भारत का संविधान

"हम भारतवासी,गंभीरतापूर्वक यह निश्चय करके कि भारत को सार्वभौमिक,लोकतांत्रिक गणतंत्र बनाना है तथा अपने नागरिकों के लिए------- न्याय--सामाजिक,आर्थिक,तथा राजनैतिक ; स्वतन्त्रता--विचार,अभिव्यक्ति,विश्वास,आस्था,पूजा पद्दति अपनाने की; समानता--स्थिति व अवसर की व इसको सबमें बढ़ाने की; बंधुत्व--व्यक्ति की गरिमा एवं देश की एकता का आश्वासन देने वाला ; सुरक्षित करने के उद्देश्य से आज २६ नवम्बर १९४९ को संविधान-सभा में,इस संविधान को अंगीकृत ,पारित तथा स्वयम को प्रदत्त करते हैं ।"

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मंगलवार, 31 अगस्त 2010

koi sheershak nahin...........

जिन्दगी है कि क्या है....!!
कभी रेत के टीलों को बुहारती हुई
कभी जंगल की घास-फूस को समेटती हुई 
जिन्दगी चली ही जा रही है 
मेरे क़दमों के निशाँ को निहारती हुई 
बिल्ली की पदचाप की तरह बेहद चुपचाप 
इक साए की तरह मेरे जिस्म के साथ 
चिपकती हुई चल रही है हर पल 
और मौत भी मेरे ही संग 
चल रही है अपना आँचल संभालती हुई 
चिड़िया की तरह फुर्र हो जायेगी 
एक दिन कमबख्त यह मस्तानी जिन्दगी 
"सोच" फिर भी दाने चुग रही है मेरे मन में 
हर सांस में मेरे ख्यालों को निखारती हुई 
कभी अवसर ही नहीं देती मेरे पावों को दौड़ने का
खुद को मुझपर सवार कर चलाये जाती है 
जिन्दगी के सीने में गम का कोई घर नहीं है कहीं
वो चली आ रही है जिन्दगी 
आज फिर मुझे मेरे गमखाने के
हर कमरे से बाहर निकालती हुई 
कभी आगे धूप और पीछे साया
कभी पीछे धूप और आगे साया 
कभी तो सर के ऊपर 
खडा है सूरज फुफकारता हुआ  
कभी निगल जाता है सिर 
समूची धूप पूरी-की-पूरी  
और तब भीतर से निकल पड़ती है 
गर्मी अपने पाँव पसारती हुई !!
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एक तड़पता हुआ हुआ मैं जुनूँ हूँ !!  
उफ़ ये आसमान से कैसी आग बरस रही है 
गुस्से से ये जमीन रो-रोकर फफक रही है 
एक तड़पता हुआ हुआ मैं जुनूँ हूँ  
मेरी आवाज़ मेरे गले से निकल कर 
इस तड़पती हुई सड़क पर बिछ रही है 
मेरे रहनुमाओं का नारा है शाईनिंग-शाईनिंग 
और इस कठोर अँधेरे में जाने कितनी ही 
बेबस-लचर जाने पिस रही है,कलप रही है
एक तड़पता हुआ हुआ मैं जुनूँ हूँ !! 
कोई गुस्सा या जज्बा कहीं भी नहीं है 
बस इक कैरियर के लिए ये आँखें थक रही है 
पत्थर की तरह होता जा रहा है अब जीना 
जीने की प्यास रूह के भीतर कलप रही है 
सांस लेना ही अगर जिन्दगी जीना कहा जाता हो 
तो हाँ,भारत माता भी जी रही है,जी रही,जी रही है !!
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चारों तरफ देख ये कितना विकराल है सूखा 
मगर इस देश के किसान से ज्यादा 
इस देश का सांसद और विधायक है भूखा....!!
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जिन्दगी को किसी ने नहीं देखा ना....???
जिन्दगी अगर इक घाव है तो फिर 
सारे अहसास भी मवाद बन जाते हैं 
जिन्दगी एक अभाव है तो फिर 
ये हाथ खुले-के-खुले ही रह जाते हैं 
जिन्दगी अगर तनाव है तो फिर 
तो हर व्यवहार एक तनी हुई रस्सी 
जिन्दगी अगर इक धोखा हो जाए तो 
जिंदगानी आग-ही-आग हो जाती है 
जिन्दगी हर वक्त बजता हुआ गीत तो नहीं है 
मगर संगीत तो कभी भी बज सकता है 
सब कुछ मन-माफिक कभी नहीं हुआ करता 
सूर कभी उलटे तार में भी पिरोए जा सकते हैं 
जिन्दगी को एक अभिव्यक्ति ही समझ लो ना 
कविता की तरह कह सकते हो अपनी जिंदगानी 
बीते हुए हर इक लम्हे को अपने घट में 
भर-भर कर जिन्दगी चली जाती है और 
तुम्हे एकदम से खाली कर जाती है 
आखिरी वक्त तक तुम मुट्ठी बांधे हुए हो अगर 
तो यह कसूर जिन्दगी का तो नहीं है 
जिन्दगी ने दिया है सबको कुछ-ना-कुछ 
और मौत से भी तो कोई आज तक बिछड़ा नहीं है....!!
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कैसे अच्छे शब्द लिखूं.....???
अभी-अभी बढ़ा लिया है इन्होने अपना वेतन 
कहते हैं इस वेतन से उनका काम नहीं चलता 
मैं सोचता हूँ उनके बीच यह समृद्धि कैसी है ??
कम वेतन में वो देश का हित नहीं कर पा रहे 
ज्यादा वेतन से वो देश का कितना अहित कर पाएंगे ??
देश की समूची समूची संपदा को जैसे 
कुछ उठाईगिरों ने आपस में बाँट लिया है !!
और बाकी संपदा को दे दिया है किराए पर कंपनियों को 
भविष्य तक मिल-बाँट कर खाने के लिए !!
दो कौड़ी का वेतन था जब इनका 
तब भी अट्टालिकाएं बना लेते थे ये पहरूए 
अब तो चाँद तक ऊँची इमारत बना लेंगे शायद !!
ये बेशर्म ऐसे हैं कि सब कुछ क़ानून-सम्मत बताते हैं
कुछ भी कहो तो संविधान के पन्ने पलट कर दिखाते हैं 
दो रुपये की चीज़ को ये बीस में खरीदे ये दो सौ में 
यह किसी का बाप भी नहीं बता सकता 
हर रोज़ ये ऐसी हज़ारों खरीदारी कर रहे हैं 
मगर कोई साला इन्हें चोर नहीं बता सकता !!
धोखा....धोखा....धोखा....और बस धोखा....
इनके खून में आखिर ऐसा क्या है 
जिस वीर्य से पैदा हुए हैं ये 
उसमें ऐसी घाल-मेल है क्या है ??
ए भाई.....!!
कोई एतराज मत करो इनके कारनामों पर 
मार डालेंगे ये तुम्हें कहकर देशद्रोही अभी 
हाँ दोस्तों सिर्फ माँ की इज्ज़त लूटने वाले 
भारत माता के वीर सपूत हैं......
और उन्हें रोकने की कुचेष्टा करने वाले हम सब 
महा-पापी....राक्षस और यहाँ तक कि देश द्रोही 
इस इतिहास को मैं किन शब्दों में व्यक्त करूँ...
कौन से अच्छे शब्द रचूँ....   
कैसे अच्छे शब्द लिखूं....!!!
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और कभी यूँ भी हो कि.......
तुम्हारे अहसासों में बीत जाए ये रात 
और सुबह को जिस्म में भरा हो उसांसों का ताप
जब उठूँ तो तुम्हारी आँखें मुझे देखती मिले  
और एक नया सवेरा देखूं उन नवीली आँखों से....... !!
==================================मैं भूत बोल रहा हूँ..........!!
सोमवार, 30 अगस्त 2010

main......भूत बोल रहा हूँ..........!

मैं भूत बोल रहा हूँ..........!!

इक पागलपन चाहिये कि चैन से जी सकूं…
सब कुछ देखते हुए इस तरह जीया ही नहीं जाता…।
मैं गुमशुदा-सा हुआ जा रहा हूं,
अपनी बहुतेरी गहरी बेचैनियों के बीच…
अच्छा होने की ख्वाहिश चैन से जीने नहीं देती…
और बुरा मुझसे हुआ नहीं जा सकता…
तमाम बुरी चीज़ों के बीच फ़िर कैसे जिया सकता है ??
और सब कुछ को अपनी ही हैरान आंखों से…
देखते हुए भी अनदेखा कैसे किया सकता है…??
अगर मैं वाकई दिमागी तौर पर बेहतर हूं…
तो लगातार कैसे अ-बेहतर चीज़ें जैसे
घटिया व्यवहार,घटिया वस्तुएं,
घटिया लोग,प्रेम से रिक्त ह्रदय
एक-दूसरे से नफ़रत से भरे चेहरे
और भी इसी तरह की कई तरह की…
असामान्य और अमान्य किस्म की बातें…
किस तरह झेली जा सकती हैं आसानी से…
और जो अगर इस तरह नहीं किया जा सकता है…
तो फिर कैसे निकाला जा सकता है यह समय्…
जो मेरे आसपास से होकर धड़ल्ले से गुजर रहा है बेखट्के
मुझे समझ नहीं आता बिल्कुल कि किस तरह
आखिर किस तरह से बिना महसूस किये हुए गुजर जाने दूं…
और अगर महसूस करूं तो सामान्य कैसे रह पाउं…??
इसिलिये…हां सिर्फ़ इसिलिये पागल हो जाना चाहता हूं…
कि सब कुछ मेरे महसूस हुए बगैर
मेरे आसपास तो क्या कहीं से भी गुजर जाये…

आंखे खुली रखते हुए अन्धा हो जाना कठिन होता है बड़ा…
आंखों के साथ आप लाठी पकड़ कर नहीं चल सकते…
और हम सब आज इसी तरह चल रहे हैं बरसों से…
अगर इसी तरह का अन्धापन हमें वाजिब लगता है…
तो सच में ही अंधे हो जाने में क्या हर्ज़ है…
इसी तरह का पागल्पन हमें भाता है…तो फ़िर
सच में भी पागल हो जाने में क्या हर्ज़ है…!!
मैं पागल हो जाना चाहता हूं.…
हां…सच मैं पागल हो जाना चाहता हूं…
कि चैन से जी सकूं…
कि मरने के बाद आकर यह कह सकूं…
मैं क्या करता या कर सकता था…
मैं तो जन्मजात ही पागल था…
दुनिया में सभी इसी तरह जी रहे थे…
एक पागल क्या खा कर कुछ कर लेता…!!??  
रविवार, 29 अगस्त 2010

kya kahun......??

मैं भूत बोल रहा हूँ..........!!

चीज़ें जब पढ़ते-सुनते-देखते हैं हम
 तो हमारी आँखें भी चमकने लगती हैं ना....??
जब कुछ अच्छा होता है हमारे सामने...
तो खुश हो जाते हैं हम.....है ना....??
अच्छाई अकसर हमारे दिल को कोई सुकून-सा देती है...है ना....??
अच्छाई हमारे भीतर ही कहीं होती है....ये भी सच है ना....??
फिर अच्छा होना हमारी तलाश क्यूँ नहीं होती....??
फिर अच्छाई हमारी मंजिल क्यूँ नहीं होती....??
हम क्यूँ है यहाँ....इस धरती पर दोस्तों....
अच्छाई अगर सचमुच हमारे भीतर ही कहीं है....
तो हमारे आस-पास का माहौल ऐसा क्यूँ है....
अगर हम सचमुच ही अच्छे हैं....
तो अच्छाई हम-पर हमेशा तारी रहनी ही चाहिए....
और हमारी इस अच्छाई से ये धरती हरी-भरी रहनी ही चाहिए....!!!
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सोमवार, 23 अगस्त 2010

धरती के उपर है एक और समन्दर....!!

मैं भूत बोल रहा हूँ..........!!


                                   धरती के उपर है एक और समन्दर....!!
                          शीर्षक देखकर बेशक थोडा अजीब लग सकता है मगर मेरे जानते धरती पर मौजूद उस समन्दर,जिसमें धरती का सत्तर प्रतिशत जल भरा है,के अलावा भी एक समन्दर है,जिसके बारे में हम जानते ही नहीं और शायद जानना भी नहीं चाहेंगे और इस समन्दर से धरती की एक बेहद छोटी-सी आबादी बडे भरे-पूरे ढंग से,जैसा कि वो अपने बाकी के अन्य साधनों के समुचित उपयोग करता है,उसी भांति वह इस समन्दर का भी अपने मन-माफ़िक इस्तेमाल करता है और मज़ा यह कि यह पानी उसे कभी कम नहीं पडता भले ही धरती की एक बडी आबादी पानी के आभाव में प्यासी मर रही हो या भले ही धरती के करोडों लोग (मर्द-औरत-बच्चे)अहले-सुबह मूहं-अन्धेरे ही पानी के जुगाड में मीलों दूर तक जा-जाकर अपने तसलों में पानी भर-भर लाते हैं,सौ-दो सौ सालों पहले ऐसा नहीं हुआ करता था मगर जबसे शहरीकरण का प्रकोप बढा और उद्योग-धंधों की आंधी आयी...और पानी का उपयोग एक आम आबादी के सम्यक उपयोग के उलट उपरोक्त लोगों(शहरी लोगों और उद्योगपतियों)की भेंट चढ गया.मज़ा यह कि लोगों की सभ्य जमात को पानी भी भरपूर चाहिये था मगर साथ ही इस पागल और मुर्ख समाज को पानी के तमाम श्रोतों को अपने पास रखे जाने से भी एलर्जी थी.इस करके पानी आदमी के आस-पास से दूर होता चला गया,मगर पानी के इस तरह दूर होने का कोई असर इस समाज को कभी नहीं भुगतना पडा,बल्कि इस छोटे से समाज की करनी,उसकी अंड-बंड आवश्यकताओं के पैदा पानी के अनाप-शनाप उपयोग के कारण एक बहुत बडी आबादी आज पानी की कमी से बेतरह त्रस्त है या पस्त है कहना ज्यादा समीचीन जान पड्ता है.
                आदमी का शुरूआती समाज अपनी आवश्यकता की वस्तुओं के स्त्रोतों के प्रति ना केवल सजग हुआ करता था,बल्कि उन स्त्रोतों के प्रति उसमें आदर का भाव भी हुआ करता था(भले आप यह कह लो कि यह आदर भय-जनित था!)और इस वजह से उस समाज ने इन स्त्रोतों की ना सिर्फ़ रखवाली ही की बल्कि उनका "उत्पादनभी किया,यहां तक कि उनकी पूजा भी की !!और आप जिनकी पूजा करते हो उसे अनदेखा कभी नहीं कर सकते,उसे लतिया कभी नहीं सकते अगर आप सच में उसकी पूजा ही करते हो !!इस प्रकार आज से सैंकडों बरस पूर्व तरह-तरह की चीज़ों के प्राक्रितिक स्त्रोत जगह-जगह बल्कि कदम-कदम पर पाये जाते थे और यही मनुष्य उनकी रक्षा किया करता था,यह बात हम दूर ना भी जायें तो घर में ही उपस्थित हमारे बुजुर्गों की सलाह माने तो संभव हो सकता है,जो आज भी चीज़ों के सम्यक (जितना आवश्यक हो बस उतना भर ही)की राय देते हैं,मगर "लोचातो यह है कि बहुत सारी अन्य चीज़ों की तरह पानी की उपलब्धता भी आदमी के एक छोटे से वर्ग को इतनी आसानी से हो चुकी है कि वह पानी का समुचित उपयोग तो भला क्या जाने...उसका समुचित मुल्य तक भूल गया है..यही वो बिन्दु है,जहां समस्या के जन्म का एक बहुत बडा कारण मौजूद है!
            शहरी-करण ने जिस तरह धरती के समस्त साधनों को एक छोटे से वर्ग को आप्लावित कर बाकि के सारे लोगों को उन साधनों से वंचित कर दिया है,उसी तरह पानी का भी यही हाल है.मालूम हो कि इस धरती के कुछेक हज़ार शहरों में कुछ करोड पक्के मकान हैं और कुछ लाख ऊंची-ऊंची ईमारतें और सबसे अहम कुछेक लाख होटल्स,जिनकी छतों के ऊपर छोटी और मध्यम से लेकर बडी-बडी विशालकाय तक टंकियां हैं,जिनमें एक बहुत बडा नहीं भी कहें,तो छोटा-मोटा समन्दर तो अवश्य ही है,जिसमें बिना-किसी रुकावट के इतने-इतने अधिक पानी की उपलब्धता है,एक बटन दबाया कि पानी नीचे से छर्र-छर्र-छर्र-छर्र ये जा-वो जा ऊपर....पेशाब किया....और छर्र...छर्र....छर्र....छर्र....बटन दबा...और फ्लश साफ़....एकदम चकाचक....मज़ा यह कि जितना आपने पेशाब नहीं किया है,उससे कई गुना पानी उसे बहाने के लिया बहा दिया आपने.....इस प्रकार पानी इन जगहों पर किस तरह उपयोग में आता होगा यह पानी,यह सचमुच शोध का ही विषय है,और यकीन जानिये यह मैने किया भी है !!
                    इस सामान्य से शोध में एक बडी सामान्य-सी बात उभरकर सामने आती है कि पानी की अत्यन्त आसान उपलब्धता के कारण शहर में जीने वाला एक सुविधाभोगी वर्ग पानी का एकदम ही नाजायज उपयोग करता है,रसोई,में बाथरूम में तथा अन्य जगह पर इसके द्वारा किया जाने वाला पानी का गैर-जायज उपयोग एकदम से चिंतनीय है,इनके बच्चे जिस तरह पानी का दुरुपयोग करते पाये जाते हैं उसे देखकर किसी को भी आश्चर्य हो जाए और तो और तमाम प्रकार के होटलों में इसी जमात के द्वारा किया जाने वाला अपव्यय एकदम से निन्दनीय है,किन्तु ना तो इस तरफ़ किसी का ध्यान ही जाता है और इस प्रकार ना ही इस सबको कोई रोकने या टोकने वाला ही है सच तो यह है कि दुनिया के तमाम शहरों के छ्त के उपर मौजूद इन टंकियों में भरे पानी की मात्रा किसी भी प्रकार से किसी समन्दर से कम नहीं ठहरेगी !!
             मगर शहरवासियों की सोच की महिमा भी अपरम्पार है क्योंकि पानी के संकट की बात आज से नहीं बल्कि बहुत समय से कही जा रही है,मगर शहर की ऊंची बिल्डिंगों में रहने वाले लोगों को शायद इस सबसे कोई सरोकार ही नहीं है,क्योंकि जिस प्रकार इस वर्ग की किसी प्रकार की सुविधा में कोई कटौती नहीं होती है,उसी प्रकार उनके द्वारा पानी के उपयोग में भी कोई कमी नहीं होती ! इस तरह हो यह रहा है कि एक तरफ़ सरकार और तरह-तरह के संगठन पानी कम-पानी कम चिल्लाए जा रहे हैं तो दूसरी ओर इस वर्ग द्वारा अपनी करनी द्वारा इसकी खिल्ली उडाए जा रहे हैं,मगर सच तो यह है कि यह सब अब बहुत ज्यादा दिन नहीं चलने को,क्योंकि आज न कल धरती के भीतर का पानी खत्म होने को ही है, अगर अब भी यह वर्ग नहीं चेता तो कल अपनी ऊंची-ऊंची बिल्डिंगों की खिडकियों में बैठे ये लोग पानी कम-पानी कम चिल्लाते रह जाएंगे और नीचे वाले लोग इनकी खिल्ली उडाएंगे कि और नाचो…और करो पानी की ऐसी की तैसी…अब हुई ना तुम्हारी ऐसी की तैसी…पानी का बेतरह अपव्यय करने वाले लोग पच्चीस-पचास लाख और करोडों रुपये में फ़्लैट और बंगले खरीदने वाले लोग जरा-सा और खर्च कर पानी की रिचार्जिंग कर इस समस्या को तक्ररीबन सदा के लिये टाल सकते हैं,मगर यह तभी सम्भव है जब इन्हें होश आये या फिर अक्ल आ जाये…वरना कभी अगर धरती ने अपनी दिशा बदली तो शायद मरुस्थल में भी पानी बरस जाये…मगर इन टंकियों का समन्दर कभी अगर सूख गया तो हमेशा के लिये मरुस्थल बन जायेगा…!!
                       
 
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