भारत का संविधान

"हम भारतवासी,गंभीरतापूर्वक यह निश्चय करके कि भारत को सार्वभौमिक,लोकतांत्रिक गणतंत्र बनाना है तथा अपने नागरिकों के लिए------- न्याय--सामाजिक,आर्थिक,तथा राजनैतिक ; स्वतन्त्रता--विचार,अभिव्यक्ति,विश्वास,आस्था,पूजा पद्दति अपनाने की; समानता--स्थिति व अवसर की व इसको सबमें बढ़ाने की; बंधुत्व--व्यक्ति की गरिमा एवं देश की एकता का आश्वासन देने वाला ; सुरक्षित करने के उद्देश्य से आज २६ नवम्बर १९४९ को संविधान-सभा में,इस संविधान को अंगीकृत ,पारित तथा स्वयम को प्रदत्त करते हैं ।"

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मंगलवार, 15 फ़रवरी 2011

चोखेरबाली से लौटकर,दुनिया के पुरुषों,संभल जाओ.....!!!!

चोखेरबाली से लौटकर,दुनिया के पुरुषों,संभल जाओ.....!!!!


मैं भूत बोल रहा हूँ..........!!
यह जो विषय है....यह दरअसल स्त्री-पुरुष विषयक है ही नहीं....इसे सिर्फ इंसानी दृष्टि से देखा जाना चाहिए....इस धरती पर परुष और स्त्री दो अलग-अलग प्राणी नहीं हैं...बल्कि सिर्फ-व्-सिर्फ इंसान हैं प्रकृति की एक अद्भुत नेमत.. !!...इन्हें अलग-अलग करके देखने से एक दुसरे पर दोषारोपण की भावना जगती है....जबकि एक समझदार मनुष्य इस बात से वाकिफ है की इस दुनिया में सम्पूर्ण बोल कर कुछ भी नहीं है.....अगर पुरुष नाम का कोई जीव इस धरती पर अपने पुरुष होने के दंभ में अपने "खुले हुए " विचार लटकाए खुले सांड की तरह घूमता है...और स्त्रियों के साथ "अय्याशी " करना अपनी बपौती भी समझता है....तो उसे उसकी औकात बतानी ही होगी....उसे इस बात के लिए बाध्य करना ही होगा की वह अपने पजामे के भीतर ही रहे....और उसका नाडा भी कस कर बंद रखे ....अगर वह इतना ही "यौनिक" है...कि उसे स्त्रियों के पहनावे से उत्तेजना हो जाती है...और वह अपने "आपे" से बाहर भी हो जाता हो...तो उसे इस "शुभ कार्य" की शुरुआत...अपने ही घर से क्यों ना शुरू करनी चाहिए....यानी कि ''अपनी माँ-बहनों के साथ....!!       ''लेकिन यदि ऐसा संभव भी हो तो भी बात तो वही है.... कि उसकी  "यौनिकता " रूपी तलवार की नोक पर तो स्त्री ही है... इसीलिए हर हाल में पुरुष को अपने "इस विचार "(या कि विकार...!!??") को संभाल कर ही धरना होगा...वरना किसी रोज ऐसा हर एक पुरुष स्त्रियों की मार ही खायेगा...जो अपने "इस विकार " को संभाल कर नहीं धर सकता...या फिर उसका "प्रदर्शन" नानाविध जगहों पर...नानाविध प्रकारों से करना चाहता हो.....!!
              मैं देखता हूँ....कि स्त्रियों द्वारा लिखे जाने वाले इस प्रकार के विषयों पर प्रतिक्रिया में आने वाली कई टिप्पणियाँ [जाहिर है,पुरुषों के द्वारा ही की गयीं...]...अक्सर पुरुषों की इस मानसिकता का बचाव ही करती हुई आती हैं....तुर्रा यह कि महिला ही "ऐसे पारदर्शी और लाज-दिखाऊ-और उत्तेजना भड़काऊ परिधान पहनती है....बेशक कई जगहों पर यह सच भी हो सकता है....मगर दो-तीन-चार साल की बच्चियों के साथ रेप कर उन्हें मार डालने वाले या अधमरा कर देने वाले पुरुषों की बाबत ऐसे महोदयों का क्या ख्याल है भाई....!!
जब किसी बात का ख़याल भर रख कर उसे आत्मसात करना हो....और अपनी गलतियों का सुधार भर करना हो.. तो उस पर भी किसी बहस को जन्म देना किसी की भी ओछी मानसिकता का ही परिचायक है...अगर पुरुष इस दिशा में सही मायनों में स्त्री की पीडा को समझते हैं तो किसी भी भी स्त्री के प्रति किसी भी प्रकार का ऐसा वीभत्स कार्य करना जिससे मर्द की मर्दानगी के प्रति उसमें खौफ पैदा हो जाए....ऐसे तमाम किस्म के "महा-पुरुषों" का उन्हेब विरोध करना ही होगा....और ना सिर्फ विरोध बल्कि उन्हें सीधे-सीधे सज़ा भी देनी होगी...बेशक अपराधी किसी न किसी के रिश्तेदार ही होंगे मगर यह ध्यान रहे धरती पर हो रहे किसी भी अपराध के लिए अपने अपराधी रिश्तेदार को छोड़ना किसी दुसरे के अपराधी रिश्तेदार को अपने घर की स्त्रियों के प्रति अपराध करने के लिए खुला छोड़ना होता है...अगर आप अपना घर बचाना चाहते हो तो पडोसी ही नहीं किसी गैर के घर की रक्षा करनी होगी...अगर इतनी छोटी सी बात भी इस समझदार इंसान को समझ नहीं आती...तो अपना घर भी कभी ना कभी "बर्बाद"होगा....बर्बाद होकर ही रहेगा....किसी का भी खून करो....उसके छींटे अपने दामन पर गिरे बगैर नहीं रहते....!!........अगर ऐसा कुछ भी करना पुरुष का उद्देश्य नहीं है तो ऐसी बात पर बहस का कोई औचित्य....?? अगर इस धरती पर स्त्री जाति आपसे भयभीत है तो उसके भय को समझिये....ना कि तलवार ही भांजना शुरू कर दीजिये....!!
आप ही अपराध करना और आप ही तलवार भांजना शायद पुरूष नाम के जीव की आदिम फितरत है.....किंतु अपनी ही जात की एक अन्य जीव ,जिसका नाम स्त्री है....के साथ रहने के लिए कुछ मामूली सी सभ्यताएं तो सीखनी ही होती है....अगर आप स्त्री-विषयक शर्मो-हया स्त्री जाति से चाहते हो तो उसके प्रति मरदाना शर्मो-हया का दायित्व भी आपका है कि नहीं....कि आपके नंगे-पन को ढकने का काम भी स्त्री का ही है....??ताकत के भरोसे दुनिया जीती जा सकती है.....सत्ता भी कायम की जा सकती है मगर ताकत से किसी का भी भरोसा ना जीता जा सका है....ना जीता जा सकेगा.......!!ताकत के बल पर किसी पर भी किसी भी किस्म का "राज"कायम करने वाला मनुष्य विवेकशील नहीं मन जा जा सकता....बेशक वो मनुष्यता के दंभ में डूबा अपने अंहकार के सागर में गोते खाता रहे......!!दुनिया के तमाम पुरुषों से इसी समझदारी की उम्मीद में......यह भूतनाथ....जो अब धरती पर बेशक नहीं रहा....!!!!
रविवार, 13 फ़रवरी 2011

हालात बद से बदतर क्यूं होते चले जाते हैं ?? (क्योंकि..........इक ब्राहमण ने कहा है......कि ये खेल अच्छा है.....!!)

                                                    हालात बद से बदतर क्यूं होते चले जाते हैं ??
                                         (क्योंकि..........इक ब्राहमण ने कहा है......कि ये खेल अच्छा है.....!!)
                        कभी-कभी जब मै भारत की विभिन्न समस्याओं पर विचार करते हुए इसके कारणों पर जाता हूं,तो अक्सर उनको खत्म करने के लिए जो फ़ैसले मेरे जेहन में आते हैं,भारत के तकरीबन सारे नौकरीपेशा सरकारी कर्मचारियों के हितों के खिलाफ़ जाते हैं और तब मैं सोचता हूं कि शायद इस देश की अधिसंख्य समस्याओं को कभी नहीं मिटाया जा सकेगा,क्योंकि इसे मिटाने के रास्ते में आढे आने वाले होंगे खुद स्वार्थी भारतीयों के व्यापक हित, या कहूं कि स्वार्थ,तो यह ज्यादा समीचीन होगा !यह मैं क्यूं कह रहा हूं इसे आप जरा समझिये !!
               दोस्तों दुनिया भर में हम प्रत्येक उत्पाद को उसकी क्वालिटी के आधार पर तौलते हैं,प्रत्येक वह वस्तु,जो हमारे विचार के निम्नतम मानकों या फिर किसी भी तरह के संगठन या सरकारी मानक पर सही उतरती है,सिर्फ़ उसे ही हम अपनाना जारी रखे रहते हैं,उससे कम वाली वस्तु को तत्काल खारिज़ कर देते हैं,यह अलिखित व्यवस्था शायद हमारे समाज के रूप में संगठित होने के समय से चली आ रही है और इसीलिए तमाम क्वालिटी वाले उत्पाद कुछ ही समय में बाज़ार पर अपना प्रभुत्व कायम कर लेते हैं और उन्हें बनाने वाली कंपनियां एक ब्राण्ड नाम बन जाती हैं और अपने उस ब्राण्ड को यथाशक्ति कायम रखने का यत्न करती हैं तथा उन वस्तुओं को उपयोग में लाने वाला प्रत्येक उपभोक्ता भी अपने मन में एक तरह की राहत महसूस करता है,इसी प्रकार समाज के अन्य स्थानों पर भी यह लिखित और अलिखित व्यवस्था कायम दिखाई देती है जैसे स्कूल-कोलेज और अन्य तमाम संस्थानों में बच्चों-युवाओं और कर्मचारियों का मामला है,जहां बच्चों-युवाओं और कर्मचारियों को उनके प्रदर्शन के आधार पर नंबर,ग्रेड या वेतन आदि दिए जाते हैं,यानि कि जो बेहतर है,उसे बढिया और जो खराब है उसे उसे खराब ही कहा जाता है,यहां तक कि जो जितना बढिया या खराब है,उस आधार पर भी यही बात होती है,इस प्रकार यह ग्रेडिंग-मार्क और वेतन तरह-तरह का भी हो सकता है,होता है !

              लेकिन दोस्तों भारत के मामले में और खासकर कि सरकारी क्षेत्र में यही मामला एकदम से उलट जाता है,तमाम नैतिक और आदर्शवादी चिंतन "झाडने" वाले और निजी क्षेत्र के लोगों को तरह-तरह के पाठ पढाने वाले यही सरकारी लोग अपने काम के मामले में अपनी सारी बौद्धिकता मानो एकदम से खो ही देते हैं,यहां तक कि अपना काम भी नहीं करते,यहां तक कि अपना ही काम करने के लिए सरकार से लिए जा रहे वेतन के बावजूद अपने सम्मूख खडे हुए अपने ही समाज के प्रत्येक व्यक्ति से "अनुदान"(घूस,रिश्वत,कमीशन या जो भी कहिए) लेते हैं !और उसके बाद भी ये उस काम कराने वाले को दौडाते हैं !महंगाई और अन्य मुद्दों पर बात-बात पर आंदोलन करने वाले ये लोग अपने ही काम से विमूख और किसी की जान ले लेने की हद तक लापरवाह होते हैं,शर्म जिनको रत्ती भर भी छू नहीं गयी होती है !
              और इसका परिणाम क्या है ? इसका परिणाम यह है दोस्तों कि बिना काम के या कि राई बराबर काम के और वो भी उस काम को करने के एवज में लिए जाने वाले "अनुदान" के कारण ये लोग आर्थिक रूप से अत्यंत सुदढ होते चले जाते है,इनके घर में तमाम तरह के साधन मौजूद हो जाते हैं,जो दरअसल उस किसी ईमानदार कर्मचारी की खिल्ली उडाते हुए प्रतीत होते हैं,जिन बेचारों ने रोजी-रोटी के जुगाड से ज्यादा कभी कुछ सोचा ही नहीं होता, ! इन ईमानदार लोगों को कभी इन स्थितियों पर क्षोभ होता है,कभी क्रोध आता है तो कभी अपने-आप पर शर्म आती है,क्योंकि उनके बच्चे वो सब नहीं हासिल कर रहे होते जो भ्रष्ट लोगों के बच्चे कर रहे होते हैं,उनकी बीवीयां वो मस्ती नहीं कर रही होती जो उन भ्रष्ट लोगों की पत्नियां करती होती हैं !!.....अगर यह सब भी छिपे-छिपाए हुए हो तो शायद ईमानदार लोग अपनी जिंदगी अपनी तरह से जीते रहें मगर होता यह है कि तमाम भ्रष्ट लोग तमाम ईमानदार लोगों का मज़ाक बनाया करते हैं,यहां तक कि ईमानदार लोग अपनी ईमानदारी पर गर्वित होना त्याग कर शर्मिंदा होने लगते हैं !!
             दोस्तों,यही वो स्थिति है जो किसी भी जगह को बदहाल बनाने लगती है,कोढ बन कर सारे शरीर को गलाने लगती है,घुन बनकर सारे चरित्र को खाने लगती है,क्योंकि अपनी सारी विवेकशीलता के बावजूद भी इंसान एक ऐसा जीव है,जो ज्यादातर दूसरों की देखा-देखी करता है....और इस प्रकार सारे समाज का आचरण बदलने लगता है और एक समय समुचे समाज का चरित्र ही बदल जाता है....क्योंकि खुशहाल तो दोस्तों हर कोई ही होना चाहता है,मैं भी...आप भी और इसी तरह सब ही.....!!और इस खुशहाली का हर रास्ता वाया "धन-सम्पत्ति" होकर ही जाता है और इस धन-सम्पत्ति का शार्ट-कट बेईमानी-धूर्तता-भ्रष्टाचार-अनैतिकता ही है,भले उससे कितनी ही अराजकता क्यों ना फैल जाती होओ.....और समाज एक बदबूदार गंदे "स्लम"
में तब्दील क्यूं ना हो जाता होओ !!
            ऐसे में ओ दोस्तों !आप सब ऐसा विचार कर भी कैसे सकते हो कि भारत कभी सुधर भी सकता है,जब आप लकडी से दीमक निकालने के बजाय उसे अपने प्रत्येक क्षण पोषित करते जाते हो,आपका हर कदम उन दीमकों को अपार भोजन प्रदान करता है,क्योंकि ये लोग अब ढेर-ढेर-ढेर सारे हैं,इतने कि एक समुचा "वोट-बैंक"...और आप इनकी अनदेखी कर अपने पेट (सीट!!) लात नहीं मार सकते....ऐसे ही लोगों को आप बचाते हो,ऐसे ही लोगों को आप प्रोन्नत करते हो...ऐसे ही लोगों को आप कर्मठ,ईमानदार और देश के जान देकर भी काम करने वाले देवता-समान लोगों के बराबर वेतन देते हो...और ऐसे ही लोग,जो अपने लिए जाने वेतन के बावजूद अपने सम्मूख उपस्थित "उपभोक्ता" को चूस कर अपना खून बढाता है...को अपने साथ रखकर "श्रेष्ठ-बेहतर और बेहतरतम" लोगों का मान-मर्दन करते हो...तब आप देश की सम्स्याओं का अन्त होने का सपना?? कैसे देख सकते हो...??
            दोस्तों,अगर वक्त रहते इस दोषपूर्ण प्रणाली में बदलाव नहीं किया गया तो इस देश के शिक्षक बच्चों को बे-ईमान और करप्ट ही बनाते रहेंगे...बिजली वाले,पानी वाले,सडक वाले,उर्जा वाले,वन वाले,विग्यान वाले,ग्रामीण-विभाग वाले,लोक-कल्याण वाले,सेल्स-टैक्स वाले,इनकम-टैक्स वाले,कामनवेल्थ वाले,नगर-निगम-पालिका वाले,पुलिस वाले,ट्रैफ़िक वाले,ये विभाग वाले,वो विभाग वाले,सब विभाग वाले....सब के सब हम भारतीयों द्वारा दिए गये विभिन्न तरह के टैक्सों से हर साल लाखों-लाख करोड (जी हां,हर महकमे में होने वाले भ्रष्टाचार का निम्नतम अनुमान भी लाखों करोड की राशि पर जाकर ठहरता है और इसी के लिए तो यह मारामारी है भाईयों...!!)खा-खाकर ऐश-मौज भी करते रहेंगे...डकारते भी रहेंगे....स्विस-बैंकों में अपना धन भी रखते रहेंगे...जो आज दो लाख करोड रुपये है....कर चार....परसों पांच लाख करोड रुपये भी हो जाएगा...तो आपके बाप के बाप के बाप का बाप भी क्या कर लेगा.....??है क्या दस का दम किसी भारतीय में.....??है क्या कोई सच्चा भारतीय....??
            दोस्तों !! चिल्लाते ही रह जाएंगे हम मरे हुओं से भी बदतर लोग.....और बेच कर खा जाएंगे भारत को भारत के ही तमाम "हरामी" (प्लीज़ यही कहने दीजिये मुझे !!) लोग....और स्वर्ग??(नरक नहीं क्या??) जाकर हम चिल्लायेंगे.....ईंडिया शाईनिंग....ईंडिया शाईनिंग.....इक ब्राहम्ण ने कहा है......कि ये खेल अच्छा है.....!!!!

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शुक्रवार, 11 फ़रवरी 2011

धरती के उपर है एक और समन्दर....!!

                                धरती के उपर है एक और समन्दर....!!

                          शीर्षक देखकर बेशक थोडा अजीब लग सकता है मगर मेरे जानते धरती पर मौजूद उस समन्दर,जिसमें धरती का सत्तर प्रतिशत जल भरा है,के अलावा भी एक समन्दर है,जिसके बारे में हम जानते ही नहीं और शायद जानना भी नहीं चाहेंगे और इस समन्दर से धरती की एक बेहद छोटी-सी आबादी बडे भरे-पूरे ढंग से,जैसा कि वो अपने बाकी के अन्य साधनों के समुचित उपयोग करता है,उसी भांति वह इस समन्दर का भी अपने मन-माफ़िक इस्तेमाल करता है और मज़ा यह कि यह पानी उसे कभी कम नहीं पडता भले ही धरती की एक बडी आबादी पानी के आभाव में प्यासी मर रही हो या भले ही धरती के करोडों लोग (मर्द-औरत-बच्चे)अहले-सुबह मूहं-अन्धेरे ही पानी के जुगाड में मीलों दूर तक जा-जाकर अपने तसलों में पानी भर-भर लाते हैं,सौ-दो सौ सालों पहले ऐसा नहीं हुआ करता था मगर जबसे शहरीकरण का प्रकोप बढा और उद्योग-धंधों की आंधी आयी...और पानी का उपयोग एक आम आबादी के सम्यक उपयोग के उलट उपरोक्त लोगों(शहरी लोगों और उद्योगपतियों)की भेंट चढ गया.मज़ा यह कि लोगों की सभ्य जमात को पानी भी भरपूर चाहिये था मगर साथ ही इस पागल और मुर्ख समाज को पानी के तमाम श्रोतों को अपने पास रखे जाने से भी एलर्जी थी.इस करके पानी आदमी के आस-पास से दूर होता चला गया,मगर पानी के इस तरह दूर होने का कोई असर इस समाज को कभी नहीं भुगतना पडा,बल्कि इस छोटे से समाज की करनी,उसकी अंड-बंड आवश्यकताओं के पैदा पानी के अनाप-शनाप उपयोग के कारण एक बहुत बडी आबादी आज पानी की कमी से बेतरह त्रस्त है या पस्त है कहना ज्यादा समीचीन जान पड्ता है.
                आदमी का शुरूआती समाज अपनी आवश्यकता की वस्तुओं के स्त्रोतों के प्रति ना केवल सजग हुआ करता था,बल्कि उन स्त्रोतों के प्रति उसमें आदर का भाव भी हुआ करता था(भले आप यह कह लो कि यह आदर भय-जनित था!)और इस वजह से उस समाज ने इन स्त्रोतों की ना सिर्फ़ रखवाली ही की बल्कि उनका "उत्पादनभी किया,यहां तक कि उनकी पूजा भी की !!और आप जिनकी पूजा करते हो उसे अनदेखा कभी नहीं कर सकते,उसे लतिया कभी नहीं सकते अगर आप सच में उसकी पूजा ही करते हो !!इस प्रकार आज से सैंकडों बरस पूर्व तरह-तरह की चीज़ों के प्राक्रितिक स्त्रोत जगह-जगह बल्कि कदम-कदम पर पाये जाते थे और यही मनुष्य उनकी रक्षा किया करता था,यह बात हम दूर ना भी जायें तो घर में ही उपस्थित हमारे बुजुर्गों की सलाह माने तो संभव हो सकता है,जो आज भी चीज़ों के सम्यक (जितना आवश्यक हो बस उतना भर ही)की राय देते हैं,मगर "लोचातो यह है कि बहुत सारी अन्य चीज़ों की तरह पानी की उपलब्धता भी आदमी के एक छोटे से वर्ग को इतनी आसानी से हो चुकी है कि वह पानी का समुचित उपयोग तो भला क्या जाने...उसका समुचित मुल्य तक भूल गया है..यही वो बिन्दु है,जहां समस्या के जन्म का एक बहुत बडा कारण मौजूद है!
            शहरी-करण ने जिस तरह धरती के समस्त साधनों को एक छोटे से वर्ग को आप्लावित कर बाकि के सारे लोगों को उन साधनों से वंचित कर दिया है,उसी तरह पानी का भी यही हाल है.मालूम हो कि इस धरती के कुछेक हज़ार शहरों में कुछ करोड पक्के मकान हैं और कुछ लाख ऊंची-ऊंची ईमारतें और सबसे अहम कुछेक लाख होटल्स,जिनकी छतों के ऊपर छोटी और मध्यम से लेकर बडी-बडी विशालकाय तक टंकियां हैं,जिनमें एक बहुत बडा नहीं भी कहें,तो छोटा-मोटा समन्दर तो अवश्य ही है,जिसमें बिना-किसी रुकावट के इतने-इतने अधिक पानी की उपलब्धता है,एक बटन दबाया कि पानी नीचे से छर्र-छर्र-छर्र-छर्र ये जा-वो जा ऊपर....पेशाब किया....और छर्र...छर्र....छर्र....छर्र....बटन दबा...और फ्लश साफ़....एकदम चकाचक....मज़ा यह कि जितना आपने पेशाब नहीं किया है,उससे कई गुना पानी उसे बहाने के लिया बहा दिया आपने.....इस प्रकार पानी इन जगहों पर किस तरह उपयोग में आता होगा यह पानी,यह सचमुच शोध का ही विषय है,और यकीन जानिये यह मैने किया भी है !!
                    इस सामान्य से शोध में एक बडी सामान्य-सी बात उभरकर सामने आती है कि पानी की अत्यन्त आसान उपलब्धता के कारण शहर में जीने वाला एक सुविधाभोगी वर्ग पानी का एकदम ही नाजायज उपयोग करता है,रसोई,में बाथरूम में तथा अन्य जगह पर इसके द्वारा किया जाने वाला पानी का गैर-जायज उपयोग एकदम से चिंतनीय है,इनके बच्चे जिस तरह पानी का दुरुपयोग करते पाये जाते हैं उसे देखकर किसी को भी आश्चर्य हो जाए और तो और तमाम प्रकार के होटलों में इसी जमात के द्वारा किया जाने वाला अपव्यय एकदम से निन्दनीय है,किन्तु ना तो इस तरफ़ किसी का ध्यान ही जाता है और इस प्रकार ना ही इस सबको कोई रोकने या टोकने वाला ही है सच तो यह है कि दुनिया के तमाम शहरों के छ्त के उपर मौजूद इन टंकियों में भरे पानी की मात्रा किसी भी प्रकार से किसी समन्दर से कम नहीं ठहरेगी !!
             मगर शहरवासियों की सोच की महिमा भी अपरम्पार है क्योंकि पानी के संकट की बात आज से नहीं बल्कि बहुत समय से कही जा रही है,मगर शहर की ऊंची बिल्डिंगों में रहने वाले लोगों को शायद इस सबसे कोई सरोकार ही नहीं है,क्योंकि जिस प्रकार इस वर्ग की किसी प्रकार की सुविधा में कोई कटौती नहीं होती है,उसी प्रकार उनके द्वारा पानी के उपयोग में भी कोई कमी नहीं होती ! इस तरह हो यह रहा है कि एक तरफ़ सरकार और तरह-तरह के संगठन पानी कम-पानी कम चिल्लाए जा रहे हैं तो दूसरी ओर इस वर्ग द्वारा अपनी करनी द्वारा इसकी खिल्ली उडाए जा रहे हैं,मगर सच तो यह है कि यह सब अब बहुत ज्यादा दिन नहीं चलने को,क्योंकि आज न कल धरती के भीतर का पानी खत्म होने को ही है, अगर अब भी यह वर्ग नहीं चेता तो कल अपनी ऊंची-ऊंची बिल्डिंगों की खिडकियों में बैठे ये लोग पानी कम-पानी कम चिल्लाते रह जाएंगे और नीचे वाले लोग इनकी खिल्ली उडाएंगे कि और नाचो…और करो पानी की ऐसी की तैसी…अब हुई ना तुम्हारी ऐसी की तैसी…पानी का बेतरह अपव्यय करने वाले लोग पच्चीस-पचास लाख और करोडों रुपये में फ़्लैट और बंगले खरीदने वाले लोग जरा-सा और खर्च कर पानी की रिचार्जिंग कर इस समस्या को तक्ररीबन सदा के लिये टाल सकते हैं,मगर यह तभी सम्भव है जब इन्हें होश आये या फिर अक्ल आ जाये…वरना कभी अगर धरती ने अपनी दिशा बदली तो शायद मरुस्थल में भी पानी बरस जाये…मगर इन टंकियों का समन्दर कभी अगर सूख गया तो हमेशा के लिये मरुस्थल बन जायेगा…!!
 
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