भारत का संविधान

"हम भारतवासी,गंभीरतापूर्वक यह निश्चय करके कि भारत को सार्वभौमिक,लोकतांत्रिक गणतंत्र बनाना है तथा अपने नागरिकों के लिए------- न्याय--सामाजिक,आर्थिक,तथा राजनैतिक ; स्वतन्त्रता--विचार,अभिव्यक्ति,विश्वास,आस्था,पूजा पद्दति अपनाने की; समानता--स्थिति व अवसर की व इसको सबमें बढ़ाने की; बंधुत्व--व्यक्ति की गरिमा एवं देश की एकता का आश्वासन देने वाला ; सुरक्षित करने के उद्देश्य से आज २६ नवम्बर १९४९ को संविधान-सभा में,इस संविधान को अंगीकृत ,पारित तथा स्वयम को प्रदत्त करते हैं ।"

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गुरुवार, 27 मई 2010

ओ......बाबा कृष्ण....!!संभाल लेना यार मुझको....हम सबको.....!!

मैं भूत बोल रहा हूँ..........!!
ओ......बाबा कृष्ण....!!संभाल लेना यार मुझको....हम सबको.....!!

इन दिनों कई बार यूँ लगता है कि हम लिखते क्यूँ हैं.....हजारों वर्षों से ना जाने क्या-क्या कुछ और कितना-कितना कुछ लिखा जा चूका है....लिखा जा रहा है...और लिखा जाएगा....मगर उनका कुछ अर्थ....क्या अर्थ है इन सबका....इन शब्दों का...इन प्यारे-प्यारे शब्दों का इन तरह-तरह के शब्दों का अगरचे शब्दों के बावजूद....अपनी समूची भाषाई संवेदनाओं के बावजूद...बड़ी-बड़ी बातों के बावजूद...दुनिया संबंधों के स्तर पर एक तरह के नफ़रत के पायदान पर आ खड़ी हुई है....धर्म के स्तर पर बिलकुल छिछली....भावना के स्तर पर एकदम गलीच....संवेदना के स्तर पर एकदम दीन-हीन....बस एक ही ख़ास बात दिखाई है इसमें....वो यह कि यह भौतिक स्तर पर क्रमश: विकसित होती चली जाती है मगर यह विकास भी इतना ज्यादा अनियंत्रित है कि उससे वर्तमान बेशक ठीक-ठाक सुविधाओं से परिपूर्ण दीख पड़ता होओ...मगर कुल-मिलाकर यह भी मानव के लिए बहुत बेहतर नहीं कहा जा सकता...और आदमी है कि अपनी सफलताओं पर इतना इतराता है कि मानो उससे बड़ा जैसे भगवान् भी नहीं.....और उसकी सफलताओं का सुबह-शाम-दिन-रात उसकी ही बनायी हुई पत्र- पत्रिकाओं और इंटरनेट के संजाल पर छापी और बिखरी दिखाई पड़ती है.....अपनी सफलताओं का दिन-रात इतना भयानक गुणगान....और उसके चहुँ और चर्चे और तरह-तरह की सफलताओं पर तरह-तरह की पार्टियां... और उनका शोर-शराबा...और एक किस्म का भयानक नशा अपने कुछ होने का....उससे से बढ़कर सामने वाले के कुछ ना होने का....मुझे यह समझने ही नहीं देता कि मैं लिख रहा हूँ आखिर क्यूँ लिख रहा हूँ...मेरे लिखने का अर्थ क्या है....उसका सन्दर्भ क्या है....उससे क्या बदलने वाला है....और मैं नहीं भी लिखूंगा तो ऐसा क्या बिगड़ जाएगा....किसी किताब में छाप जाना....और उस पर टिप्पणियाँ पाना....कहीं ब्लॉग पर लिख लेना और प्रशंसा पा लेना....क्या किसी के लिखने का यही ध्येय होता है...??
तो फिर जिस पीड़ा याकि जिस चिंता से हम लिखते हैं...जो वेदना हमारे लेखन में झलकती है(जो अपने आस-पास विसंगतियों का विकराल पहाड़ देख-कर चिंतित होकर लिखते हैं)और उस वेदना की स्थितियों का कोई निराकरण नहीं हो पाता...और हमारे कुछ भी लिखने के बावजूद भी बदलता हुआ नहीं दिख पड़ता... और ना ही बदलने की कोई संभावना ही दूर-दूर तक दिखाई ही पड़ती है...तो फिर सच बताईये ना कि हम सब क्यों लिखते हैं....मैं चिल्ला-चिल्ला कर आप सबसे यह पूछना चाहता हूँ कि भाईयों और बहनों हम सब क्यूँ लिखते हैं ??अगर लिखने से हमारा तात्पर्य सचमुच स्थितियों का थोडा-बहुत ही सही बदल जाने को लेकर है तो फिर कुछ फर्क दिखलाई नहीं पड़ने के बावजूद हमारा लिखना आखिर किस कारण से जारी है....सिर्फ आपस के कतिपय संबंधों से थोड़ी-बहुत प्रशंसा पाने के लिए...??
दोस्तों बेशक हममे से कुछ लोग यूँ ही लिखते हैं मगर ज्यादातर लोग तो मेरी समझ से व्यथीत होकर ही लिखते हैं और उनकी वेदना उनके लेखन में दिखाई भी देती है...और अपने दैनिक जीवन में भी ऐसे बहुत से लोग अपने आस-पास को बदलने के लिए जूझते हुए भी दिखलाई पड़ते हैं....भले उसमें उन्हें सफलता मिले या ना मिले...मगर सच तो यह भी है कि सफलता भी एक ऐसी चीज है जो अथक परिश्रम से मिल कर ही रहती है...और घोर परिश्रम से मिली सफलता का स्वाद भी बेहद मधुर होता है....इसलिए ओ मेरे दोस्तों कुछ भी करने का अगर उचित मकसद हो तो देर-अबेर उसके कुछ वाजिब अर्थ भी निकल ही आते हैं....!!
आज यह सब लिखना यह सोचकर शुरू किया था कि मैं आखिर क्यूँ हूँ....और लिखते-लिखते इसके उत्तर तक भी आन पहुंचा हूँ...वो यह कि हमारा काम होता है...अपना काम अपने पूरे समर्पण के साथ करना..... और जैसा कि कृष्ण-बाबा कह गए हैं कि फल की चिंता मत कर-मत कर-मत कर....सो अपन भी कृष्ण-बाबा के गीता-रुपी इस कथन को अपने जीवन में अपरिहार्य बना लिया है मगर क्या है कि इंसान हैं ना,सो कभी-कभी दिमाग बिगड़े हुए बैल की माफिक हो जाता है और अंत-शंट सोचने लगता है...और सोचते-सोचते सोचने लगता है कि उफ़ मैं क्या लिखता हूँ....मैं क्यूँ लिखता हूँ....उफ़-उफ़-उफ़....कुछ भी नहीं बदलता मेरे लिखने से...भाग नहीं लिखना अपुन को कुछ...मगर क्या है कि कर्म ही अगर जीवन है...तो हर कर्म जीवन का एक अभिन्न अंग और चूँकि जिन्दगी मेरी भी अभिन्न अंग है...इसीलिए कर्म करते ही जाना है अपन को....और उसका परिणाम अरे ओ अर्जुन के सखा बाबा कृष्ण....जा तुझ पर छोड़ता हूँ आज...अभी...इसी वक्त से....अब तू ही सम्भाल मेरे कर्मों को और मुझे....मेरे खुद को भी.....!!संभालेगा ना ओ मेरे यार......???
गुरुवार, 20 मई 2010

आदमी साला बोर क्यूँ होता है यार.....??

मैं भूत बोल रहा हूँ..........!!
आदमी साला बोर क्यूँ होता है यार.....??
ऐय क्या बोलती तू...क्या मैं बोलूं....सुन...सुना....आती क्या खंडाला...क्या करुं...आके मैं खंडाला...अरे घुमेंगे..फिरेंगे...नाचेंगे..गायेंगे...ऐश करेंगे...मौज करेंगे..बोरिंग को तोडेंगे...और क्या....ऐय क्या बोलती तू.......हां...!!चल ना अब तू.......ये आदमी धरती पर एक-मात्र ऐसा जीव है,जो हर कार्य से जल्दी ही बोर हो जाता है और उससे कोई अलग कार्य करने की सोचने लगता है या उस एकरसता से दूर भागने के प्रयास करने लगता है....और कभी-कभी तो उसकी बोरियत इतनी ज्यादा ही बढ जाती है कि वह "छुट्टी" पर चला जाता है,अकेला नहीं बल्कि अपने परिवार और दोस्तों के संग...और वह भी कहां....सुरम्य वादियों में...पहाडों... नदियों ..समंदर के पास...यानि किसी भी ऐसी जगह जो अपनी उस रोजमर्रा की जिंदगी से बिल्कुल अलहदा हो....जहां कि लगे कि कुछ दिन हम अलग सा जीये....इसीलिये यह गाना उसके दिमाग में बजता ही रहता है...चल कहीं दूर निकल जायें....कि कितनी खूबसूरत ये तस्वीर है....ये कश्मीर है....और भी जाने क्या-क्या....और आदमी कुछ दिन घूम-फिरा कर वापस अपने घर लौट आता है....कुछ दिनों के लिए अपने दामन में या कि झोले में खुशियों के कुछ टुकडे लेकर....थोडे दिन तो सब कुछ ठीक-ठाक ही चलता रहता है...मगर उसके बाद फिर वही...ऐय क्या बोलती तू.....!!
आदमी,मैं सोचता हूं,सच में ही है तो बडा ही विचित्र जीव....यदि ऐसा ना होता तो शायद उसे ये तो पता ही होता कि धरती को बने आज अरबों वर्ष हो चुके ....और यह इन अरबों वर्षों से बिना एक पल भी रूके...बिना एक पल को बोर हुए......अपनी धूरी पर चक्कर काटती हुई...सुर्य के चारों और परिक्रमा किये जा रही है....मौसमों और परिवर्तनों का एक-समान चक्र इतने ही वर्षों से चला ही जा रहा है....रोज-ब-रोज बादल बन रहे हैं और कहीं-ना-कहीं बरस रहे हैं....किसी भी पल को यह बोर नहीं होते...अगर एक पल को मान लो कि सिर्फ़ एक पल को ये बोर हो जायें तो.....???...यहां तक कि सूरज नाम का यह आग का भयावह गोला जो धरती से भी ज्यादा बरसों से धधक रहा है....धधकता ही जा रहा है....साला...कभी बोर ही नहीं होता....सेकेंड के एक अरबवें हिस्से के लिये एक दिन-एक बार बोर हो जाये ना... तो सिर्फ़ जिसके चारों और घूमने से धरती पर असंख्य प्रकार का जीवन चक्र चल रहा है....और निर्बाध रूप से चलता ही जा रहा है और यह भी तय है कि आदमी ही अपने कु-कर्मों से इस चक्र की गति को अपने खिलाफ़ भले कर ले.... आदमी के कारण भले कुछ भयावह किस्म की टूट-फूट या परिवर्तन धरती और वायुमंडल में कोई बवंडर भले ही हो जाये .....मगर अपनी और से प्रकृति ऐसा कुछ बदलाव नहीं करती....नहीं ही करती.... और साली कभी बोर ही नहीं होती....पागल है क्या ये साली....??
और आदमी....!!.....इसका बस चले ना.....तो यह घंटों-दिनों-सप्ताहों-महीनों तो क्या....हर पल ही बोर हो जाये....और हर पल ही किसी और ही दुनिया में चला जाये....शायद इसीलिये ही आदमी नाम का यह विचित्र जीव अपने ख्यालों की अपने से भी ज्यादा विचित्र दुनिया में विचरण करता रहता है....करता ही रहता है मगर मजा तो यह है कि यह साला वहां से भी बोर हो जाता है....अब जैसे कि यह कभी छुट्टी मनाने जो कभी बाहर भी जाता है तो वहां भी यह ज्यादा दिन आराम से टिक कर नहीं रह पाता क्योंकि उसे वहां फिर अपनी पुरानी दुनिया के काम याद आने लगते हैं....अपनी नौकरी...अपना बिजनेस...या फिर अपने अन्य दूसरे काम.....!!
तो बाहर-बाहर भले आदमी अपना काम करता हुआ-सा लगता है मगर साथ ही अन्दर-अन्दर वो अपनी किसी और ही दुनिया में गुम भी रहता है...और जब भी उसे अकस्मात चेत होता है....उसे लगता है....अरे मैं तो यहीं था...और अपने आप पर हंसता है आदमी....मैं अक्सर सोचा करता हूं......काश कि आदमी में धरती-सूरज-चांद-तारों-मौसम-जलवायू और प्रकृति के ठहराव का यह गुण आ जाये जिससे कि वह सदा अपने-आप में रह सके....एकरसता में भी सदा के लिये सदाबहार जी सके....मगर पता नहीं आदमी को तो क्या तो होना है....अपन तो उसकी ओर को सदा शुभ-ही-शुभ सोचा करते हैं....पता नहीं आदमी यह शुभ कब सोच पायेगा.....पता नहीं कब आदमी अपना भला कब सोच पायेगा....पता नहीं कब आदमी यह समझ भी पायेगा कि उससे जुडी हुई हैं असंख्य जिन्दगियां.....और जिनसे वो खुद भी उसी तरह जुडा हुआ है... सब एक-दूसरे के प्राणों से जटिलतम रूपों से जुडे हैं....इस नाते सबको अपने ख्याल के साथ-साथ अन्य सबों का भी ख्याल रखना है....जैसे उपर वाला हमारा ख्याल कर रहा है....करता ही चला आ रहा है....और करता ही रहेगा....मगर आदमी को यह होश शायद तब तक नहीं आयेगा....जब तक कि वह खुद अपनी मौत नहीं मर जाता......!
शनिवार, 15 मई 2010

इस नग्नता का क्या करना है....??

मैं भूत बोल रहा हूँ..........!!
इस अखबार में अक्सर कुछ गुणी लोगों लोगों यथा हरिवंश जी,दर्शक जी,निराला जी,ईशान जी, राजलक्ष्मी जी को पढ़ा है,लेखकों के नाम तो अवश्य बदलतें रहे हैं, मगर मूल स्वर वही होता है सबका,जो अखबार का घोषित उद्देश्य है।गलत शासन का विरोध,गलत लोगों की आलोचना… अखबार का एक पन्ना भी अब धर्म- अध्यात्म एवम सन्त-महात्माओं के सुवचनों से पटा हुआ होता है मगर कहीं कुछ नहीं बदलता……कहीं कुछ बदलता नहीं दीख पड़ता……आखिर कारण क्या है इसका…??

सौ-डेढ सौ साल पहले एक खास किस्म का वातावरण हुआ करता था इस देश में…वो बरस थे कठोर और यातनामयी गुलामी के बरस……मगर उस भीषण यातनादायक युग में भी चालीस करोड़ लोगों की लहरों के समन्दर में जो उफ़ान,जो उद्वेग,जो उबाल,जो जोश ठाठ मारता था और जो नेतृत्व उस वक्त उन्हें प्राप्त था उसमें जान पर खेलकर भी अपने देश की मुक्ति की भावना थी,इस भावना में एक निर्मल और मासूम प्रण था,गुलामी से मुक्ति का एक निश्चित उद्देश्य था,मुक्ति-पश्चात मिलने वाले देश को एक खास प्रकार से निर्मित करने की योजना थी……मगर वह संकल्प,वे योजनाएं आजादी के मिलते ही सत्ता-संघर्ष में अपहरण कर लिए गये……जबकि स्वाधीनता-सेनानियों ने मुक्ति-संग्राम में किये गये अपने संघर्षों के मुआवजे के रूप में सत्ता की कुर्सी चाही……और ना सिर्फ़ चाही…बल्कि उसके लिए भी जो घमासान लड़ा गया…उसने स्वार्थपरता की सब हदों को तोड़ दिया……और देश के मुक्ति-संग्राम में जान-न्योछावर करने को तत्पर रहने वाले ये वीर-बांकुरे मुक्ति-पश्चात अपने किए गये कार्यों का मोल प्राप्त करने के चक्कर में आपस में ही कैसी-कैसी कटुताएं पाल बैठे……यह एक किस्म का अपहरण कांड था,जिसमें किसी भी किस्म की शुचिता नहीं थी बस अपने शरीर और मन को आराम देने की कुतित्स चाह थी यकायक उभर आयी इस चाह ने विकृतियों के ऐसे बीज सदा के लिए बो दिये कि मुक्ति-पश्चात देश को बनाने के समस्त स्वप्न और समुचे प्रण तिरोहित हो गये और इसी के साथ देश चल पड़ा अपने कर्णधारों की स्वार्थ-सिद्धि के एक ऐसे विकट रास्ते में जिसका अंत वर्तमान के रूप में ही होना था……यानि कि स्वार्थपरता की घोर पराकाष्ठा…… नीचता के पाताल तक की भयावह यात्रा……अब आज यह जो विरूपता का विशाल विष-वृक्ष हमें हमारे चारों ओर फ़ैला दिखायी दे रहा है……यह भी अभी आखिरी नहीं है,इसे तो अभी और बड़ा होना है……!!

जब आप सेवा-समर्पण-क्रान्ति-त्याग करते हो तभी यह तय हो जाता है कि यह सब खुद के लिए नहीं कर रहे बल्कि अपने को समाज का एक विशिष्ठ हिस्सा समझ कर अपने हिस्से का विशिष्ठ पार्ट अदा कर रहे हो…कि आपने अगर यह नहीं किया तो आप अपनी ही नज़र से गिर जाओगे…बेशक आप खुद भी समाज की एक इकाई हो मगर इन कार्यों को किये जाते वक्त आपने एक सन्त की भांति ही निर्विकार होना होता है…देशीय-समुच्च्य के साथ एकाकार……!!जैसे ही आपने अपने कार्यों के प्रतिदान की मांग की…… बागडोर अपने हाथ में लेकर सत्ता का थोड़ा सुखपान/रसपान करने की इच्छा आपमें पैदा हुई नहीं कि फिर एक सिलसिला शुरू हो जाता है भोग का-आनन्द का-सुख के तिलिस्म का……और यह सब न सिर्फ़ आपको एक निम्नतम रास्ते की और अग्रसर कर देता है……बल्कि आपके चरित्र की उस विशिष्ठता को भी घुन की तरह खाना शुरू कर देता है जिसके कारण आप खुद को एक मिसाल बनाने के रास्ते की ओर अग्रसर हुए थे……जिसके कारण लोग आपको “विशेष” मानने लगे थे……जिसके कारण आपकी बोली का महत्व होने लगा था……जिसके कारण आप समाज के लीडर बनने लगे थे……!!

सुख दरअसल एक ऐसी कामना है जो सदा और-और-और की डिमांड करती है…यह त्याग के बिल्कुल विपरीत है……और चरित्र की उदारता के बिल्कुल विलोम……और दुर्भाग्यवश हमारे मुक्ति-सेनानियों के त्याग के बाद भोग का रास्ता चुना……और ना सिर्फ़ इतना अपितु अपनी संतानों के भविष्य को भी सुनिश्चित कर देना चाहा……परिणाम सामने है…!!??शासन चलाने की अयोग्यता…अदूरदर्शिता…काहिली और अन्तत:लम्पटता से भरे लोग इस देश के शासन के उपरी तलों पर छा चुके हैं और आम जनता को इस सबसे बचने का कोई रास्ता ही नहीं दिखायी देता…जैसे एक अनन्त अंधेरा चारों ओर छाया हुआ है और नेतृत्व बिल्कुल रोशनी-विहीन…एकदम श्रीहीन…कान्तिहीन……बल्कि किसी गये-गुजरे से भी गया-गुजरा हुआ……सत्ता की चाह ने आजादी की शुरुआत में ही कुछ लोगों को शीर्ष पर लाकर उनसे भी गुणी लोगों को हाशिये पर डाल दिया था……कितने ही विरोधियों को मसल दिया गया था…और कितनों को मार भी डाला गया……समय एक दिन सबसे इन सबका हिसाब मांगेगा कि नहीं सो तो नहीं पता मगर यह तो तय है कि देश तो उसी वक्त जंगल बनाया जा चुका था……और जंगल के कानून भी उसी वक्त न्याय के शासन की जगह प्रत्यारोपित किए जा चुके थे……सत्ताधारी का सत्ता प्रेम देशप्रेम और विरोधियों का तर्क/बहस देशद्रोही साबित किये जाने लगे……!!

झारखंड आज इस सबका एक अद्भुत-अतुलनीय-नायाब और खुबसुरत उदाहरण बनता जा रहा है, जहां सारे नियम,कानून,नैतिकता,शासन-कर्म सबके सब एकदम से ताक पर रखे जा चुके हैं और इन सबकी जगह व्यभिचार-लम्पटता……और संसार की सभी भाषाओं में जितने भी गंदगी के पर्याय-रूपी शब्द हैं,सब इस झारखंडी शासन व्यवस्था के विद्रूप के समक्ष एकदम बौने हैं(इसीलिये मैं इनके लिये इन तमाम शब्दों का प्रयोग नहीं कर पा रहा कि शब्द बिचारे क्या कहेंगे या कह पायेंगे जो इन झारखंडी नेताओं-अफ़सरों- ठेकेदारों और ना जाने किन-किन लोगों की चांडाल-चौकड़ियों ने कर दिखाया है……सच झारखंड आज “चुतियापे” की एक ऐसी भुतो-ना-भविष्यति वाली मिसाल बन चुका है कि इसकी आने वाली संताने इस बात पर भी कठिनता से विश्वास कर पायेंगी कि यहां अच्छे लोग भी कभी हुआ करते थे……कितना शर्मनाक है झारखंडी होना……इससे तो कहीं बहुत कम शर्मनाक था अपने घोरतम कुटिल-घटिया शासन वाले दिनों में बिहार……और जिस बिहार की तुच्छ राजनीति के कारण झारखंडी अस्मिता के लिए यह राज्य बुना गया……आज उसी तुच्छता की एकदम से घटिया से घटिया अनुकृति बन चुका है यह राज्य……!!

किसी भी संस्थान/राज्य/देश को चलाने के लिए शासन की योग्यता के अलावा एक और खास बात की आवश्यकता होती है वो है इस समुचे वातावरण से अपनी निर्लिप्तता……क्योंकि केवल तभी लोभ-स्वार्थ या इस तरह की अन्य बातों से बचा भी जा सकता है……समुची लीडर-शिप एक समुचा रुपांतरण होता है खुद को न्याय की आग में झोंक में देने के माद्दे के रूप में……कैसा भी मोह आपने एक बार पाला तो उसे नासूर बनते देर नहीं लगती……समय रहते समस्याओं की पहचान भी आपके आने वाले संकटों को दूर कर सकती है……मगर यह सब कुछ आपमें मोह की अनुपस्थिति में ही संभव है,अन्यथा कभी नहीं…!!

फिर एक बात और भी है कि जीवन में एक-एक डेग बढ़कर आप कुछ पाते हैं तो आप उस कुछ की कीमत भी जानते हैं मगर अचानक कुछ मिल जाने पर आदमी जैसे पागल हो जाता है ना वैसे झारखंडी नेता और उनकी चांडाल-चौकड़ी पगलाई हुई है……और वो किसी विक्षिप्त की भांति और-और-और इस तरह “सब कुछ” को अपनी अंटी में धर लेने को आतूर है……सब कुछ लूट लेने को हवशी है……उसे इस पागलपन के सिवा कुछ और नज़र ही नहीं आता…इसलिए बाहर से देखने पर इस तन्त्र में मल-मूत्र-विष्ठा-गंदगी और वीभत्सतता के अलावा कुछ दिखायी नहीं देता……इस चौकड़ी का प्रत्येक व्यवहार एक दंभ,एक सनक,एक अहंकार,एक क्रपणता,एक अहनमन्यता और यहां तक कि एक राक्षसी वृत्ति बन चुका है जो सबको हजम कर लेना चाहता है……!!

झारखंड को बनाने की लड़ाई में अपना सब-कुछ त्याग कर जंगल-जंगल घूम कर भूखे-प्यासे भी रहकर गुरुजी की उपाधि पाने वाले महापुरुष तक भी अपना समुचा “सत”इसी लोभी सत्ता की चाह में खोकर अपना समस्त “चरित्र” खोकर लुट-पिटा कर एक निस्तेज और बिल्कुल एक लम्पट आम और नौसुखिये नेता की तरह बर्ताव कर रहे हैं……कल को कोई पूछे अगर कि झारखंड में “गुरुजी” किनको कहा जाता था…तो हमारे बच्चे भला क्या जवाब देंगे……यह सोचकर भी कोफ़्त होती है……यह झारखंड का एक सबसे बड़ा का दर्द है……काश कि इसे “गुरुजी” खुद या उनकी कोई संताने पह्चानें……बेशक कोई व्यक्ति एक जान लड़ा देने वाला समर्पित सेनानी हो सकता है मगर यह कतई अनिवार्य नहीं कि वो एक बेहतर शासनकर्ता भी साबित हो……क्रान्ति की आग कोई और ही बात होती है साथ ही शासन चलाने की योग्यता एवम दूरदर्शिता एक बिल्कुल अलग और दूसरी ही बात……क्रान्तिधर्मिता का प्रबन्धन और शासन का प्रबन्ध भी इसी तरह दो अलग-अलग चीज़ें हैं। और जरूरी नहीं कि कोई एक इन्सान दोनों ही बातों में होशियार हो……हो भी सकता है और नहीं भी……!!

किन्तु यह हश्र भी तो कमोबेश सभी जगह दीख पड़ रहा है,कहीं कम तो कहीं ज्यादा……63 सालों में घोटालों में गयी कुल रकम शायद देश के विकास में खर्च की जाने वाली रकम से ज्यादा ही बैठेगी तिस पर गिरते चरित्र का मुल्यांकन करें तो देश को हुआ नुकसान अत्यन्त भयावह मालूम प्रतीत होगा…शायद चरित्र नाम की कोई वस्तु का अस्तित्व ही नहीं बचा है अब…आने वाली पीढी को यह समझा पाना भी कठिन होगा कि शब्दकोष में इस नाम का भी एक शब्द हुआ करता था…जिसका अर्थ फलां-फलां था मैं सोच रहा हूं क्या उपमा से इसे चिन्हित किया जायेगा…!!अगर समाज का कोई भी सदस्य यह सोचना तक छोड़ दे कि मेरा चरित्र भी कायम रह जाये…और समाज का सिर भी गर्व से उन्नत हो जाये…तो फिर समाज का क्या होगा…??क्योंकि आखिरकार सारी चीज़ें तो पहले कल्पना में ही आती हैं साकार तो आदमी उन्हें बाद में करता है…और विवाद भी बाद की ही बात है…मगर कहीं कोई कल्पना-प्रश्न-विचार-कर्म ऐसा कुछ भी नहीं तो फिर क्या हो…किसी प्रकार की कोई गति हो तब ना आगा या पीछा हो…!!

और झारखंड की जनता……जिसने मल-मुत्र-विष्ठा और गन्दगी में रहने को ही अपनी नियति मान लिया है तो फिर उसे इस पतन से बाहर भी कौन निकाल सकता है,कोई उपर से थोड़ा ना आता है कोई सुरते-हाल बदलने के लिए……खुद समाज को ही उठ खड़ा होना होता है……मगर यहां तो बोलने वाले बोल रहे हैं,लिखने वाले लिख रहे हैं और मीडिया के विरोध के तमाम स्वरों के बावजूद भी नोचने वाले जी भर-भर कर राज्य का सब कुछ नोच रहे हैं,व्यवस्था का चीरहरण कर रहे हैं और लोकतंत्र के साथ अमानुषिक गैंगरेप……!!……देशद्रोही होने की हद तक कमीनापन तारी है जिनपर……और देशद्रोही कहे जाने पर आसमान सर पर उठा लेने वाले…कुत्तों से गये गुजरे हुए जा रहे हैं(सारी कुत्तों मैं आपकी वफ़ादारी की तुलना एक निहायत ही धोखेबाज जीव से कर रहा हूं)और कुत्तों की टेढी पूंछ से तुलना करने पर संसद तक भंग कर देते हैं…सड़कों पर तांडव मचा रहे हैं…चैनलों पर हो-हल्ला कर रहे हैं…निजी अहंकार का वीभत्स रूप हैं ये लोग……सत्ता…सुरा…सुन्दरी…सम्पत्ति…बस यही ध्येय है जिनका……जिसे वे अपने मातहतों…सम्बंधियों …दोस्तों की चांडाल-चौकड़ी की मदद से घृणिततम रूपों से पूरा कर रहे हैं……और इन शैतानों को…इन राक्षसों को…प्रकारांतर से हरामखोरों को…देशद्रोहियों को जनता ढो रही है…ढोए ही जा रही है…और यहां तक कि इन्हीं हरामखोरों को जीता-जीता कर फिर-फिर-फिर से संसद और विधानसभा भेजे जा रही है…मेलों-ठेलों और जुलुसों की शक्ल में…हर जगह कोई ढपोरशंख कोई ना कोई महत्वपूर्ण पद संभाले हुए है…गठबंधनों ने सबकी चांदी कर दी है……जिसकी कोई औकात नहीं है वह भी सबको ऐसा नचा रहा है कि भाग्य नामक चीज़ का अहसास होने लगा है…!!

अब तो गोया किसी स्ट्रींग आपरेशन का भी कोई अर्थ नहीं दिखता…क्योंकि सब कुछ तो अब ऐसे खुले खाते की तरह होता है जैसे मानो किसी को किसी का कोई भय ही नहीं हो…जनता की आंखे और दिमाग का कैमरा एकदम से बन्द है…देश का एक वर्ग हरामखोरी की फ़सल से सुख-ऐशो-भोग के नशे में खो रहा है तो दूसरी ओर देश का हर बच्चा,जवान,प्रौढ और बूढ़ा बड़े मज़े-मज़े में चैन की नींद सो रहा है…जो शायद तब जागेगा तब जब इसके प्रत्येक सदस्य का घर-बार लुट-पिट चुका होगा…।इसकी सारी मां-बहनों-पत्नियों का बदन नुच चुका होगा…नग्न और बेसहारा औरतें अपने बदन पर गन्दे-से-गन्दे घृणिततम वीर्य के कतरे देखती हुई उबकाई रहेंगी मगर अब कोई ऐसा शिशु नहीं जनेगी जो देश की सोचता हो…देश के लिये रोता हो…देश के लिये सब कुछ करता हो…कि देश पर ही मर जाता होओ…!!!!
बुधवार, 12 मई 2010

बहुत भूखा हुं मैं……!!

बहुत भूखा हूँ मैं/इस धरती का सारा अन्न/मेरे पेट में झोंक दो...
उफ़ मगर मेरी भूख मिटने को ही नहीं आती !
हर भूखे का हर निवाला भी मुझे खिला दो...
शायद तब कुछ चैन मिले इस पेट को....
मेरे जिस्म का बहुत सा हिस्सा अभी भी भूखा है
ये झरने-नदी-तालाब-पहाड़-जंगल-धरती-आसमान
ये सब के सब मुझे सौंप दो.....
हाँ,अब जिस्म की हरारत को कुछ सुकून मिला है !!
अब तनिक मेरे जिस्म को आराम करने दो...
उफ़!!यह क्या ??अब मेरे जिस्म में...
कोई और आग भी जाग उठी है....
उसे मिटाने का कोई उपाय करो...
खूब सारी स्त्रियाँ लाओ मेरे जिस्म की तृप्ति के लिए...
अरे इतनी-सी स्त्रियों से मेरा क्या होगा....
देखते नहीं कि अभी-अभी मैंने कितना कुछ खाया है !!
जवान-प्रौढ़-वृद्ध-बच्चियां-शिशु सब-की-सब....
दुनिया की सारी मादाएं लाकर मेरी गोद(जांघ)में डाल दो....
एय !!कोई एक पैसे को भी हाथ नहीं लगाएगा....
संसार का समूचा धन सिर्फ और सिर्फ मेरे लिए है...
दुनिया के सब लोगों का सब कुछ लाकर मुझे दे दो....
असंख्य प्राणियों की समूची हंसी मेरे होठों को दे दो...
मुझे तुम सबसे कोई मतलब नहीं ओ धरती-वासियों !!
चाहो तो मर जाओ तुम सब अभी की अभी....
तुम नहीं जानते कि कितना-कितना-कितना भूखा हूँ मैं...
उफ़!!मेरी ये भूख मिट क्यों नहीं रही.....??
दो-दो-दो-दो.....मुझे अपना सब कुछ मुझे दे दो....
अंतहीन है यह मेरी पिपासा....अनंत है मेरी यह भूख...
उफ़!!मैं किस तरह अपनी भूख को थामूं....??
उफ़!!किस तरह से मुझ जैसे भूखों को....
इस पृथ्वी ने थामा हुआ है......???
रविवार, 9 मई 2010

ओ माँ....मेरी माँ....!!

मैं भूत बोल रहा हूँ..........!!
ओ माँ....मेरी माँ....
तेरा छाँव देता आँचल,
मुझे आज बहुत याद आ रहा है,
खाने के लिए गली में मुझे आवाज़ देता हुआ
तेरा चेहरा मेरी आँखों में समा रहा है....
मैं जानता हूँ..... ओ माँ
कि तू मुझे बहुत याद करती होगी...
मगर मैं भी याद तुझे कुछ कम नहीं कर रहा...
तेरा मुझे डांटता-फटकारता और साथ ही
बेतरह प्यार करता हुआ मंज़र ही अब मेरा
साया है और प्यार भरी मेरी छत है !
दूर-दूर तक पुकारती हुई तू मुझे
आज भी मेरे आस-पास ही दिखाई देती है !
मुझे ऐसा लगता है अक्सर कि-
मैं आज भी तेरी गोद में तेरे हाथों से
छोटे-छोटे कौर से रोटियाँ खा रहा हूँ,
तेरे साथ कौन-कौन से खेल खेल रहा हूँ,
तेरी सुनाई हुई अनजानी-सी कहानियां
आज भी मेरे कानों से लेकर
मेरे दिल का पीछा करती हुई-सी लगती है !!
सच ओ माँ....मैं तुझे
बेहद याद करता हूँ....बेहद याद करता हूँ....!!
माँ मुझे पता है कि तेरा आँचल आज भी
मुझे छाँव देने के लिए छटपटाता है और मैं-
ना जाने किस-किस जगहों पर
किन-किन लोगों से घिरा हुआ हूँ....
मैं नहीं जानता हूँ ओ माँ-
कि तू किस तरह मेरा पीछा करती है??
मगर मैं जान जाता हूँ कि तू
किस समय किस तरह से याद कर रही है,
तेरी यादों का तो मैं कुछ नहीं कर सकता....
तेरे दिल के खालीपन को भरना भी तो
अब मेरे वश की बात नहीं है,
मगर सच कहता हूँ ओ माँ-
जब भी तू मुझे याद करती है,
मैं कहीं भी होऊं....अपने अंतस के
पोर-पोर तक तक भीग जाता हूँ
और इस तरह से ओ माँ
मैं आकर तुझमें ही समा जाता हूँ....!!
शनिवार, 1 मई 2010

किसी से कुछ कहना ही क्या है !!

मैं भूत बोल रहा हूँ..........!!

किसी से कुछ कहना ही क्या है !!

किसी से कुछ कहना ही क्या है !!
किसी ने किसी से कुछ कहा और झगडा शुरू,
तो फिर कहना ही क्यूं है,किस बात को कहना है-
कहने में जो अर्थ हैं,गर उनमें ऐसी ही अशांति है,
तो फिर कहना ही क्यूं है,किस बात को कहना है-
कहने में जो आसानी हुआ करती थी कि-
कुछ चीज़ों-लोगों-जीवों-स्थानों के नाम जाने जा सकते थे,
नाम उनकी शक्ल की पह्चान करा देते थे;
बता दिया जाता था अपना हाल-चाल और
दूसरे का हाल भी जाना जा सकता था कुछ कहकर;
कुछ कहने का अर्थ बस इतना-सा ही हुआ करता था कि-
एक-दूसरे को किसी भी प्रकार के खतरे से
आगाह किया जा सकता था और
एक-दूसरे से प्यार भी किया जा सकता था कभी-कभी !!
कुछ कहने से एक सामाजिकता झलकती थी और
एक प्रकार के कुटुम्ब-पने का अहसास हुआ करता था !!
किसी एक के कुछ कहने से यह भी पता चल जाता था कि-
तमाम आदमी दर-असल एक ही इकाई हैं और
देर-अबेर यह धरती की अन्य तमाम प्रजातियों को-
अपनी ही इकाई में समाहित कर लेगा;
अपने-आप में छिपे विवेकशीलता के गुण के कारण !!
मगर इस देर-अबेर के आने से पहले ही-
कु्छ कहना बुद्धि हो गयी और
बुद्धि का समुच्चय एक ज्ञान और संचित ज्ञान-
एक भारी-भरकम एवम एक ठोस अहंकार-
एक ठ्सक-एक तरेर-एक ठनक इस बात की कि-
मैं यह जानता हूं,जो तू नहीं जानता ;
….…कुछ कहने का मतलब तो तब होता था जब
हम यह कहते थे कि यह हम जानते हैं मगर
अकेले हम ही जान कर करेंगे भी क्या-
ये ले,इसे तू भी जान ले;और इस तरह
श्रुतियों के द्वारा ज्ञान बंटा करता था सबके बीच
और बंटता ही चला जाता था और जनों के बीच
सब लोगों के ही बीच्…
अब तो बडी मुश्किल-सी हुई जाती है
अब तो हम यह कह्ते हैं कि
यह मैं ही जानता हूं सिर्फ़ और मैं नहीं चाहता कि-
कहीं गलती से तू भी इसे जान ना ले;
कहीं तू ही मुझसे आगे नहीं बढ जाये
मुझसे कुछ ज्यादा जानकर
असल में मैंने तुझे गिराकर आगे बढ्ना है
……अगर जानना ऐसी ही घिनौनी चीज़ है,
तो फ़िर थू है ऐसे जानने पर
फ़िर झगड़ा होना ही ठहरा;क्योंकि
कहने में सादगी और सरलता ही कहां भला
दर्प है,अहंकार है,तनाव है और बेवजह का झगड़ा !!
अलबत्ता तो कोई किसी से कुछ कहता ही नहीं सीधी तरह
और जो किसी ने किसी से कुछ कहा तो झगड़ा शुरू
तो फ़िर कहना ही क्या है,
किस बात को कहना है आखिर……!!
 
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