भारत का संविधान

"हम भारतवासी,गंभीरतापूर्वक यह निश्चय करके कि भारत को सार्वभौमिक,लोकतांत्रिक गणतंत्र बनाना है तथा अपने नागरिकों के लिए------- न्याय--सामाजिक,आर्थिक,तथा राजनैतिक ; स्वतन्त्रता--विचार,अभिव्यक्ति,विश्वास,आस्था,पूजा पद्दति अपनाने की; समानता--स्थिति व अवसर की व इसको सबमें बढ़ाने की; बंधुत्व--व्यक्ति की गरिमा एवं देश की एकता का आश्वासन देने वाला ; सुरक्षित करने के उद्देश्य से आज २६ नवम्बर १९४९ को संविधान-सभा में,इस संविधान को अंगीकृत ,पारित तथा स्वयम को प्रदत्त करते हैं ।"

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मंगलवार, 8 अक्तूबर 2013

धर्म के नाम पर मर जाने वाले इंसान को शहीद नहीं कहते



 धर्म कभी-कभी किस तरह आदमी को पगला देता है,यह अभी कुछ दिन पूर्व मैंने देखा.मेरे एक विद्वान मित्र अचानक कुछ दिनों बाद मेरे पास आये और धर्म विषयक चर्चा करने लगे,ऐसा जान पड़ता था कि वे किसी धर्म-विषयक संस्थान में में कोई खास अध्ययन करके आये हैं,उनकी बौडी-लैंग्वेज और उनकी भाषा पूरी तरह लड़ाकू थीऔर उनके मुख से निकलने वाला प्रत्येक कथन जैसे एक आप्त-वाक्य और मजा तो यह था कि अपने हर कथन को अविवादित मान कर चल रहे थे,क्योंकि वे तो धर्म-ग्रंथों का सम्यक अध्ययन और उनपर सम्यक चर्चा जो करे आये थे,उनके द्वारा अपनी हर बात रखने में जो ढीतता थी,वो सामने वाले को कोई विमर्श करने ही नहीं देती थी,ऐसे में किसी के द्वारा अपनी बात किसी को समझा पाना लगभग असंभव ही था और मैं स्वयं भी इस अप्रत्याशित हमले से सन्न और अचंभित !!
खैरघंटों इस एकतरफ़ा विमर्श के पश्चात् अपनी तरह से वो मुझे जो ज्ञान प्रदान कर गए उसके पश्चात् मैं सोच में पड़ गया कि क्या सचमुच धर्म के यही मायने है,जो कि ये मित्र साहब फरमा कर गए हैं,कि वस्तुतः हर धर्म मानवता कि शिक्षा देने वाला है,जैसा कि मैंने समझा है !!
            सचमुच दोस्तों अगर आप धर्म को सिर्फ व् सिर्फ तठस्थ दृष्टि से देखो तो इसमें वाकई कट्टरता के लिए कोई जगह ही नहीं है,बल्कि हम कमजात लोग अपनी अल्प-बुद्धि के कारण धर्म की तरह-तरह की "भयानक" व्याख्याएं कर  इसे एक राक्षस बना देते हैं,सच तो यह है कि धर्म को हम किस तरह से लेते हैं यह हमारी अपनी निजी सोच है और दूसरा इसे किस तरह से ले,यह उसकी अपनी निजी सोच और किसी को भी इस सोच में दखल देने को कोई अधिकार नहीं है,क्योंकि यह भी सच है कि जैसे ईश्वर को कोई नहीं जानता और न ही उसे किसी ने देखा है और इस नाते यह भी कहा जा सकता है कि उसने क्या कहा है यह भी कोई नहीं जानता और ये सब जो ग्रन्थ आदि हैं वे सब मनुष्य के दिमाग की ही उपज हैं और फिर वही बात कि जितने तरह के मनुष्य उतने तरह के विचार और जितने तरह के विचार-समूह उतनी तरह की विचारधाराएँ भी हैं और ये सब विचारधाराएँ खुद को श्रेष्ठ मानने के चक्कर में दूसरी विचारधारा को घटिया या कमतर मानने लगे, यही झगडे का मूल कारण है जो हमारे दिन-प्रतिदिन के व्यवहार में परिलक्षित भी हुआ करता है !!
             मगर मैं दोस्तों, आपसे यही बात कहना चाहता हूँ कि धर्म के नाम पर मर जाने वाले इंसान को शहीद नहीं कहते बल्कि इंसानियत के लिए मर जाने वाले को सच्चा धर्मी कहते हैं !धर्म अपने लिए यह नहीं कहता कि तुम मेरे लिए तलवार भांजो,या गोलियां चलाओ बल्कि धर्म यह कहता है कि दूसरों को इतना अपना बना लो कि उसके लिए भी तुम्हें मरना पड़े तो तुम्हें कोई संकोच नहीं हो !धर्म एक दुसरे की जान लेने का नाम नहीं,बल्कि एक-दुसरे के साथ एक-दुसरे को जीने देने का नाम है !अल्लाह-राम या जीजस सब रहम-दया और करुणा के नाम है जो मानवता का परिपूर्ण रूप हैं ना कि किसी तरह के कट्टरता-पूर्ण धार्मिक खांचे,जिन पर हमारे एक्सीलेटर का दबाव बढ़ जाए तो सारी मानवता का विनाश ही हो जाए !!  

दोस्ती बड़ी कीमती चीज़ है....हम इसको बचाएं कैसे.....हर महफ़िल में आना-जाना चाहते हैं लेकिन॥जाएँ कैसे...!!

जिन्दगी एक ख्वाब की तरह उड़नछू होती जा रही है...वक्त सरपट भागता......जा रहा....!!इस दौड़ में हम कहाँ हैं....इस दौड़ का मतलब क्या है....समझ से परे है॥ उलझने....जद्दोजहद॥खुशी....उदासी..... तिकड़म...हार-जीत और भी ना जाने क्या-क्या....यह खेल- सा कैसा है और इसका मतलब क्या है....समझ से बाहर है...सब कुछ समझ से ही बाहर है तो फ़िर जिंदगी क्या है...और इसके मायने हमारे लिए क्या....ये भी समझ से बाहर ही है....फ़िर हम क्या करें....एकरसता को ही जीतें रहें??.....इसका भी क्या अर्थ ?...अर्थ...अर्थ...अर्थ ....क्या करें...करें...क्या करें॥?













एक पुलक,,,,,,, एक हँसी
कि जैसे हो ..... यही जिन्दगी !!
आँखों में जल लिए बैठा हूँ ,
मुझसे ... रूठी है,,,,,,तिश्नगी !!
होठों पे बस लफ्ज हैं प्यार के ,
दिल्लगी,,,,दिल्लगी,,,दिल्लगी !!
फूल बटोर कर लाया हूँ मैं ,
आती नहीं मगर मुझे बंदगी  !!
जो भी होता है वो होता रहेगा ,
कर भी क्या लेगी यह जिंदगी !!
आसमां जैसे है इक दीवाली 
तारों -ग्रहों की है जैसे फुलझड़ी  !!
इतना सपाट -से तुम रहते हो क्यूँ ,
लगते हो मुझे जैसे इक अजनबी !!
ये लो तुम अपनी प्रीत संभालो ,
अरे जाओ जी अजी तुम जाओ जी !!
तारीकी -सी फैली हुई है क्यूँ ,
जाकर थोड़ी -सी लाओ रौशनी !!
अंधेरे में कुछ जुगनू चमके ,
आज शब् भी इनसे अब ..... खेलेगी !!
ख़ुद में उलझा हुआ है "गाफिल ",
अब रूह इसकी अपने लब खोलेगी !!






गुरुवार, 21 मार्च 2013

क्या लिखूं....क्यूँ लिखूं....कैसे लिखूं ??

मैं भूत बोल रहा हूँ..........!!
क्या लिखूं....क्यूँ लिखूं....कैसे लिखूं ??
.....रोज-ब-रोज जो कुछ आखों के सामने घटा करता है...मन को गहरे तक बेध देता है....आदमी अपने-आप में कुछ नहीं है....बल्कि वो जो भी कुछ है....एक समाज होकर ही है...और एक समाज होकर ही वो समूचे ...समाज को कुछ दे सकता है....और उसके पश्चात ही उसे इस समाज से कुछ लेने का अधिकार भी है...किन्तु ऐसा होता कहीं दिख ही नहीं पड़ता...बल्कि हर कोई और खाऊं-और खाऊं वाले आचरण से बुरी तरह चिमटा मिलता है....जो आदमी सब कुछ को अकेले ही हजम कर लेने को तत्पर है,वो किसी दुसरे को क्या ख़ाक देगा !?
......रोज सुबह अखबार पढता हूँ...रोज मन खट्टा हो जाता, दिल बेतरह तपड़ता है आदमी की करतूतों पर....मगर कुछ नहीं कर पाता...सो और भी ज्यादा तड़पता है....और इतना ज्यादा तड़पता है कि जार-जार रोता है यह भीतर-ही-भीतर....!!

आज अभी-अभी पढ़ा है कि एक प्रेमी ने अपने तीन दोस्तों के साथ मिलकर अपनी ही प्रेमिका की अस्मत लूट ली...और प्रेमिका ने खुद को आग के हवाले कर अपना प्राणांत कर लिया....अब इस पर मैं लिखूं तो क्या लिखूं.... क्यूँ लिखूं...और लिखूं तो कैसे लिखूं ??...मैं किसको पकड़ कर झकझोर दूं कि अबे साले !ये तूने क्या किया....क्यूँ किया....??और अब वो कैसे लौटेगी इस दुनिया में....??उसका क्या कसूर था....??और ऐसे में प्रेम पर कौन और क्यूँ विश्वास करेगा....?
.......अबे साले ! प्रेम के बूते ही तू ज़िंदा रहा है....तेरी माँ ने अपने प्रेम के कारण ही तुझे अपने स्तनों से दूध पिला-पिलाकर तुझे ज़िंदा बनाए रखा....तुझे बड़ा करती रही.....अरे हरामजादे....किसी की अस्मत लूटने से पहले कभी तो यह सोच कि जिस राह को तू अपनी ताकत से कूच-कूच कर देना चाहता है....उसी राह के रास्ते तू इस दुनिया में आता है ....!!...जिन स्तनों को तू अपनी हथेलियों से मसल डालना चाहता है.....उन्हीं से तूने दूध पीया होता है...!!??

......तेरी वासना ....तेरा फरेब दुनिया की हर माँ-बहन-बेटी के विश्वास को ख़त्म- ख़त्म कर देता है....जिनके सहारे तेरी यह दुनिया चलती है....सुन्दर बनी रहती है... जिनकी आगोश में तेरा जीवन मधुर बना करता है !!
....अबे हरामी...!तू कब अपनी वासना के पंजे से निकलेगा....??तू कब एक स्त्री की आबरू को अपनी आबरू समझेगा ??...और तू कब स्त्री की संवेदना को समझेगा...??

अबे साले !तू कब स्त्री को इतना अपना समझेगा कि उसका दर्द तुझे अपना दर्द लगे...और हर स्त्री एक अति-सम्मानित देवी.....!!...अबे कुत्ते !!तुझे एक स्त्री का भरोसा तोड़ कर भला क्या मिलता है....??और एक भरोसे....एक प्रेम का विश्वास तोड़ कर तू भला क्या पाता है.....??महज अपनी पिपासा शांत करने के लिए तू इतना वीभत्स कुकर्म कैसे कर डालता है…क़ि एक स्त्री का दामन,उसकी अभीप्सा,उसका प्रेम,उसका विश्वास सदा-सदा के लिए तार-तार हो जाए ??

और कभी यह भी तो सोच कि जब दुनिया की सारी स्त्रियाँ तेरे अत्याचार के कारण मर ही जायेंगी तो तू कैसे अपनी वासना की प्यास बुझाएगा....और तब तू किसकी इज्ज़त लूटेगा....!!क्या तेरे खुद के घर में बची....माँ....की या बहन की....या फिर खुद की ही बेटी की ??!!
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