमही से दायें-बाएँ होने लगे......!!
दद्दू......कुछ आगे का भी देख लो...
अपना भला-बुरा का भी सोच लो.....!!
कुछ महीनों में ही तेरे परिवार के लोग.....
तेरी नैया डूबोने लगेंगे....!!
और तब तू और तेरी मैडम.....
हमें खोजने निकल पड़ेंगे......!!
अरे हाँ मेरे बच्चे......कहता तो तू ठीक है!!!
अरे बुद्दू ,मैं तो तुझसे मज़ाक कर रहा था.....!!
कोई सीरिअस थोड़ा ना कह रहा था....!!
जा मेरे बच्चे,मेरे गले लग जा.....!!
मेरी गोद में आकर बैठ जा.....!!
अरे वाह मेरे दद्दू.....!!
तुम तो काफी समझदार हो गए हो.....!!
अरे पुत्तर.......!!
साठ सालों की उम्र का है यह असर.....!!
इसी समझदारी से तो हमने तय किया है....
राजनीति का यह दुश्वार सफर.....!!
दद्दू ....!!मेरे प्यारे दद्दू....!!
पुत्तर....!!मेरे प्यारे पुत्तर........!!
आई लव यू दद्दू .....!!
सेम टू यू बुद्दू.....!!
सोमवार, 25 मई 2009

रास्ता होता है....बस नज़र नहीं आता..........!!

मैं भूत बोल रहा हूँ..........!!
रास्ता होता है....बस नज़र नहीं आता..........!!
कभी
-कभी ऐसा भी होता है
हमारे सामने रास्ता ही नहीं होता.....!!
और किसी उधेड़ बून में पड़ जाते हम....
खीजते हैं,परेशान होते हैं...
चारों तरफ़ अपनी अक्ल दौडाते हैं
मगर रास्ता है कि नहीं ही मिलता....
अपने अनुभव के घोडे को हम....
चारों दिशाओं में दौडाते हैं......
कितनी ही तेज़ रफ़्तार से ये घोडे
हम तक लौट-लौट आते हैं वापस
बिना कोई मंजिल पाये हुए.....!!
रास्ता है कि नहीं मिलता......!!
हमारी सोच ही कहीं गूम हो जाती है......
रास्तों के बेनाम चौराहों में.....
ऐसे चौराहों पर अक्सर रास्ते भी
अनगिनत हो जाया करते हैं..........
और जिंदगी एक अंतहीन इम्तेहान.....!!!
अगर इसे एक कविता ना समझो
तो एक बात बताऊँ दोस्त.....??
रास्ता तो हर जगह ही होता है.....
अपनी सही जगह पर ही होता है.....
बस.....
हमें नज़र ही नहीं आता......!!!!
गुरुवार, 21 मई 2009

हम तो बस करतब दिखा रहे हैं......!!

हम तो बस करतब दिखा रहे हैं......!!
चार बांसों के ऊपर झूलती रस्सी.....
रस्सी पर चलता नट....
अभी गिरा,अभी गिरा,अभी गिरा
मगर नट तो नट है ना
चलता जाता है....
बिना गिरे ही
इस छोर से उस छोर
पहुँच ही जाता है.....!!
इस क्षण आशा और
अगले ही पल इक सपना ध्वस्त....!!
अभी-अभी.....
इक क्षण भर की कोई उमंग
और अगले ही पल से
कोई अपार दुःख
अनन्त काल तक
अभी-अभी हम अच्छा-खासा
बोल बतिया रहे थे और
अभी अभी टांग ही टूट गई....!!
कभी बाल-बच्चों के बीच....
कभी सास बहु के बीच.....
कभी आदमी औरत के के बीच
कभी मान-मनुहार के बीच
कभी रार-तकरार के बीच....
कभी अच्छाई-बुराई के बीच
कभी प्रशंसा-निंदा के बीच
कभी बाप-बेटे के बीच
कभी भाई-भाई के बीच
कभी बॉस और कामगार के बीच
कभी कलह और खुशियों के बीच
कभी सुख और के बीच....
जैसे एक अंतहीन रस्सी
इस छोर से उस छोर तक
बिना किसी डंडे के ही
टंगी हुई है ,और हम
एक नट की भांति
करतब दिखाते हुए
बल खाते हुए
गिरने-संभलने के बीच
चले जा रहे हैं.....
बिना यह जाने हुए कि....
दूसरा जो छोर है....
उस पर तो मौत खड़ी हुई है....
हम संभल भी गए तो
कोई अवसर नहीं है....
कुछ भी पा लेने का.....!!!!
 
© Copyright 2010-2011 बात पुरानी है !! All Rights Reserved.
Template Design by Sakshatkar.com | Published by Sakshatkartv.com | Powered by Sakshatkar.com.