भारत का संविधान

"हम भारतवासी,गंभीरतापूर्वक यह निश्चय करके कि भारत को सार्वभौमिक,लोकतांत्रिक गणतंत्र बनाना है तथा अपने नागरिकों के लिए------- न्याय--सामाजिक,आर्थिक,तथा राजनैतिक ; स्वतन्त्रता--विचार,अभिव्यक्ति,विश्वास,आस्था,पूजा पद्दति अपनाने की; समानता--स्थिति व अवसर की व इसको सबमें बढ़ाने की; बंधुत्व--व्यक्ति की गरिमा एवं देश की एकता का आश्वासन देने वाला ; सुरक्षित करने के उद्देश्य से आज २६ नवम्बर १९४९ को संविधान-सभा में,इस संविधान को अंगीकृत ,पारित तथा स्वयम को प्रदत्त करते हैं ।"

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ओ......बाबा कृष्ण....!!संभाल लेना यार मुझको....हम सबको.....!!

गुरुवार, 27 मई 2010

मैं भूत बोल रहा हूँ..........!!
ओ......बाबा कृष्ण....!!संभाल लेना यार मुझको....हम सबको.....!!

इन दिनों कई बार यूँ लगता है कि हम लिखते क्यूँ हैं.....हजारों वर्षों से ना जाने क्या-क्या कुछ और कितना-कितना कुछ लिखा जा चूका है....लिखा जा रहा है...और लिखा जाएगा....मगर उनका कुछ अर्थ....क्या अर्थ है इन सबका....इन शब्दों का...इन प्यारे-प्यारे शब्दों का इन तरह-तरह के शब्दों का अगरचे शब्दों के बावजूद....अपनी समूची भाषाई संवेदनाओं के बावजूद...बड़ी-बड़ी बातों के बावजूद...दुनिया संबंधों के स्तर पर एक तरह के नफ़रत के पायदान पर आ खड़ी हुई है....धर्म के स्तर पर बिलकुल छिछली....भावना के स्तर पर एकदम गलीच....संवेदना के स्तर पर एकदम दीन-हीन....बस एक ही ख़ास बात दिखाई है इसमें....वो यह कि यह भौतिक स्तर पर क्रमश: विकसित होती चली जाती है मगर यह विकास भी इतना ज्यादा अनियंत्रित है कि उससे वर्तमान बेशक ठीक-ठाक सुविधाओं से परिपूर्ण दीख पड़ता होओ...मगर कुल-मिलाकर यह भी मानव के लिए बहुत बेहतर नहीं कहा जा सकता...और आदमी है कि अपनी सफलताओं पर इतना इतराता है कि मानो उससे बड़ा जैसे भगवान् भी नहीं.....और उसकी सफलताओं का सुबह-शाम-दिन-रात उसकी ही बनायी हुई पत्र- पत्रिकाओं और इंटरनेट के संजाल पर छापी और बिखरी दिखाई पड़ती है.....अपनी सफलताओं का दिन-रात इतना भयानक गुणगान....और उसके चहुँ और चर्चे और तरह-तरह की सफलताओं पर तरह-तरह की पार्टियां... और उनका शोर-शराबा...और एक किस्म का भयानक नशा अपने कुछ होने का....उससे से बढ़कर सामने वाले के कुछ ना होने का....मुझे यह समझने ही नहीं देता कि मैं लिख रहा हूँ आखिर क्यूँ लिख रहा हूँ...मेरे लिखने का अर्थ क्या है....उसका सन्दर्भ क्या है....उससे क्या बदलने वाला है....और मैं नहीं भी लिखूंगा तो ऐसा क्या बिगड़ जाएगा....किसी किताब में छाप जाना....और उस पर टिप्पणियाँ पाना....कहीं ब्लॉग पर लिख लेना और प्रशंसा पा लेना....क्या किसी के लिखने का यही ध्येय होता है...??
तो फिर जिस पीड़ा याकि जिस चिंता से हम लिखते हैं...जो वेदना हमारे लेखन में झलकती है(जो अपने आस-पास विसंगतियों का विकराल पहाड़ देख-कर चिंतित होकर लिखते हैं)और उस वेदना की स्थितियों का कोई निराकरण नहीं हो पाता...और हमारे कुछ भी लिखने के बावजूद भी बदलता हुआ नहीं दिख पड़ता... और ना ही बदलने की कोई संभावना ही दूर-दूर तक दिखाई ही पड़ती है...तो फिर सच बताईये ना कि हम सब क्यों लिखते हैं....मैं चिल्ला-चिल्ला कर आप सबसे यह पूछना चाहता हूँ कि भाईयों और बहनों हम सब क्यूँ लिखते हैं ??अगर लिखने से हमारा तात्पर्य सचमुच स्थितियों का थोडा-बहुत ही सही बदल जाने को लेकर है तो फिर कुछ फर्क दिखलाई नहीं पड़ने के बावजूद हमारा लिखना आखिर किस कारण से जारी है....सिर्फ आपस के कतिपय संबंधों से थोड़ी-बहुत प्रशंसा पाने के लिए...??
दोस्तों बेशक हममे से कुछ लोग यूँ ही लिखते हैं मगर ज्यादातर लोग तो मेरी समझ से व्यथीत होकर ही लिखते हैं और उनकी वेदना उनके लेखन में दिखाई भी देती है...और अपने दैनिक जीवन में भी ऐसे बहुत से लोग अपने आस-पास को बदलने के लिए जूझते हुए भी दिखलाई पड़ते हैं....भले उसमें उन्हें सफलता मिले या ना मिले...मगर सच तो यह भी है कि सफलता भी एक ऐसी चीज है जो अथक परिश्रम से मिल कर ही रहती है...और घोर परिश्रम से मिली सफलता का स्वाद भी बेहद मधुर होता है....इसलिए ओ मेरे दोस्तों कुछ भी करने का अगर उचित मकसद हो तो देर-अबेर उसके कुछ वाजिब अर्थ भी निकल ही आते हैं....!!
आज यह सब लिखना यह सोचकर शुरू किया था कि मैं आखिर क्यूँ हूँ....और लिखते-लिखते इसके उत्तर तक भी आन पहुंचा हूँ...वो यह कि हमारा काम होता है...अपना काम अपने पूरे समर्पण के साथ करना..... और जैसा कि कृष्ण-बाबा कह गए हैं कि फल की चिंता मत कर-मत कर-मत कर....सो अपन भी कृष्ण-बाबा के गीता-रुपी इस कथन को अपने जीवन में अपरिहार्य बना लिया है मगर क्या है कि इंसान हैं ना,सो कभी-कभी दिमाग बिगड़े हुए बैल की माफिक हो जाता है और अंत-शंट सोचने लगता है...और सोचते-सोचते सोचने लगता है कि उफ़ मैं क्या लिखता हूँ....मैं क्यूँ लिखता हूँ....उफ़-उफ़-उफ़....कुछ भी नहीं बदलता मेरे लिखने से...भाग नहीं लिखना अपुन को कुछ...मगर क्या है कि कर्म ही अगर जीवन है...तो हर कर्म जीवन का एक अभिन्न अंग और चूँकि जिन्दगी मेरी भी अभिन्न अंग है...इसीलिए कर्म करते ही जाना है अपन को....और उसका परिणाम अरे ओ अर्जुन के सखा बाबा कृष्ण....जा तुझ पर छोड़ता हूँ आज...अभी...इसी वक्त से....अब तू ही सम्भाल मेरे कर्मों को और मुझे....मेरे खुद को भी.....!!संभालेगा ना ओ मेरे यार......???
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2 टिप्‍पणियां:

देवेन्द्र पाण्डेय ने कहा…

एक दीपक जलने से रात का अँधियारा नहीं मिट जाता लेकिन लेकिन इस बात का एहसास जरूर होता है कि अँधेरा मिट सकता है.
..यह एहसास भी कम नहीं है.

अंजली सहाय ने कहा…

आखिर हम क्यों लिखते हैं? इस बात को याद दिलाने के लिए बहुत बधाई .इस लेख में तमाम सवाल और साथ जवाब दोनो छिपा है.बस प्रयास अवश्य करते रहना चाहिए. वह सुबह ज़रुर आएगी.... सुबह का इन्तज़ार कर .

 
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