भारत का संविधान

"हम भारतवासी,गंभीरतापूर्वक यह निश्चय करके कि भारत को सार्वभौमिक,लोकतांत्रिक गणतंत्र बनाना है तथा अपने नागरिकों के लिए------- न्याय--सामाजिक,आर्थिक,तथा राजनैतिक ; स्वतन्त्रता--विचार,अभिव्यक्ति,विश्वास,आस्था,पूजा पद्दति अपनाने की; समानता--स्थिति व अवसर की व इसको सबमें बढ़ाने की; बंधुत्व--व्यक्ति की गरिमा एवं देश की एकता का आश्वासन देने वाला ; सुरक्षित करने के उद्देश्य से आज २६ नवम्बर १९४९ को संविधान-सभा में,इस संविधान को अंगीकृत ,पारित तथा स्वयम को प्रदत्त करते हैं ।"

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अरे भाई...जिंदगी तो वही देगी....जो...........!!

गुरुवार, 18 दिसंबर 2008


हम क्या बचा सकते हैं...और क्या मिटा सकते हैं......ये निर्भर सिर्फ़ एक ही बात पर करता है....कि हम आख़िर चाहते क्या हैं....हम सब के सब चाहते हैं....पढ़-लिख कर अपने लिए एक अदद नौकरी या कोई भी काम....जो हमारी जिंदगी की ज़रूरतें पूरी करने के लिए पर्याप्त धन मुहैया करवा सके....जिससे हम अपने परिवार का भरण-पोषण कर सकें...तथा शादी करके एक-दो बच्चे पैदा करके चैन से जीवन-यापन कर सकें...मगर यहाँ भी मैंने कुछ झूठ ही कह दिया है....क्यूंकि अब परिवार का भरण पोषण करना भी हमारी जिम्मेवारी कहाँ रही....माँ-बाप का काम तो अब बच्चों को पाल-पोस कर बड़ा करना और उन्हें काम-धंधे पर लगा कर अपनी राह पकड़ना है....बच्चों से अपने लिए कोई अपेक्षा करना थोडी ना है....वो मरे या जिए बच्चों की बला से.....खैर ये तो विषयांतर हो गया....मुद्दा यह है कि हम जिन्दगी में क्या चुनते हैं...और उसके केन्द्र में क्या है....!!........और उत्तर भी बिल्कुल साफ़ है....कि सिर्फ़-व्-सिर्फ़ अपना परिवार और उसका हित चुनते हैं...इसका मतलब ये भी हुआ कि हम सबकी जिन्दगी में समाज कुछ नहीं....और उसकी उपादेयता शायद शादी-ब्याह तथा कुछेक अन्य अवसरों पर रस्म अदायगी भर पूरी के लिए है....यानि संक्षेप में यह भी कि समाज होते हुए भी हमारे रोजमर्रा के जीवन से लगभग नदारद ही है...और कुछेक अवसरों पर वो हमारी जीवन में अवांछित या वांछित रूप से टपक पड़ता है....समाज की जरूरतें हमारी जरूरते नहीं हैं......और हमारी जरूरते समाज की नहीं....!!........ अब इतने सारे लोग धरती पर जन्म ले ही रहें हैं...और वो भी हमारे आस-पास ही....तो कुछ-ना-कुछ तो बनेगा ही....समाज ना सही....कुछ और सही....और उसका कुछ-ना-कुछ तो होगा ही....ये ना सही....कुछ और सही...तो समाज यथार्थ होते हुए भी दरअसल विलुप्त ही होता है....जिसे अपनी जरुरत से ही हम अपने पास शरीक करते है...और जरुरत ना होने पर दूध में मक्खी की तरह बाहर....तो जाहिर है जब हम सिर्फ़-व्-सिर्फ़ अपने लिए जीते हैं....तो हम किसी को भी रौंद कर बस आगे बढ़ जाना चाहते हैं....इस प्रकार सब ही तो इक दूसरे को रौदने के कार्यक्रम में शरीक हैं...और जब ऐसा ही है....तो ये कैसे हो सकता है भला कि इक और तो हम जिन्दगी में आगे बढ़ने की होड़ में सबको धक्का देकर आगे बढ़ना चाहें और दूसरी ओर ये उम्मीद भी करें कि दूसरा हमारा भला चाहे....!! ऐसी स्थिति में हम......हमारा काम.........और हमारी नौकरी ही हमारा एक-मात्र स्वार्थ...एक-मात्र लक्ष्य....एक-मात्र....एक-मात्र अनिवार्यता हो जाता है....वो हमारी देह की चमड़ी की भांति हो जाता है....जिसे किसी भी कीमत पर खोया नहीं जा सकता....फिर चाहे जमीर जाए...चाहे ईमान...चाहे खुद्दारी..चाहे अपने व्यक्तित्व की सारी निजता.....!!....हाँ इतना अवश्य है कि कहीं...कभी सरेआम हमारी इज्ज़त ना चली जाए.....!!.....मगर ऐसा भी कैसे हो सकता है...कि एक ओर तो हम सबकी इज्ज़त उछालते चलें...दूसरी और ये भी चाहें कि हमारी इज्ज़त ढकी ही रहे....सो देर-अबेर हमारी भी इज्ज़त उतर कर ही रहती है....दरअसल दुनिया के सारे कर्म देने के लेने हैं....और यह सारी जिन्दगी गुजार देने के बाद भी हम नहीं समझ नहीं पाते....ये भी बड़ा अद्भुत ही है ना कि दुनिया का सबसे विवेकशील प्राणी और प्राणी-जगत में अपने-आप सर्वश्रेष्ठ समझने वाला मनुष्य जिन्दगी का ज़रा-सा भी पहाडा नहीं जानता...और जिन्दगी-भर सबके साथ मिलकर जीने के बजाय सबसे लड़ने में ही बिता देता है....और सदा अंत में ये सोचता है....कि हाय ये जिन्दगी तो यूँ ही चली गई...कुछ कर भी ना पाये.....!!........अब यह कुछ करना क्या होता है भाई....??जब हर वक्त अपने पेट की भूख....अपने तन के कपड़े...अपने ऊपर इक छत के जुगाड़ की कामना भर में पागल हो रहे...और पागलों की तरह ही मर गए....तो ये कुछ करना भला क्या हुआ होता.....??.........जिन्दगी क्या है.........और इसका मतलब क्या....सबके साथ मिलकर जीने में अगर जीने का आनंद है....तो ये आप-धापी....ये कम्पीटीशन की भावना....ये आगे बढ़ने की साजिश-पूर्ण कोशिशें....ये कपट...ये धूर्तता...ये बेईमानी...ये छल-कपट....ये लालच...ये धन की अंतहीन....असीम चाहत....इस-सबको तो हर हालत में त्यागना ही होगा ही ना....!!??जीने के खाना यानी भोजन पहली और आखिरी जरुरत है....जरुरत है...और इस जरुरत को पूरा करने के लिए धरती के पास पर्याप्त साधन और जगह....मगर हमारी जरूरतें भी तो सुभान-अल्लाह किस-किस किस्म की हैं आज...??!! फेहरिस्त सुनाऊं क्या......??तो जब हमारी जरूरतों का ये हाल है...तो हमारा हाल भला क्या होगा...............हमारी जरूरतों से उनको प्राप्त करने के साधनों से कई गुना कर दें.... हमारा वास्तविक हाल निकल आयेगा...!! तो ये तो हमारी जिन्दगी है....अरे यही तो हमारा चुनाव है.....हमारी जरूरतों के चुनाव से तय होती है हमारी जिन्दगी....!!हमारे ही बीच से बहुत सारे लोग समाज के लिए जीकर निकल जाते हैं....उन्हें अपना ख्याल तक नहीं आता....और मज़ा यह कि ख़ुद जिंदगी उनका ख्याल रखती है.....और लोग-बाग़ जिनके बीच वो जीते हैं....वो उनका ख़याल रखते हैं.......और तो और हम तमाम अम्बानियों....मित्तलों...और ऐसी ही समाज की अनेकानेक अन्य विभूतियों को जरा सी देर में ही समाज द्वारा बिसार दिया जाता है.....और तमाम फ़कीर किस्म के लोग उसी समाज में हजारों वर्षों तक समाज की इक-इक साँस के साथ आते हैं....जाते हैं....!!!!तय तो हमें भी यही तो करना होता है....कि आख़िर हमें क्या करना है......अरे भाई....हम जो चाहेंगे जिन्दगी हमें वही तो देगी.....!!!???
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3 टिप्‍पणियां:

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

आज का आदमी धन और हुकूमत के पीछे दौड रहा है। रही बात इज़्ज़त की ... वो क्या है..सब कुछ पैसा और पवर ढ्क देता है। देखते नहीं, नेता जेल मॆं भी जाता है तो किस शान से!!!!

Alpana Verma ने कहा…

ये भी बड़ा अद्भुत ही है ना कि दुनिया का सबसे विवेकशील प्राणी और प्राणी-जगत में अपने-आप सर्वश्रेष्ठ समझने वाला मनुष्य जिन्दगी का ज़रा-सा भी पहाडा नहीं जानता.....

इंसान धन और वैभव के पीछे सदियों से लगा है ही..कितना भी मिले संतुष्टि की कोई हद्द कहाँ होती है.बहुत सही लिखा है.
अच्छा lekh है.

नीरज गोस्वामी ने कहा…

तो ये कैसे हो सकता है भला कि इक और तो हम जिन्दगी में आगे बढ़ने की होड़ में सबको धक्का देकर आगे बढ़ना चाहें और दूसरी ओर ये उम्मीद भी करें कि दूसरा हमारा भला चाहे....!!
बहुत सच्ची बात कही है आपने...पूरा लेख ही सोचने पर मजबूर करता है...बहुत सार्थक लेखन है....
नीरज

 
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