भारत का संविधान

"हम भारतवासी,गंभीरतापूर्वक यह निश्चय करके कि भारत को सार्वभौमिक,लोकतांत्रिक गणतंत्र बनाना है तथा अपने नागरिकों के लिए------- न्याय--सामाजिक,आर्थिक,तथा राजनैतिक ; स्वतन्त्रता--विचार,अभिव्यक्ति,विश्वास,आस्था,पूजा पद्दति अपनाने की; समानता--स्थिति व अवसर की व इसको सबमें बढ़ाने की; बंधुत्व--व्यक्ति की गरिमा एवं देश की एकता का आश्वासन देने वाला ; सुरक्षित करने के उद्देश्य से आज २६ नवम्बर १९४९ को संविधान-सभा में,इस संविधान को अंगीकृत ,पारित तथा स्वयम को प्रदत्त करते हैं ।"

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मंगलवार, 9 जून 2009

हाँ,दुनिया इसी की तलाश में है.....!!

हाँ,दुनिया इसी की तलाश में है.....!!

मैं भूत बोल रहा हूँ..........!!
रोज-ब-रोज सूरज उग रहा है,रोज-ब-रोज रात हो रही है.आदमी के सम्मुख अँधेरा और उजाला दोनों ही हर वक्त होते हैं.मगर आदमी अँधेरे को ही पहले तरजीह देता है !!क्योंकि अँधेरे में ही उसकी समस्त वासनाओं का शमन होता है !!आदमी धीरे-धीरे एक ऐसी चीज़ में परिणत होता जा रहा है जो हर वक्त सिर्फ-व्-सिर्फ अपने और अपने स्वार्थ को येन-केन-प्रकारेण पूरा करने के बारे में सोचती रहती है.जीवन को भरा-पूरा बनाने के साधनों का एक ऐसा अंतहीन तिलिस्म आदमी ने अपने चारों तरफ फैला लिया है कि उनको प्राप्त करने की जद्दोजहद में उसकी कमर टूट जा रही है,और उसे अपनी जरूरतों से इतर कुछ भी सच पाने को कोई अवकाश ही नहीं है,और इस बारे में कुछ भी सोचने का प्रयास भी नहीं,तो इस तिलिस्म से बाहर आने के बारे में कुछ अपेक्षा करना भी बेमानी है !!
आदमी अपने-आप को सदा पशुओं से ऊपर बता रहा है,सिर्फ इस बुनियाद पर कि उसमें विवेक नाम की कोई चीज़ है,वो हँसता है,बोलता है,नाचता है और सबसे बढ़कर सोचता है !!और मज़ा यह कि इन्हीं बुनियादों पर वह पशु-जगत को अपने से दीन-हीन बतलाता रहा है और यहाँ तक कि उसने हर वक्त पशुओं को अपनी जरुरत तथा प्रयोगों का साधन बनाया हुआ है !!आदमी के हाथ में एक दुर्दमनीय पीडा से छटपटाते ये पशु कुछ बोल नहीं पाने के कारण आदमी नामक इस स्वनामधन्य विवेकशील जीव द्वारा मार दिए जाते हैं,मानवता की सेवा करने की आड़ में पशु-जगत आदमी के तमाम काले-कारनामों का शिकार बनता रहा है,बन रहा है !!और मज़ा यह कि आदमी विवेकशील है!!
प्रेम-मुहब्बत-भाईचारे की बात बहुत करता है यह आदमी...तुर्रा यह कि इसकी दुनिया में बाबा आदम के जमाने से अब तक भी ये चीज़ें इसे नसीब नहीं हो पायी हैं जबकि आदमी की सिर्फ एक ही जात है और वह है आदमी...!!और जिस जात को वह पशु मानता है वह धरती और गगन में असंख्य किस्म की होने के बावजूद आदमी से असंख्य गुणा प्रेम-मुहब्बत और भाईचारे के संग रहती है....!!आदमी अपनी एक-मात्र जात के बावजूद भी एक-दुसरे से कई-कई गुणा दूर है,यहाँ तक कि एक-दुसरे के विरुद्द एक अंतहीन नफरत से भरा हुआ और तमाम वक्त एक-दुसरे से लड़ता हुआ....लड़ता ही लड़ता हुआ !!और बाकी का पशु-पक्षी जगत अपनी अनगिनत रूपों की विभिन्नता के बावजूद एक-दुसरे के संग लगभग शालीनता से रहता हुआ,यहाँ के आदमी के लिए प्रेरणादायी होने तक !!
फिर भी आदमी जानवरों को लतियाता है,आदमी को भी लतियाता है,अपने बच्चों को लतियाता है,बड़े-बूढों को लतियाता है,स्त्रियों को लतियाता है,कमजोरों को लतियाता है,अपने से तमाम कमतर कहे जाने वाले लोगों को लतियाता है,हालांकि कमतर समझना उसका खुद का ही पैदा किया हुआ एक अनावश्यक विचार होता है....इस बारे में उसमें कई किस्म की बेजोड़ भ्रांतियां है,मज़ा यह कि जिन्हें वह तथ्य समझता हुआ उसी अनुसार आचरण करता है,बिना यह जाने हुए कि यह आचरण उसे अपने ही बनाए हुए आदमी होने के विशेषणों के उसे विलग करता है !!आदमी के साथ सबसे बड़ी तो दिक्कत ही यही है कि अपनी ही गडी हुई तमाम परिभाषाओं को अपने अनुकूल बनाने या साबित करने के लिए यह उन परिभाषाओं का दम खुद ही घोंट देता है,अपने ही गडे हुए शब्दों के अर्थ हजारों-हज़ार निकाल लेता है,यहाँ तक कि उसके शब्द अपनी ही महत्ता खो देते हैं,यहाँ तक कि उनका सही अर्थ भी हम नहीं समझ पाते,यहाँ तक कि आदमी कहना क्या चाहता है,उसे खुद ही नहीं पता होता....फिर भी आदमी,आदमी है,और समस्त पशु-जगत से कहीं ऊपर है...!!....नीचे के स्थान से कि ऊपर के स्थान से यह तय होना बाकी है !!
सच बताऊँ तो आदमी जरुरत से ज्यादा समझदार है,इतना ज्यादा कि इतने ज्यादा की जरुरत ही नहीं,इतना ज्यादा कि हास्यास्पद की हद तक,इतना ज्यादा कि ज्यादा होना आपकी राह में रोड़ा बनने लगे और हर समय एक अंतहीन पीडा देने लगे और दूसरों को ना जाने किन-किन आधारों पर छोटा या बड़ा समझने लगे और तरह-तरह के अनावश्यक विवादों को जन्म देकर और फिर उन्हें सुलझाने के उपक्रमों में अपना और दूसरों का समय खोता करने लगे !!आदमी सच ही ब्रहमांड की सबसे अजूबी चीज़ है,लेता तो है वह खुदा से होड़ और करता है तमाम किस्म के शैतानियत से भरे और रूह को कंपा देने वाले भद्दे-गंदे-गलीच और बिलकुल ही घटिया कर्म....!!अपनी सहूलियत के लिए सब कुछ कर डालने को उत्सुक एक व्यभिचारी आत्मा...!!और अगर आदमी सचमुच ही ऐसा ही है तो खुद को ऊँचा या विवेकमान मानने की जिद्द क्यों ??खुद को पशु से बेहतर बताने की जिद्द क्यों....??आदमी सच कहूँ तो मसीहा भी बन सकता है,भगवान् भी बन सकता है,वह कुछ भी बन सकता है,उसमें इतनी ताब है,उसमें ऐसी रौशनी भी है....खुद को यदि इतना बेहतर समझने का ऐसा ही उसमें जज्बा है तो दिखाए अपना दम...और बन कर दिखा दे सही मायनों में दुनिया का देवता...हाँ दुनिया इसी की तलाश में है....हाँ दुनिया इसी की आस में है.....!!
शनिवार, 6 जून 2009

आप ही फ़ैसला करें दानिश भाई का....!!

मैं भूत बोल रहा हूँ..........!!

आप ही फ़ैसला करें दानिश भाई का....!!

aap faisla karen daanish bhaayiji kaa.....!!















RAJEEV THEPRA

to lgdanish
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भईया लोगों,ज़रा इन्हें पहचानिये.....!!
ई साहब तो ब्लागरों के बाप हैं....इनका ब्लाग" मोहब्बत में दिक्कतें " सारे अन्य ब्लागरों की रचनाओं से मोहब्बत करता है....अन्य ब्लोगर की रचनाएं ये साहब अपने ब्लॉग पर अपने ही नाम से चस्पां करते हैं,आज किसी लिंक से मैं यहाँ तक पहुंचा तो भूतनाथ जी की दो रचनाएं शीर्षक बदल दानिश नाम से पोस्टेड दिखायीं दीं...और देखा तो "अर्श" साहब की रचनाएं भी इसी तरह उनके नाम पर चस्पां मिलीं....तो हम तो भईया चकिते हो गए...चकिते माने हतप्रभ....मने आश्चर्यचकित....माने अब और माने क्या बताऊँ....अब ऐसे भाई साहब का का करना चाहिए....सो फैसला आप ही करें....!!
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lgdanish@gmail.com <lgdanish@gmail.com>
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मंगलवार, 2 जून 2009

उफ़ !!यूँ भी होता तो क्या होता...??

मैं भूत बोल रहा हूँ..........!!
उफ़ यूँ भी होता तो क्या होता
गर्द से भरा मेरा चेहरा होता !!
इतने लोगों का यही है फ़साना
इस भरी भीड़ में तनहा होता !!
बावफा होकर भी यही है जाना
इससे बेहतर था बेवफा होता!!
तिल-तिल मरने से तो अच्छा है
जहर खा लेने से फायदा होता !!
अक्सर गम में हम ये सोचा किये
मेरे बदले यां कोई दूसरा होता!!
अच्छा इस बात को भी जाने दो
कि यूँ भी होता तो क्या होता !!
अच्छा हुआ कि तनहा गुजर गया
भीड़ में मरता तो क्या माजरा होता !!
 
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