भारत का संविधान

"हम भारतवासी,गंभीरतापूर्वक यह निश्चय करके कि भारत को सार्वभौमिक,लोकतांत्रिक गणतंत्र बनाना है तथा अपने नागरिकों के लिए------- न्याय--सामाजिक,आर्थिक,तथा राजनैतिक ; स्वतन्त्रता--विचार,अभिव्यक्ति,विश्वास,आस्था,पूजा पद्दति अपनाने की; समानता--स्थिति व अवसर की व इसको सबमें बढ़ाने की; बंधुत्व--व्यक्ति की गरिमा एवं देश की एकता का आश्वासन देने वाला ; सुरक्षित करने के उद्देश्य से आज २६ नवम्बर १९४९ को संविधान-सभा में,इस संविधान को अंगीकृत ,पारित तथा स्वयम को प्रदत्त करते हैं ।"

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मंगलवार, 19 अक्तूबर 2010

भारत विश्व की एक महाशक्ति बन सकता है बशर्तें......!!!

मैं भूत बोल रहा हूँ..........!!

भारत विश्व की एक महाशक्ति बन सकता है बशर्तें......!!!

   इन दिनों तमाम पत्र-पत्रिकाओं में लगातार ही भारत के एक महाशक्ति बनने के कयास लगाये जाते हैं,महाशक्ति बन चुके और महाशक्तिमान अमेरिका को चुनौती देते चीन से उसकी तुलना भी की जाती है,मगर भारत की इस महत्वकांक्षा में सबसे बडा रोडा भारत खुद ही है और अगर यह देश अपनी कतिपय किन्तु महत्वपूर्ण खामियों को दूर करने का प्रयास नहीं करेगा तो महाशक्ति बनना तो दूर उसके धूल में मिल जाने की गुंजाईश ही ज्यादा लगती है !!आज हम इन खामियों का विश्लेषन ना भी करते हुए सिर्फ़ उन्हें चिन्हित करने का प्रयास भर करें तो भारत के महाशक्ति बनने की राह में कौन सी बाधाएं हैं,उन्हें जानकर दूर करने का प्रयास किया जा सकता है,मज़ा यह कि ये कमजोरियां इतनी खुल्लमखुल्ला हैं कि उन्हें आंख मूंदकर भी जाना जा सकता है,बशर्ते कि हम अपने भीतर ईमानदारी से झांकने को तैयार हों !!  
                पहला,भारत के राजनेताओं में देश के प्रति ममत्व का अभाव तथा दूरदर्शिता की कमी--विगत कई बरसों से यह देखा जा रहा है, तरह-तरह की खिचडी सरकारों ने अपने असुरक्षा-बोध के कारण देश के खजाने को निर्ममतापुर्वक तथा निहायत ही बेशर्मीपुर्वक ऐसा लूटा है,जिसकी की कहीं और कोई मिसाल ही नहीं मिलती तथा अपने इसी असुरक्षाबोध के कारण उन्होने अपने शासन के दौरान धन कमाने(कमाने नहीं बल्कि लूट्पाट करने)के बाद बचे-खुचे समय में भी बजाय शासन करने के एक-दूसरे की टांग-खिंचाई ही की है,सिर्फ़ विरोध के लिए विरोध...निन्दा के निन्दा ही जैसे उनका एकमात्र मकसद रह गया प्रतीत होता है.ऐसे में देश के लगभग सभी राज्यों की प्रशासनिक व्यवस्था प्रायश: चुल्हे में जा गिरी है,और आर्थिक व्यवस्था पर तो जैसे घून ही लगा जा रहा है,हर कोई बस अपना-अपना हिस्सा बांटने के लिए सत्ता में भागीदार बन रहा है और इसीलिए हर कोई हर किसी को अपना हिस्सा खाने में मददगार बनकर अपना हिस्सा सुरक्षित करने भर में आत्मरत है,तो फिर ऐसे देश,जिसकी सभी व्यवस्थाओं का जहां उपरवाला ही मालिक है,के महाशक्ति बनने की कामना या स्वप्न एक हंसी-ठठ्ठे से ज्यादा और कुछ नहीं लगता....!!
                दूसरा ,भारत के व्यापारी वर्ग की भयंकर आत्मरति भरी बनियावृत्ति --भारत का व्यापारी वर्ग,चाहे वो किसी भी जात-वर्ग या धर्म-विशेष का ही क्यों ना हो,उसकी वृत्ति आज भी प्राचीन काल की तरह आत्मलीन-आत्मरत और स्वार्थ से ओत-प्रोत रहते हुए अपने हितों की रक्षा करने हेतु शासक-वर्ग की चिरौरी करना और उसके तलवे चाटना भर है.इस स्थिति में आज इतना फ़र्क अवश्य आ गया है कि इस ग्लोबल युग में बडे-बडे उद्योगपति सत्ता की वैसी चिरौरी नहीं करते,बल्कि सरकारों को अपने राज्य और देश के विकास के लिए उन उद्योगपतियों की राह में आगे चलकर फूल बिछाने पडते हैं,मगर इससे इस स्थिति में अलबत्ता कोई फ़र्क आ गया हो,नहीं दिखाई देता...क्योंकि आज के दौर में सत्ता और बडे व्यापारी और उद्योगपति एक-दूसरे के पूरक बन चुके हैं,दोनों ही एक-दूसरे का खूब दोहन करते हैं और इसका परिणाम कभी नंदी-ग्राम,सिंगूर तो कभी उडीसा-झारखंड के विभिन्न हिस्सों में पैदा हुई हिंसा के रूप में दिखाई देता है,इसका अर्थ यह भी है कि भारत का सत्ता-तंत्र भारत के विकास में यहां के आम लोगों को विश्वास में लेने का हिमायती नहीं है और यदि ऐसा है तो भी आने वाले दिनों में तरह-तरह के विरोध के स्वर की अनुगूंज और हिंसा का वातावरण दिख पडने वाला है,जिसके मूल में होगा इन्हीं बनिया लोगों का क्षूद्र स्वार्थ और लालच,जिसे देश के विकास का जामा पहना कर आम जनता का हक छीनते जा रहे हैं ये कतिपय लोग !!
                 तीसरा,विकास की किसी समुचित अवधारणा का नितान्त अभाव-- भारत के विकास में किसी भी भारतीय में विकास का कोई खाका,कोई मानचित्र,कोई रास्ता,कोई सोच या किसी भी किस्म की समुचित अवधारणा का सर्वथा अभाव है.या यूं कहूं कि भारत कैसा हो ,ऐसा कोई सपना भारत के किसी नागरिक के मन में पलता हो,ऐसा दिखाई नहीं देता,या कम-से-कम इसके जिम्मेवार नेताओं में तो बिल्कुल भी नहीं,और मिलाजुला कर कोई एक खाका खींच पाने को कोई व्यक्ति,समूह तत्पर हो,ऐसा भी देखने में नहीं आता !बस विकास-विकास का रट्टा चल रहा है हमारे चारों तरफ़,कि इसको बुला लो,उसको बुला लो...लेकिन यह तय नहीं है कि कैसे,कितना कितने समय में और क्या करना करना है,यह कोई नहीं जानता कि कितने प्रतिशत खेती करनी है,उस खेती के लिए उसके साधनों का क्या-कितना-कैसा विकास करना है और विकास की इस अवधारणा के चलते जो अहम चीज़ पीछे छूट जाती है वो यह है कि इसका कोई अनुमान,आकलन या सरसरी तौर पर लिया गया कोई आंकडा तक नहीं है कि जिस विकास के लिए उपजाऊ खेतों को यानि कि किसानों की रोजी-रोटी के एकमात्र साधन यानि कि [अभी के आकलन के अनुसार "सेज" की खातिर (प्रस्तावित जमीन)ली जाने वाली याकि छीनी जाने वाली जमीन के ऊपर प्रतिवर्ष दस लाख टन अनाज उपजाया जाता है !!]को छीनकर उसके बदले किए जाने वाले विकास का क्या मूल्य है,क्या गुणवत्ता है,क्या आयु है और क्या पर्यावरणीय नुकसान या फ़ायदे हैं,उनसे किनको और किस हद तक फ़ायदा है तथा देश के लिए,इसकी सामाजिक,आर्थिक और पारम्परिक स्थितियों के मद्देनज़र कौन-सा विकास सचमुच ही फ़ायदेमन्द है !!
                  चौथा,इस अदूरदर्शिता के कारण घट सकने वाले संकट को देख पाने में असमर्थता-- अपनी इस अदूरदर्शिता की वजह से पहले आओ-पहले पाओ की तर्ज़ पर बुलाए और निमंत्रित किए जाने वाले लोगों की बन आयी है और आने वाले लोगों की बांछे सरकारों की ऐसी तत्परता देख कर वैसे ही खिल-खिल जाती है,और वो काम को अमली जामा तो बाद में पहनाएं या कि पहनाएं कि ना पहनाएं,मगर तरह की शर्तें और डिमांड पहले धर देते हैं कि पहले ये दे दो-वो दे दो,ये फ़्री करो-वो फ़्री करो,इतनी जमीन चाहिए,इतनी बिजली,इतना पानी इतने सस्ते मज़दूर,इतनी दूर या पास और इस तरह का बाज़ार और "सेल" की गारंटी यानि इतनी सरकारी खरीदी की गारंटी....वल्लाह क्या बात है...सुभानल्लाह क्या बात है और ले देकर वही बात कि ये खान दे दो,वो खान दे दो...फ़ैक्टरी के नाम और स्थानीय लोगों को रोजगार देने के नाम पर ली गयी तमाम रियायतों के बावजूद होता ठीक इसका उलटा ही है,यानि कि कानून को धत्ता बताना,नियमों की धज्जी उडाना,कायदे-कानूनों को ताक पर धर देना...स्थानीय लोगों को रोजगार तो क्या,कभी फ़ैक्टरी के दर्शन तक नसीब नहीं हो पाते गांव-वालों को...क्योंकि यह सब सुगमतापूर्वक शायद भारत में ही संभव है !!
                  पांचवा,आम भारतीय जन की काहिली और गप्पबाजी की खतरनाक आदत-- यह एक मुद्दा हमें कोसों पीछे ढकेल सकता है अगर इसके प्रति हम सचेत नहीं हुए,कि हम आम भारतीय भौगोलिक कारणों से या फिर अपनी जन्मजात काहिली की आदत के कारण ऐसे ही आम-तौर पर काफ़ी पीछे धकेले दे रहे हैं और मज़ा यह कि हमारी यह आदत हमें तो क्या किसी को हमारी बूरी आदत के रूप में दिखाई नहीं देती !!भारतीयों की इस बुराई(या खूबी??)के चलते भारत को गपोडियों का देश भी कहा जा सकता है,वो भी ऐसा कि यहां का एक सडक छाप आदमी भी दुनिया के प्रत्येक विषय में गहन रूप से पारंगत प्रतीत होता है,जो शायद अन्यत्र दुर्लभ ही है,आम भारतीय की प्रवृत्ति उन्हें दरअसल मसखरा बना देती है,मगर शायद हमें इन मामूली बातों से कोई फ़र्क पड्ता हो ऐसा देखने को नहीं मिलता,मगर सच तो यह है कि काम के दौरान की जाने वाली व्यर्थ की बातों के कारण किस प्रकार मिनटों का काम घंटों में परिणत हो जाता है,इसे देखने का होश शायद अब तक किसी को नहीं है या फिर ये भी संभव हो कि इसे समस्या के रूप में देखा ही ना जाता हो,क्योंकि काम के प्रति सबका रवैया एक-सा ही है इसलिए सबकी कार्यशैली तकरीबन यही बन चुकी है,किन्तु गप्पबाजी की यह आदत कब कामचोरी में बद्ल जाती है इसका अहसास भी आम भारतीयों को नहीं है,इसीलिए किसी भी काम में लेट-लतीफ़ी समस्त भारतीयों की पेटेंट फ़ितरत है और इस फ़ितरत के रहते हुए महाशक्ति तो क्या क्षेत्रीय शक्ति बनने के आसार भी नज़र नहीं आते !!
         छ्ठा,विज्ञान के साथ आम भारतीयों का अलगाव--विज्ञान के साथ आम भारतीयों का अलगाव साथ भारत के पारम्परिक ज्ञान के साथ भारत के वैज्ञानिकों का दुराव-- किसी भी देश की प्रगति में समय के साथ कदम-ताल मिला कर चलने की प्रवृत्ति के साथ ही अपनी परम्परा से आयी हुई खास आदतों और विशेषताओं को सहेज कर रखना भी विकास की ही एक कसौटी मानी जाती है जबकि भारत के सन्दर्भ में इसका ठीक उल्टा ही होता प्रतीत होता है कि जहां यहां के लोगों में किसी भी प्रकार की वैज्ञानिक चेतना का अभाव है बल्कि यहां के  वैज्ञानिकों में भी भारत के बहुमुल्य पारम्परिक ज्ञान के प्रति कोई सम्मान का भाव नहीं है और मिलाजुला कर इन दोनों पक्षों की अज्ञान-पूर्ण सोच के कारण आम लोगों में  विज्ञान का प्रसार तथा खास लोगों में पारम्परिक चेतना का प्रसार होता नहीं दिख पड्ता और इस स्थिति के रहते भी सामंजस्य पूर्ण विकास कतई सम्भव होता नहीं दिखता,क्योंकि इस तरह से कोई कार्य अपने जमीनी रूपों में साकार होता नहीं दिख पड्ता,सोच की यह विषमता दोनों पक्षों में एक किस्म का दावानल ही है !!
         कुल मिलाकर हम यह पाते हैं कि-- सच में ही भारत की तरक्की की राह में खुद भारत ही यानि कि भारतीय ही सबसे बडी बाधा हैं और सवाल यह है कि क्या हम भारतीय अपनी इन कमियों को स्वीकारने को तैयार हैं?देश जैसी एक भावूक चेतना का पोषन करने के लिए अपनी निजता का हनन करना होता है,अपने स्वार्थों को परे धरना पड्ता है,खून और पसीना बहाकर दिन-रात एक करना होता है!!सवाल यह कि क्या हम भारतीयों में भारत के प्रति कोई आमूल सोच,कोई विजन,कोई सपना है!मगर उससे भी बडा प्रश्न तो यह है कि भारत के रहनुमाओं के पास भारत के लिए कोई दिशा है?कोई अध्ययन,कोई रोशनी है कि थोडी सी दूर तक भी भारत उस रोशनी में अपने पांव बढा सके!!इनके मन में ऐसा कोई सपना भी है,जिसे तिरसठ साल पहले इसे आज़ाद कराने वाले स्वतन्त्रता सेनानियों ने बोया था तथा कुछ  ने तो बडी सीधी सी राह भी दिखाई थी!! दरअसल सपने ही वो रोशनी होते हैं,जिसकी आंच में तपकर आदमी निखरता है और जिसके प्रकाश में विकास,या तरक्की जो जो कहिए,के भीने-भीने और सुगन्ध भरे फूल खिलते हैं,और भारत के मामले में भी यह सच निस्सन्देह ही उलट तो नहीं हो सकता !! 

मंगलवार, 12 अक्तूबर 2010

हां....गर्व से कहिए कि हम एक समाज हैं......!!

मैं भूत बोल रहा हूँ..........!!

  हां....गर्व से कहिए कि हम एक समाज हैं......!!                                

कभी जब भी मैं अपने आस-पास के समाज पर नज़र दौडाता हूं....तो ऐसा लगता है कि यह समाज नहीं....बल्कि एक ऐसी दोष-पूर्ण व्यवस्था है,जिसमें लेशमात्र भी सामाजिकता नहीं.....उदाहरण हर एक पल हमारे सामने घटते ही रहते हैं....इस समाज में जीवन-यापन के लिए नितांत आवश्यक चीज़ है आजीविका का साधन होना....और दुर्भाग्यवश यही आजीविका का सिस्टम ही ऐसा बना दिया गया है कि इससे बचने का कोई रास्ता भी नज़र नहीं आता....अब ये सिस्टम क्या है,ज़रा इस पर भी गौर करें...मगर इससे पूर्व यह भी देख लें कि पहले कम-से-कम भारत में क्या हुआ करता था....सदियों पहले व्यापार जब हुआ करता था...उसमें व्यापारी लोग किसान या उत्पादन-कर्ता से माल खरीद कर खुद उसे यत्र-तत्र ले जाकर बेचा करते थे....इस प्रकार लोगों को महज दो हाथों से होकर किसी भी तरह का माल उपलब्ध हो जाया करता था...इसका अर्थ यह भी हुआ कि किसी भी तरह का माल अपने उत्पादक हाथों से [उनके उचित लाभ को जोडकर]व्यापारी से होकर [पुन: उनके उचित लाभ को चुकाकर]छोटे शहरों के दुकानदारों के हाथों [उनका लाभ चुकाकर]उपयोग-कर्ताओं तक पहुंचता था...देख्नने में तो यह बात आज की परिस्थितियों जैसी ही जान पड्ती है....मगर वैसा है नहीं....यहां देखने वाली बात यह है कि...यहां कोई बिचौलिया आदि  का अस्तित्व नहीं दिखायी देता और साथ ही माल ढोने वाला ट्रांसपोर्टर खुद् व्यापारी ही हुआ करता था...इस प्रकार कम-से-कम दो जगह लाभ का बंट्वारा होने से बचता था....इसका अर्थ यह भी हुआ कि उपयोग-कर्ता तक कोई भी माल थोडी कम,या यूं कहूं कि वाजिब कीमत में,पहुंचता था,तो भी गलत नहीं होगा...मेरे द्रष्टिकोण से जिस समय इस वर्तमान किस्म का व्यापार का चलन ना हुआ होगा....व्यापारी भी उचित लाभ लेकर ही कीमत का निर्धारण किया करता होगा....कम-से-कम पुराने काल की कीमतों को जब हम आंकते हैं तो साफ़-साफ़ यह पता चलता है.....कि बहुत दूर तो क्या अभी हाल के सात-आठ दशकों पूर्व भी कीमतें बिल्कुल उचित हुआ करती थीं...और यह भी कि उस वक्त कीमत तय करने का सिसट्म बेहद पारदर्शी हुआ करता था....जहां अंतिम खरीदार को भी सभी जगह वितरीत हुए लाभों का पता हुआ करता था !!
                   आज अब जैसा कि सिस्टम बना जा रहा है....या कि बनाया जा रहा है...या कि बना दिया है...उससे यह साफ़ परिलक्छित होता है कि यह सिस्ट्म सत्ताधिकारियों-उत्पादन-कर्ताओं और बडे व्यापारियों की सांठ-गांठ रूपी व्यभिचार का सिस्टम है...जिसमें सरकार उत्पादनकर्ता या बडे रसूखदार व्यापारी को सब-कुछ करने की असीम छूट देती है...बदले में सरकार को पिछ्ले रास्ते से उसका "हिस्सा" पहुंच जाया करता है...और बेशक यह किसी को भी दीख नहीं पाता....यह सब इतना सुचारू है... नियमित है...प्रबंधित है....कि आम आदमी की तो क्या बिसात....अच्छे-अच्छों को भी इस सिस्टम में छिपे व्यभिचार का जरा भी आभास नहीं है....सिर्फ़ वो ही लोग इसे जान और समझ पाते हैं,जो इस सिस्टम से जा जुड्ते हैं....और इसकी कीमत चुकाते हैं... अरबों-अरबों लोग....क्या कोई जानता है...कि उसके हाथों तक पहुंचने वाली किसी भी वस्तु की उचित कीमत क्या होनी चाहिए..??
                             क्या किसी को इस बात का आभास भी है....बडी-बडी "बहु"-राष्ट्रीय कंपनियां...जो अपनी मोनोपोली द्वारा अकूत लाभ बटोरे जाती हैं,वो दरअसल हमें पता भी नहीं कि एक रुपये की लागत की वस्तु का मुल्य यानी कि एम.आर.पी. क्या तय कर सकती हैं...क्या आप में से कोई अंदाजा भी लगा सकता है...??नहीं....!!??.....तो फिर जान लीजिये आपके लिये यह कीमत कम-से-कम दस रुपये तो होगी ही....बीस रुपये तक भी हो सकती है....और किसी असामयिक परिस्थिति में [अर्थशास्त्र के अनुसार डिमांड बढ्ने पर वस्तुओं के मूल्य में ब्रद्धि होती है....और यह अर्थ-शास्त्र किन लोगों ने लिखा....??]पचास रुपये तक भी जा सकती है...और अकसर जाया भी करती है....!!
                     कहने को तो आदमी ने अपनी सुरक्शा के लिए इस समाजरुपी तंत्र का निमार्ण किया है....हम खुद भी समाज के रूप में स्वयं को शायद बेहतर समझते हैं....मगर....समाज अगर सच्ची ही समाज है....तो क्या वह अपने सदस्यों से इस तरह की लूट्पाट कर सकता है...??.....एक रुपये की वस्तु का इतना नाजायज मुल्य ले सकता है....मोनोपोली....बिचौलिए .....सरकारी कमीशन.....ट्रांसपोर्टर.....और आज का सबसे बडा खर्च विग्यापन....और सबसे बढ्कर इन ये सब मिलकर किसी भी वस्तु का मुल्य...इतना-इतना-इतना ज्यादा बढा देते है....कि आम आदमी को तो यह भी नहीं पता कि उसके द्वारा उसकी अथाह मेहनत से कमाए जा रहे जरा से रुपये से किया जाने वाला एक-एक रुपये का खर्च किस प्रकार कुछ थोडे से लोगों की संपत्ति में इजाफा किये जा रहा है.....!!!  

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गुरुवार, 7 अक्तूबर 2010

आदरणीय प्रधानमंत्री जी......................


आदरणीय प्रधानमंत्री जी,
                समुचे देशवासियों की और से आपको राम-राम (साम्प्रदायिक राम-राम नहीं बाबा !!)
                आदरणीय पी.एम. जी,अभी कुछ दिनों पहले आपका बयान देखा था अखबारों में लाखों-लाख किलो अनाज के सडने पर अदालतों द्वारा उसे गरीबों को मुफ़्त मुहैया कराये जाने के आदेश पर,जिसे पहले आपके परम आदरणीय मंत्रियों ने सलाह बतायी और फिर अन्य गोल-मोल बातें बताने लगे,आपने भी अदालतों को सरकार के नीतिगत मामलों में नसीहत ना देने की नसीहत दे डाली !लेकिन ऐसा कहते वक्त आपने एक क्षण के लिए भी यह नहीं सोचा कि अदालतों को क्या किसी पागल कुत्ते ने काटा है जो वह आये दिन बार-बार ऐसे मामलों पर आदेश या राय देती है जो असल में सरकारों को करना चाहिए,मगर दुर्भाग्यवश वो करती ही नहीं...अभी अभी मैनें एक जज को यह शेर कहते हुए सुना कि"उलझने अपने दिल की सुलझा लेंगे हम.....आप अपनी ज़ुल्फ़ को सुलझाईए...!!तब मेरा भी कुछ कहने को जी चाहने लगा और मैं आपको यह पत्र लिखने बैठ गया !!
                           "वो नहीं सुनते हमारी,क्या करें....मांगते हैं हम दुआ जिनके लिए....चाहने वालों से गर मतलब नहीं....आप फिर पैदा हुए किनके लिए" ये दोनों शेर मेरे लिए ऐसे हैं जैसे वोट देते हैं हम सभी जिनके लिए......और अपनी ही जनता से गर मतलब नहीं...आप फिर पैदा हुए......तो आदरणीय श्री पी.एम.जी और केन्द्र तथा राज्य की सभी सरकारों के परम-परम-परम आदरणीय श्री-श्री-श्री सभी मंत्री-गण जी.....बात-बात में अदालतों के कोप से क्रोधित होने के बजाय आप सब अपनी बात-बात को,हर बात को अदालत में घसीटने के बजाय आपस में क्यूं नहीं सलटा लिया करते हो...ओटो वाले के भाडा बढाने की बात हो,बच्चों के नर्सरी में एडमिशन का सवाल हो,जन सामान्य की सुविधा के बस खरीदने का प्रश्न हो,ट्रैफ़िक व्यवस्था सुधारने का प्रश्न हो,फ़ुटपाथ दुकानदारों के हटाने का सवाल हो या उन्हें पुन: बसाने का प्रश्न,किसी कारखाने या किसी भी सरकारी योजना के कारण अपनी जगह से हटने वाले लोगों के पुनर्वास का प्रश्न हो या कि किसी भगवान आदि के जन्म-स्थल को तय करने जैसे एकदम से जटिल और किसी भी तरह की अदालत से बिल्कुल अलग रहकर या अदालतों को किसी भी हालत में उन मामलों में ना घसीट कर आपस में ही सर्वमान्य सहमति कायम करने के मामले हों.....हुज़ुरे-आला जरा जनता को यह बताने की कष्ट करेंगे कि इन मामलों में किसी भी किस्म का फैसला किसे करना चाहिये...??और अगर वो फैसले उन फैसलों को करने वाली अधिनायक ताकत नहीं कर पाती है तो क्यों...??तो फिर उस ताकत यानि उस सत्ता में बने रहने का हक क्यों है,उसने किस काम के लिए चुनाव जैसी चीज़ में येन-केन-प्रकारेण जीत पाकर कौन सा काम करने के लिए सत्ता में जाने का जिम्मा लिया है...??अपने किसी भी तरह के फैसले को जनता के बीच लागू करवाने की नैतिक ताकत इस सत्ता में क्यों नहीं है और इसके लिए उसे बारम्बार पुलिस और सैनिकों की आवश्यकता क्यों है...??अपनी हर बात को किसी सैनिक-शासक की तरह जबरिया लागू कराने की विवशता क्यों है...??...और अन्त में यह कि तरह-तरह की तमाम बातों को अदालतों में घसीट कर ले ही गया कौन है....किसी भी मुद्दे पर अपने द्वारा लिए जाने वाले फैसलों को अदालतों पर टाला किसने है....??
                  आदरणीय श्री पी.एम.जी और केन्द्र तथा राज्य की सभी सरकारों के परम-परम-परम आदरणीय श्री-श्री-श्री सभी मंत्री-गण जी अभी कुछ दिनों बाद ही दशहरा है,और आपको पता है कि ये अदालतें आपकी तमाम सरकारों को क्या आदेश या सलाह देने वाली हैं....वो कहने वाली हैं कि सडकों पर फ़ैले कचरे को उठाओ....बजबजाती नालियों को साफ़ करो भैईया...क्योंकि दशहरा और दुर्गा-पूजा देखने जाने वालों को कोई कष्ट ना हो....और फिर उसके कुछ दिनों बाद ही दीवाली और छठ आएगी और एक बार फिर ये अदालतें एक बार फिर उन्हीं लोगों को वही नसीहत देंगी और यह भी कहेंगी कि भैईया लोगों अब जरा तमाम नदी-तालाब-घाटों को भी साफ़ कराओ....तब प्रशासन की नींद खुलेगी और वो अचानक हरकत में आएगा....तो अदालतों के साथ-साथ मेरा और तमाम देशवासियों का भी आप सबसे यही सवाल है कि आप सब वहां क्यों हैं अगर आपको हर प्रशासनिक कार्य करवाने के लिए गहरी नींद से जगाना पडे...हर महत्वपूर्ण कार्य के लिए जनता को आंदोलन ही करना पडे...यहां तक कि आप ही के यहां काम करने वाले अपने वेतन या पेंशन के लिए अदालत तक जाना पड जाए...यहां तक कि आप किसी शिक्षक को पच्चीस-पच्चीस बरस तक वेतन ही ना दो....उसका लाखों-लाख रुपया आपके पास बकाया हो और उसके बाल-बच्चे भूखे मरें....और तो और....जो काम आप सब करो उसमें भी बस ही अपना वारा-न्यारा कर डालो.....जनता के लिए किए जाने वाले कार्य में जनता का धन खुद ही डकार जाओ....और जनता को खबर भी ना हो....यही नहीं भूखी मरती हुई जनता के लिए भेजी गयी सहायता राशि की बंदरबांट कर लो...और जनता कलपती हुई मर जाए....धरती के उपर के और नीचे के तमाम कच्चे या पक्के माल या साधनों की बंदरबांट कर लो....और वहां रहने वाले गरीबों को हमेशा के लिए बेदखल कर दो.....वो जीये चाहे मरें....तुम्हारी बला से.....क्योंकि तुम विकास चाहते हो....क्योंकि उस विकास में ही दरअसल तुम सबका "विकास" है !!??
                         आदरणीय श्री पी.एम.जी आप आज की तारीख में सबसे ईमानदार पी.एम कहे जाते हो......किन्तु सरकार मुझे इस बात से तनिक भी इत्तेफ़ाक नहीं है...क्योंकि अगर आपकी  नाक के एन नीचे यह सब चलता होओ....आपके अगल-बगल के समस्त मंत्रीगण बिना किसी लाभकारी व्यापार या व्यवसाय के करोडपति हों,अरबपति हों....और आपकी भुमिका उसमें कतई नहीं...ऐसा कोई पागल भी नहीं मान सकता....और तो और आपके खुद के कार्यकाल में लगातार यही सब हो रहा होओ,जो पिछ्ले साठ-बासठ बरसों से होता आया है....तो मुझे आप यह तो बताओ कि क्यों नहीं इस सबमें आपकी भुमिका को संदिग्ध माना जाये.....यह तो एक अल्बत्त मज़ाक है कि एक ऐसी सरकार,जिसके सब लोग धन के समन्दर में गोते-पर-गोते खाये जा रहे हों,उसका मुखिया किनारे खडा होकर यह कह रहा होओ....कि हम तो बिल्कुल नहीं भीगे जी....हमें तो छींटे पडे ही नहीं.....पता आपको इस किस्म की बेहुदी बातें कौन लोग करते हैं.....भांड लोग...भांड....!! लेकिन यह भी बडा मज़ाक है कि यह बातें मैं किससे कर रहा हुं....उससे, जो किसी के प्रति जवाब-देह ही नहीं....कम-अज-कम जनता से तो नहीं ही...जिसने अपने सब कार्य-कलापों का चिट्ठा सिर्फ़ एक उस व्यक्ति को देना है,वो खुद भी किसी महत्वपूर्ण सरकारी पद पर नहीं बैठा हुआ होने की वजह से किसी के प्रति जवाब-देह ही नहीं....कम-अज-कम जनता के प्रति तो नहीं ही...बेशक वो ना केवल पी.एम. पद को अपितु सभी मंत्रालयों को अपनी मर्ज़ी के अनुसार चलाता होओ...अरे-रे-रे ऐसा मैं नहीं कहता...बल्कि सब कहते हैं और मैं सुनता हूं..और ऐसा मानने में मुझे कोई हिचक नहीं होती कि शायद ऐसा हो भी...जो तकरीबन दिखाई भी देता है...जो शायद गलत नहीं भी है....तो यह भी एक मज़ाक ही है देश के प्रति कि देश को चलाने वाला प्रधानमंत्री एक ऐसा व्यक्ति है जो संसद या देश के प्रति जवाबदेह ना होकर अपनी पार्टी के प्रति जवाबदेह है....और उसकी पार्टी को चलाने वाला मुखिया चुकिं सरकारी ओहदे पर नहीं है,इसलिए वो भी संसद और देश के प्रति अपनी जवाबदेही से च्यूत है.....अगर ऐसा ही है सरकार....तो हम सब भी पागल ही तो हैं...जो जगह-जगह शोर मचाते हैं....हज़ारों पन्ने काले करते हैं....और तमाम मंत्रियों की खुदगर्ज़ जिन्दगी में दखल देने की गैरजिम्मेदाराना हिमाकत करते हैं....अगर देश के तमाम लोग भी ऐसे ही हैं...मैं खुद भी ऐसा ही हूं....तो यह सब बातें तो विधवा का विलाप ही हैं....सो इस विलाप के लिए मुझे माफ़ करें....इस बात-बहस के लिए मुझे माफ़ करें...सरकार सच कह रहा हूं,मुझे माफ़ करें !!
-- http://baatpuraanihai.blogspot.com/
शनिवार, 2 अक्तूबर 2010

विभिन्न धर्मों के लोगों में से एक इंसान की आवाज़....!!

मैं भूत बोल रहा हूँ..........!!
                   पिछले दो दिनों से सोच रहा हूँ कि इस विषय पर लिखूं कि ना लिखूं....ऐसा यह विषय,जो शोध का है,पुरातत्व का है,इतिहास का है,वर्तमान का है,भविष्य का है,आस्था का है,कर्तव्य का है,दायित्व का है,भाईचारे का है,बड़प्पन का है,सौहार्द का है,धर्म का है,देश की शान्ति का है,आपस में मिलकर रहने का है....और हम चाहें तो यह अब न भूतो ना भविष्यति वाली मिसाल का भी हो सकता है...मगर अहम भला ऐसा क्यूँ होने देंगे...!!पांच-सौ साल से लटके हुए एक मुद्दे पर किसी कोर्ट ने एक फैसला दे दिया है.....जिसके लिए उसने हज़ारों तरह के साक्ष्य,पुरातात्विक प्रमाण,गवाहियां और ना जाने क्या-क्या कुछ देखा है,समझा है...इस प्रकार एक किस्म का गहनतम शोध किया है हमारे न्यायाधीशों ने इस विषय पर...और तब ही उन्होंने आने वाले भविष्य को ध्यान में रखते हुए...भारतीय-जनमानस और उसकी हठ-धर्मिता की संभावना को भांपकर यह फैसला लिया है....कभी-कभी क़ानून भी परिस्थितियों के मद्देनज़र फैसला लिया करता है...बेशक आप उसे गलत ठहरा दें...मगर जो मामला आप उसके पास ले जाते हैं....जरूरी नहीं कि उसमें क़ानून की बारीकियां ठीक उसी तरह काम करें...जिस तरह वो अन्य भौतिक मामलों में काम करती हैं...और अगर ऐसा ही आसान मामला आप इस राम-जन्म-भूमि मामले को समझते हो तो आपको गरज ही क्या थी इसे कोर्ट ले जाने कि...और आपने अगरचे कहा था कि आप कोर्ट का कोई फैसला आये उसे मानने के लिए बाध्य होगे....तो अब क्या सुप्रीम-कोर्ट-सुप्रीम कोर्ट की रट लगा रहे आप....??
                   सबसे पहली बात तो यह कि जिन लोगों का यह कहना है कि यह फैसला आस्था के आधार पर दिया गया है...उनसे कुछ बिन्दुओं पर दृष्टि डालने पर जोर दूंगा(१)हम सब अपने लिखित और अलिखित इतिहास से यह जानते हैं कि हिन्दुओं के आराध्य भगवान् राम का जन्म अयोध्या में हुआ है...और हमारे सारे पौराणिक ग्रन्थ इस बात की तस्दीक करते हैं...भले आप धर्म-निरक्षेप-वादियों और अन्य धर्मावलम्बियों की दृष्टि में एक मज़ाक हो,थेथरई हो,हठ-धर्मिता हो,या बेबुनियाद आस्था ही हो,जो भी हो...मगर एक मात्र सत्य तो आपको मानना ही पडेगा कि अयोध्या ही भगवान् श्री रामचंद्र जी की जन्म-भूमि थी और चूँकि थी,इसीलिए है और रहेगी...और यह भी सच है यह भूमि अयोध्या के किसी और स्थान पर नहीं मानी जाती इसीलिए अवश्य ही यही रही होगी...अगर राम जी पता होता कि भविष्य में किसी गैर-धर्मावलम्बी द्वारा हथिया कर या फिर स्वयं नष्ट होकर ऍन उसी जगह पर किसी मस्जिद के रूप में निर्मित हो जाने वाली है तो शायद उन्होंने उस जगह का चुनाव संभवतः नहीं ही किया होता....किन्तु अब चूँकि पहली गलती राम से ही हो चुकी...सो उसका परिणाम तो उनके वंशजों को भुगतना ही ठहरा....(२)मेरे प्यारे-प्यारे पढ़े-लिखे सम्मानीय भाईयों और बंधू-बांधवों...अब चूँकि अयोध्या नामक उस जगह पर राम जी जन्मस्थान का कोई और क्षेत्र भारतीयों द्वारा कभी निर्धारित ही नहीं किया जा सका इसीलिए यह मानना भी हमारी विवशता ही होगी कि दुर्भाग्यवश श्री राम जी ने वहीँ जन्म लिया....अब चूँकि श्री राम जी ने किसी झोपड़ी में जन्म ना लेकर एक राजा के महल में जन्म लिया था...तो इससे कम-से-कम यह भी तय है कि वह राजमहल कई एकड़ जमीन पर फैला हुआ होगा....सो यह भी तय हुआ कि आज की तारीख में तो क्या उस समय का भी उसका कोई नक्शा अब तक किसी के पास होने से ठहरा...अब चूँकि नक्शा ही नहीं है तो एकदम से यह नहीं बताया जा सकता कि वह कौन सा बिन्दु था जहां श्री राम जी जन्म लिया होगा....!!!
                     मगर अबे मेरे बाप-दादाओं....और तमाम सम्मानित लोगों ,अगर यह तय ही है कि अयोध्या ही राम का जन्म-स्थान है....और भले ही मान्यतावश यह माना जाता है कि वही स्थान राम का जन्मस्थान हो सकता है,चूँकि कोई और स्थान की डिमांड यहाँ नहीं हो रही...और जिस पर कालान्तर में ताकत द्वारा कब्जा कर लिया गया.....जो भी हो यहाँ यह कहना भी बात को असंगत मोड़ देना हो जाएगा... क्योंकि जैसा कि हम जानते हैं कि विगत इतिहास में मुगलों द्वारा भारतीयों पर किसी किस्म का अत्याचार-शोषण आदि नहीं हुआ था और उस काल में हम सब मिलजुल कर रहते थे....और मुग़ल इतने सहिष्णु हुआ करते थे कि उन्होंने मंदिर तोड़ना तो दूर....अपितु हमें मंदिर बनवा-बनवा कर दान में दिए थे...छोड़िए,यह भी  विषयांतर हो जाएगा...तो अब चूँकि राम-लला वहीँ के थे,हैं,और रहेंगे....तो भईया लोगों इसमें आस्था का क्या सवाल है...!!.अब हमारा इतिहास हमेशा से लिखित इतिहास नहीं रहा तो क्या यह कोई पाप हो गया...??हमारा कोई आराध्य पूर्वज हजारों-हजार साल पहले होकर चला गया,अपना बिना कोई लिखित विवरण दिए....तो इसमें उसका या हमारा कोई अपराध है...?? अ
                    हम फिर से उसी बात आते हैं....!!अब अगर कोई महल है तो उसके फैले हुए क्षेत्रफल में कहाँ से कहाँ तक किस-किस तरह के प्रकोष्ठ...शयन-कक्ष या किन्हीं अन्य तरह के कक्ष रहें होंगे....इस बात की तस्दीक अब कौन करेगा...बुखारी जी,जिलानी जी,मोहन भागवत जी,आडवाणी जी,मुलायम जी या जस्टिस श्री शर्मा जी,अग्रवाल जी या कि खान साहेब जी....कौन करेगा इस बात की तस्दीक....??और चूँकि हम सब यह जानते हैं कि इसे सही तरह से साबित ही नहीं किया जा सकता...तो इस पर किसी भी तरह का सवाल उठाने का अधिकार ना तो हममे से किसी का था....और ना किसी जस्टिस के फैसले का सवाल ही था...और जब यह दोनों ही बातें थीं....तो इस पर दे दिए गए किसी भी किस्म के फैसले पर सवाल उठाने या आक्षेप करने का अधिकार किसी भी किस्म की ताकत को होना चाहिए !!
                   ध्यान रहे यह सबको कि यह बात कोई एक हिन्दू नहीं कह रहा....हमारा किसी भी जात या धर्म  का होना या ना होना एक संयोग मात्र है...इसे हमें अपनी मानवीयता पर किसी भी कीमत पर हावी नहीं होना देना चाहिए...इस धरतीं पर राम जी कृपा से हर एक कौम का अपना एक मुख्य काबा....या जो भी कुछ है...उसमें अगर एक काबा हिन्दू का भी हो जाए तो उसमें किसी का क्या बिगड़ता है....सिर्फ यह बात भी हम सब सोच लें तो बात बन सकती है....वरना सदियों से हमने अपने धर्म को फैलाने के लिए कोई कम खुनी लड़ाईयां नहीं खेली हैं....अगर धर्म का नाम किसी के खून से होली ही खेलना है तब तो मुझे कुछ नहीं कहना....मगर अगर सच में हममें मानवीयता नाम की कोई चीज़ अगर बची हुई है तो इस फैसले को शिरोधार्य कर ही लेना चाहिए....खुदा-ना-खास्ता अगर सुप्रीम-कोर्ट में यही बात साबित हो गयी कि हाँ यही राम-लला का जन्म-स्थान है....तब....या इसका उलटा ही साबित हो गया....तब.....तब कौन सा भाईचारा बचा रह पायेगा....तब या तो यह होगा और या तो वह....और दोनों ही स्थिति में......मैं इस पर कुछ कहना नहीं चाहूँगा...किन्तु मैं हिन्दू ना भी होता तो इस आस्था....श्रद्धा के इस घनीभूत केंद्र पर लोगों की अपने प्रभु-दर्शन को प्यासी आँखें देखकर उसे उनलोगों को ही समर्पित कर डालता....यहाँ तो बाकायदा हजार साल चली आ रही श्रद्धा है....और क्या मजाक है कि आप इसे बेबुनियाद या इसी टाईप की कुछ चीज़ बताये जाते हो....??
                         दोस्तों इस फैसले में अगर आस्था नाम की चीज़ का अंश है भी तो आप मुझे यह तो बताईये....कि ऐसे सवाल उठाने वाले खुद क्या आस्थावान नहीं हैं....वो किस तरह के फैसले देते......या ऐसे अहम् और जन-मानस को झकझोर देने वाले प्रश्न पर अपना क्या स्टैंड रखते....और अगर वो किसी भी पक्ष की आस्था से प्रेरित हुए होते तो किस प्रकार के फैसले लेते....और आस्थावान ही ना हुए होते तो भला फैला ही क्या दे पाते....कभी-कभी क़ानून की रक्षा करने से बेहतर आदमी की, आदमियत की,और आदमी के भीतर अन्य चीज़ों की रक्षा करना होता है....और यह सब होता है आदमी को आदमी के साथ मिलजुल कर रहने देने के लिए.... वरना क़ानून तो क़ानून है.....वो किसी को भी कहीं से भी बेदखल कर कर सकता है....सच (या झूठ की भी ??)की बुनियाद पर...अगर वहां से राम लला बेदखल हो सकते है तो मीर बांकी या बाबर भी....महत्वपूर्ण यह है कि आप किसे आदमी के जीवन के लिए महत्वपूर्ण मानते हो....बाबर को....या राम को....चाहे आप किसी भी धर्म के क्यों ना हों...!!(....यहाँ किसी छोटा या बड़ा सिद्ध नहीं किया जा रहा,सिर्फ जीवन में आस्था के प्रश्न का औचित्य बताया जा रहा है...)हो सकता है एक बहुत बड़े वर्ग की दृष्टि में कोई बाबर या कोई मीर बांकी ,किसी दूसरी कौम के पूज्य आराध्य देव राम से ज्यादा इम्पोर्टेंट हों.....मगर इससे राम की महत्ता गिर नहीं जाएगी...और अगर राम का ना नाम लेकर यह जमीन किसी ने मस्जिद को सौंप भी दिया तो कोई बड़ा भाईचारा स्थापित नहीं हो जाएगा....भाईचारा अब किस बात में है....इस फैसले का आधार अब कोर्ट ने तैयार कर दिया है....इसे समझना अब हमारा काम है....और सबसे बड़ी बात तो यह है कि बेशक आप सब बहुत बड़े तत्व-ज्ञानी हो सकते हो.... भले तीनो माननीय जजों से से बुद्धिमान भी हो सकते हो....मगर आप राम से बड़े हों....तो ले जाईये भगवान् राम को घसीट कर सुप्रीम कोर्ट और कर दीजिये उनके आदर्शों की ऐसी की तैसी.....मर्यादा तो खैर आपमें कभी थी ही नहीं....!!!   

 
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