भारत का संविधान

"हम भारतवासी,गंभीरतापूर्वक यह निश्चय करके कि भारत को सार्वभौमिक,लोकतांत्रिक गणतंत्र बनाना है तथा अपने नागरिकों के लिए------- न्याय--सामाजिक,आर्थिक,तथा राजनैतिक ; स्वतन्त्रता--विचार,अभिव्यक्ति,विश्वास,आस्था,पूजा पद्दति अपनाने की; समानता--स्थिति व अवसर की व इसको सबमें बढ़ाने की; बंधुत्व--व्यक्ति की गरिमा एवं देश की एकता का आश्वासन देने वाला ; सुरक्षित करने के उद्देश्य से आज २६ नवम्बर १९४९ को संविधान-सभा में,इस संविधान को अंगीकृत ,पारित तथा स्वयम को प्रदत्त करते हैं ।"

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बुधवार, 31 दिसंबर 2008

आहा नया साल.......२००९.........!!??




मुझे नहीं पता ...................धरती के बहुत ही प्यारे-प्यारे दोस्तों ...............मुझे ये कतई नहीं पता कि आने वाला नया वर्ष किसके लिए कैसा है.....मगर जैसा कि हम सबकी तहेदिल से यही इच्छा होती है कि सब खुश रहे........आनंदित रहें.......सुकून से रहें.......और इसी के वास्ते हम सबको शुभकामना देते हैं...........और सबके आगामी दिवसों के प्रति मंगलदायक विचार प्रेषित करते हैं....और बदले में हमें भी वही सब तो मिलता है....जो हम दूसरों के लिए सोचते हैं........और जैसा कि हम सब जानते हैं कि दूसरों के गड्ढा खोदने वाले ख़ुद उसमे जा गिरते हैं.........तो फिर ऐसा करते ही क्यूँ हैं.........जब हमारे विचार दूसरों के प्रति अच्छे की भावना से प्रेरित होते हैं तब प्रैक्टिकली हम दूसरों के प्रति इतने गैर-संवेदनशील कैसे बन जाते हैं........कोई हमारी ही नज़रों के सामने किसी सामान्य सी पीड़ा से मर जाता है..........और हम चैन से अपने घर में बंशी बजाते सोये रहते हैं.........ये यही पाखण्ड मानवीयता है........क्या इक क्रूर.....धूर्त.......कमीने.....किस्म का दोगलापन ही आदमी को पशु से अलग करता है....वफादारी में आदमी नाम का ये जीव कुत्ते के पासंग भी नहीं माना जाता.....और भी कई मायनों में आदमी कई तरह के पशुओं के समकक्ष नहीं ठहरता.........और फिर भी को पशु से श्रेष्ठ कहे जाता है....पृथ्वी को मनमाफिक नष्ट करता है.....अपने पेट की भूख के लिए लाखों पशुओं का रोज़-ब-रोज़ संहार करता है......अपने सौन्दर्य और स्वास्थ्य के लिए समूचे जीव व् वनस्पति जगत का भयावह दोहन करता है........और फिर भी मंगल कामना के गीत गाता है.....किसका मंगल..........????किसका शुभ............??क्या इस ब्रहमांड में महज़ एक आदमी नामक जीव ही इतना महत्वपूर्ण है....कि जिसके आमोद-प्रमोद के लिए सब कुछ को नष्ट करना इक छोटा-सा खेल है.........और समूची सृष्टि महज़ आदमी का एक हथियार......???? अगर ऐसा ही है....तो हर नव-वर्ष आदमी-मात्र को ही मुबारक है.....तो बाकी की धरती का क्या हो...........????क्या वो आदमी द्वारा महज़ "पेले" जाने के लिए है.....??............ऐसे में मैं समझ ही पा रहा कि नए वर्ष का स्वागत मैं किस रूप में करूँ............????अगर पृथ्वी नष्ट होती है....तो आदमी भी तो.... और आदमी तो नित-प्रति यही तो किए जाता है............तो मैं किसको मुबारकबाद दूँ.......!!??फिर भी ओ प्यारे-प्यारे दोस्तों यदि मेरी बात तुम सबको समझ आती हो तो पृथ्वी पर के हर जीव...वनस्पति....चराचर जगत के जीवन को बचाते हुए चलो तो तुम्हे ये वर्ष तो क्या पृथ्वी का जीवन ही मुबारक हो.....हैप्पी-न्यू-इयर.......................!!!!देखो आ ही गया.............तुम्हारे द्वार............स्वागत करो इसका अपनी समस्त सच्चाईयों के साथ.................!!!!!!


रिश्ते किताबों की तरह होते हैं ...जिन्हें जलाने के लिए कुछ ही सेकंड काफी होते हैं ...लेकिन उन्हें लिखना उतना ही कठिन होता है। तो आइए नए साल में हम मानवता के बीच ऐसे ही मजबूत मानवीय रिश्तों का संकल्प लें।............(मीत)



शनिवार, 27 दिसंबर 2008

होता है शबो-रोज़ तमाशा मेरे आगे.....!!!


एक भाई ने आज ग़ालिब की याद दिला दी.....और जिक्र ग़ालिब का आते ही मैं बावला सा हो जाता हूँ......आज से कोई बीस साल या उससे भी कहीं पहले दीवाने-ग़ालिब को अपने हाथों से अपनी डायरी में सधे हुए हर्फों में उकेरा था.....तब से कितने ही मौसम आए-गए.....मैं उन्हें गुनगुनाता ही रहा....बरसों बाद गुलज़ार साहब के मिर्जा ग़ालिब में नसरुद्दीन शाह.....जगजीत सिंह....और ख़ुद गुलज़ार जैसे एकमेक हो गएँ.....तीनो की आवाजें जैसे ग़ालिब की आवाजें बन गयीं....और नसीर भाई जैसे साक्षात् ग़ालिब.....अपने घर में मैं अकेला यह सीरियल देखता था.....और जगजीत द्वारा गायीं गयीं ग़ालिब की ग़ज़लें मेरे जेहन में हमेशा के लिए अंकित हो गयीं.....इन्हें ही गुनगुनाता जीता चलता हूँ....ग़ालिब को मैंने गाफिल कर लिया है.....मैं ग़ालिब तो हो नहीं सकता था इसलिए गाफिल हो गया......आज ग़ालिब की बड़ी याद आ रही है और मेरे जेहन में उनके शेर हवाओं की तरह सरसरा रहे हैं....और मुझे तरो-ताज़ा करते हुए मेरे गले से लिपटते हुए मेरे पोर-पोर में समा जा रहे हैं.....पूरा दीवान तो कैसे पेश करूँ....कुछ शेर ही सही....आप भी इनमें समा कर देख लो ना....कहीं गहरे ही डूब जाओगे.....सच.....हाँ सच....!!!!!
"ना था कुछ तो खुदा था,कुछ ना होता तो खुदा होता

डुबोया मुझको होने ने, ना होता मैं, तो क्या होता !!"

"कैदे-हयात-ओ-बन्दे-गम असल में दोनों एक हैं...

मौत से पहले आदमी गम से निजात पाये क्यूँ..."

"बाज़ीचा-ऐ-इत्फाल है दुनिया मेरे आगे

होता है शबो-रोज़ तमाशा मेरे आगे"

" जला है जिस्म जहाँ, दिल भी जल गया होगा

कुरेदते हो जो अब राख जुस्तजू क्या है ?"

"रही ना ताकते-गुफ्तार और अगर हो भी...

तो किस उम्मीद पे कहिये कि आरजू क्या है!"

"गमे-हस्ती का असद किससे हो जुज़ मर्ग इलाज़

शमां हर रंग में जलती है सहर होने तक...!!"

"इश्क मुझको नहीं वहशत ही सही

मेरी वहशत तेरी शोहरत ही सही

हम कोई तर्क-ऐ-वफ़ा करते हैं

ना सही इश्क मुसीबत ही सही"

"दे के ख़त मुंह देखता है नामाबर

कुछ तो पैगाम-ऐ-जबानी और है

हो चुकी"गालिब"बलाएँ सब तमाम

एक मर्ग-ऐ-नागाहानी और है "

"दिल ही-संगोखिर्श्त,दर्द से भर ना आए क्यूँ

रोयेंगे हज़ार बार कोई हमें सताए क्यूँ "

गालिबे-खास्ता के बगैर कौन से काम बंद हैं

रोईये जार-जार क्या,कीजिये हाय-हाय क्यूँ"

"कम जानते थे हम भी गमे-इश्क को,पर

अब देखा तो कम हुए पे गम-ऐ-रोज़गार था "

(कम होने पर भी संसार भर के ग़मों के बराबर था...!)

"था जिंदगी में मौत का खटका लगा हुआ

उड़ने से पेशतर भी मेरा रंग ज़र्द था !!"

''बकद्रे-ज़र्फ़ है साकी खुमार-ऐ-तश्नाकामी भी

जो तू दरिया-ऐ-मय है तो मैं खमयाज़ा हूँ साहिल का "

"बस के दुश्वार है हर काम का आसां होना

आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसा होना "

"दोस्त गमख्वारी में मेरी सअई फरमाएंगे क्या

ज़ख्म भरने तलक नाखून ना बढ़ आयेंगे क्या "

( सअई=सहायता )

''ये कहाँ की दोस्ती है कि बने हैं दोस्त नासेह (उपदेशक)

कोई चारासाज़ होता कोई गमगुसार होता "

"कहूँ किससे मैं कि क्या है,शबे-गम बुरी बला है

मुझे क्या बुरा था मरना अगर एक बार होता "

''थी ख़बर गर्म कि "ग़ालिब" के उडेंगे पूर्जे

देखने हम भी गए थे पै तमाशा ना हुआ "

"ले तो लूँ सोते में उसके पाव का बोसा मगर

ऐसी बातों से वो काफिर बदगुमा हो जायेगा "

''कितने शीरीं हैं तेरे लब कि रकीब

गालियाँ खाके भी बे मज़ा ना हुआ "

"ग़ालिब"बुरा ना मान जो वाईज बुरा कहे

ऐसा भी कोई है सब अच्छा कहें जिसे !!"

"मगर लिखवाये कोई उसको ख़त तो तो हमसे लिखवाये

हुई सुबह और घर से कान पर धरकर कलम निकले...

मुहब्बत में नहीं है फर्क जीने और मरने का

उसीको देखकर जीते हैं जिस काफिर पे दम निकले "

"कहाँ मयखाने का दरवाज़ा "ग़ालिब"और कहाँ वाईज

पर इतना जानते हैं कल वो जाता था की हम निकलें ""

.................तो प्यारे मित्रों ये थे गालिब के चुनींदा से रंग.....इन्हीं रंगों से मियाँ गाफिल सराबोर रहते हैं....अपनी धून में खोये रहते हैं....अपनी समस्याओं से लड़ते हैं....और अपने जीवन को बिंदास बनाने की हर सम्भव कोशिश करते हैं...और कोशिशे कामयाब भी होती हैं....सच....!!सुभान अल्लाह ..............!!

मैं कौन हूँ.....!!?? भूत....!! और क्या.....!!


bhoothnath said...
हा-हा-हा-हा-हा-हा-हा-.................मैं भूत बोल रहा हूँ........!!मुझे नहीं जानते..........??अरे दुष्ट...........हमेशा खुश-सी रहने वाली इस आत्मा को तुम नहीं जानते.....?? हमसे दूर हो जाने वाले ओ प्यारे से शख्स...........हमने कभी अपनी यादें नहीं बिसराई..........ब्लॉग नहीं देखता था...तब भी तुम याद थे....मैंने अपनी खुशनुमा पलों को बार-बार-बार-बार जिया है....इस बहाने अपने अतीत को फ़िर से पिया है.....मेरे अतीत में तुम भी अब तक हँसते-बोलते बैठे हुए हो....अपनी जिन्दगी में इतने सारे लोगों को आते-जाते देखा..........की जिन्दगी नई और पुरानी एक साथ ही लगी........भूतनाथ बनकर मैं इसे दगा देने की फिराक में हूँ.....मौत आएगी तो मैं मिलुगा नहीं....और भूत की मौत तो होनी ही नहीं.....हा..हा..हा..हा..भाई अमिताभ प्यारी यादें एक तिलिस्म होती हैं....इसमें घुसकर कोई बाहर निकलना नहीं चाहता....मैं तो एक साथ ही अतीत और वर्तमान बनकर रहता हूँ.....मजा आता है....मैं दूसरों की भी यादें जगाना रहता हूँ....और भी बहुत कुछ....मगर इक-इक कर के.....मगर नाम तो मैं अपना नहीं बताउंगा मैं....कभी नहीं....वो तो तुम्हे ही याद करना होगा...कि कौन है जो ऐसा था.....आज भी ऐसा ही है...बस थोड़ा-सा बदल कर.......यु विल बी "चकित"...........आज बस इतना ही.....और हाँ कविता का जवाब मैं कविता से ही देता रहा हूँ....आज तुन्हें बख्श दिया.....हा.....हा...हा..हा..हा...हा...!!अब सोचते रहो कि क्या बला हूँ मैं.....!!??जल्द ही बताऊंगा दोस्तों.......!!!!!
शुक्रवार, 19 दिसंबर 2008

अब यहाँ और नहीं....बस....!!

................हा॥हा।हा...हा॥हा.....आज से इस जगह पर वीराना छा जाएगा......और सन्नाटा गूंजेगा.....सरसराती हुई हवा गुजरेगी....और इस खाली हुई जगह पर धूल का बवंडर उडाती हुई घूमा करगी.....यहाँ अब भूतनाथ कदमताल नहीं करेगा....!!..........उसकी इक आहट तक सुनाई नहीं देगी.....यहाँ जो भी आएगा....यही सोचेगा की ये काला-काला ब्लॉग......बिचारा भूतनाथ....अच्छा हुआ जो दुःख-भरी दुनिया से चला गया....और रहता तो हमारी तरह और रोता....बताऊँ क्यूँ जा रहा हूँ.... नहीं बताता जाओ.....!!कुछ लिखने से भला क्या बदलता है....?? और कौन मोटिवेट होता है.......??कौन बदलता है.......??तो क्या लिखना सिर्फ़ स्वांत-सुखाय भर होता है.....कल्पना की उडाने....या करुणा के भाव.....या यथार्थ से उपजी बेबसी.....या अपनी ही कोई पीड़ा......??....बदलाव अगर इतना ही आसां होता तो कितने ही बुद्द-पुरूष इस जहाँ से गुजर गए.....दुनिया मगर वहीं-की-वहीं ही है.... रत्ती भर भी बदली क्या.....??....साधनों के हिसाब से ....जरुरत के हिसाब से....या स्वार्थों के हिसाब से कुछ बदलाव अवश्य दिखलाई पड़ते है....मगर हकीकत में समाज की मानसिक दशा जानवरों के समान ही रहती है.......किसी को पीड़ा....किसी से हिंसा.....किसी की हत्या.....किसी से व्यभिचार.....किसी पर अत्याचार.....क्या यही है संसार......??अपनी ही बात बताने और मनवाने की थेथरई....और ना मानने पर दिखायी देता अपना कोई और ही विकृत रूप....गंदा और घृणित चेहरा.....पैसे और ताकत का चारों और वर्चस्व......सच्चाई का घुटता गला....कमज़ोर लोगों से जानवरों सा बर्ताव....और गधों सा कार्य लेना....क्या यही संसार है....ऐ भूतनाथ...तू यहाँ कर रहा है यार.....चल यार चल यहाँ से.....अबे तेरा यहाँ क्या काम है.....??भूतनाथ को मौत आवाज़ देती है.....मगर आम आदमियों की तरह भूतनाथ भी मुंह लटकाकर वही एक रटा-रटाया जवाब देता है.......अभी ज़रा रूक ना.....बीवी हैं.....बच्चे हैं....उनका क्या होगा....??रोने लगता है भूतनाथ.....ऐ मौत ज़रा रूक जा ना.... ऐ मौत ज़रा रूक जा ना.....जरा बीवी-बच्चों की परवरिश का सही हिसाब-किताब बिठा दूँ.... फ़िर आ जाना ना.....प्लीज़....मौत पलट जाती है...किसी छोटे से-प्यारे से आज्ञाकारी बच्चे की तरह.....समय बीतता चला जाता है...आवश्यकताएं....बढती चली ही जाती हैं....सपने सारे हवा में चमगादडों की तरह उल्टे लटक जाते हैं जिंदगी-भर के लिए.....!!जिन्दगी में लोग आते-जाते रहते हैं....मगर इक सन्नाटा सायं-सायं.....बजता ही रहता है......चारों तरफ़ नफरत....लडाई झगडों की कायं-कायं....हर मोड़ पर तरह-तरह के झगडे-झंझट.....हर जगह अंहकार की धमक....और हर जगह आगे जाने के लिए एक पीड़ा भरी प्रतिस्पर्धा......!!....ख़ुद के जीने के लिए बाकी सबका सत्यानाश......क्या यही संसार है.....ऐ भूतनाथ....अरे चल ना यार.....चल....क्या करेगा तू यार यहाँ....जाने कितने लोग यहाँ जाने क्या-क्या कहते हुए चले गए....तू किस खेत की मूली है बे.......??माहौल कुछ बदला तो फ़िर आ जायेंगे.................तो भई...अपन तो चले....कुछ होने को....ना हाने को....हम क्यूँ रहे यहाँ बात बनाने को.....!!कायरों की फौज थी वो तो....हम बेकार ही गए वां जान लड़ाने को....!!.....इक धनुष तो पकड़ना आता तक नहीं.....और चले हैं तीर चलाने को.....!!...अगरचे हम सब बच्चों की तरह हो जाएँ.......चलो ना चले अल्ला को समझाने को....!!अबे गर्दन रेत कर रख देंगे ये तिरी........बड़ा चला है जोश में हाथ मिलाने को....!!दुनिया देखकर जब अल्ला भी मर गया....मियाँ "गाफिल" ही गए उसे जिलाने को.....!
गुरुवार, 18 दिसंबर 2008

आदमी की इज्ज़त कुछ और होती है.....!!


भई बनी हुई चीजों की जीनत कुछ और होती है......
और टूटी हुई चीजों की कीमत कुछ और होती है.....!!
मर-मर कर जीना तो बहुत ही आसान है ऐ दोस्त....
जिंदादिल लोगों की तो हिम्मत कुछ और होती है.....!!
एक ही बार तो आता है आदम यहाँ धरती पर.....
बनकर रहे आदम ही तो रिवायत कुछ होती है....!!
हम गाफिल लोग ही रहते हैं आदतों के बाईस........
और फकीरों की तो हाजत ही कुछ और होती है...!!
जो "धन"को जीते हैं उनका चेहरा होता है कुछ और .......
प्यार बांटने वालों की तो लज्जत ही कुछ और होती है.....!!
लोग जाने क्या-क्या "फिजूल"चाहते हुए ही मर जाते हैं.....
जिन्दगी जीने वालों की तो चाहत ही कुछ और होती है.....!!
जब हम सिर्फ़ अपने लिए जीते हैं तो गम ही मिलता है.....
सबपे जीते इंसा पे अल्ला की इनायत कुछ और होती है....!!
धारा के साथ जीने को तो सब जीते हैं "गाफिल"
इसके ख़िलाफ़ वालों की ताकत कुछ और होती है.....!!

अरे भाई...जिंदगी तो वही देगी....जो...........!!


हम क्या बचा सकते हैं...और क्या मिटा सकते हैं......ये निर्भर सिर्फ़ एक ही बात पर करता है....कि हम आख़िर चाहते क्या हैं....हम सब के सब चाहते हैं....पढ़-लिख कर अपने लिए एक अदद नौकरी या कोई भी काम....जो हमारी जिंदगी की ज़रूरतें पूरी करने के लिए पर्याप्त धन मुहैया करवा सके....जिससे हम अपने परिवार का भरण-पोषण कर सकें...तथा शादी करके एक-दो बच्चे पैदा करके चैन से जीवन-यापन कर सकें...मगर यहाँ भी मैंने कुछ झूठ ही कह दिया है....क्यूंकि अब परिवार का भरण पोषण करना भी हमारी जिम्मेवारी कहाँ रही....माँ-बाप का काम तो अब बच्चों को पाल-पोस कर बड़ा करना और उन्हें काम-धंधे पर लगा कर अपनी राह पकड़ना है....बच्चों से अपने लिए कोई अपेक्षा करना थोडी ना है....वो मरे या जिए बच्चों की बला से.....खैर ये तो विषयांतर हो गया....मुद्दा यह है कि हम जिन्दगी में क्या चुनते हैं...और उसके केन्द्र में क्या है....!!........और उत्तर भी बिल्कुल साफ़ है....कि सिर्फ़-व्-सिर्फ़ अपना परिवार और उसका हित चुनते हैं...इसका मतलब ये भी हुआ कि हम सबकी जिन्दगी में समाज कुछ नहीं....और उसकी उपादेयता शायद शादी-ब्याह तथा कुछेक अन्य अवसरों पर रस्म अदायगी भर पूरी के लिए है....यानि संक्षेप में यह भी कि समाज होते हुए भी हमारे रोजमर्रा के जीवन से लगभग नदारद ही है...और कुछेक अवसरों पर वो हमारी जीवन में अवांछित या वांछित रूप से टपक पड़ता है....समाज की जरूरतें हमारी जरूरते नहीं हैं......और हमारी जरूरते समाज की नहीं....!!........ अब इतने सारे लोग धरती पर जन्म ले ही रहें हैं...और वो भी हमारे आस-पास ही....तो कुछ-ना-कुछ तो बनेगा ही....समाज ना सही....कुछ और सही....और उसका कुछ-ना-कुछ तो होगा ही....ये ना सही....कुछ और सही...तो समाज यथार्थ होते हुए भी दरअसल विलुप्त ही होता है....जिसे अपनी जरुरत से ही हम अपने पास शरीक करते है...और जरुरत ना होने पर दूध में मक्खी की तरह बाहर....तो जाहिर है जब हम सिर्फ़-व्-सिर्फ़ अपने लिए जीते हैं....तो हम किसी को भी रौंद कर बस आगे बढ़ जाना चाहते हैं....इस प्रकार सब ही तो इक दूसरे को रौदने के कार्यक्रम में शरीक हैं...और जब ऐसा ही है....तो ये कैसे हो सकता है भला कि इक और तो हम जिन्दगी में आगे बढ़ने की होड़ में सबको धक्का देकर आगे बढ़ना चाहें और दूसरी ओर ये उम्मीद भी करें कि दूसरा हमारा भला चाहे....!! ऐसी स्थिति में हम......हमारा काम.........और हमारी नौकरी ही हमारा एक-मात्र स्वार्थ...एक-मात्र लक्ष्य....एक-मात्र....एक-मात्र अनिवार्यता हो जाता है....वो हमारी देह की चमड़ी की भांति हो जाता है....जिसे किसी भी कीमत पर खोया नहीं जा सकता....फिर चाहे जमीर जाए...चाहे ईमान...चाहे खुद्दारी..चाहे अपने व्यक्तित्व की सारी निजता.....!!....हाँ इतना अवश्य है कि कहीं...कभी सरेआम हमारी इज्ज़त ना चली जाए.....!!.....मगर ऐसा भी कैसे हो सकता है...कि एक ओर तो हम सबकी इज्ज़त उछालते चलें...दूसरी और ये भी चाहें कि हमारी इज्ज़त ढकी ही रहे....सो देर-अबेर हमारी भी इज्ज़त उतर कर ही रहती है....दरअसल दुनिया के सारे कर्म देने के लेने हैं....और यह सारी जिन्दगी गुजार देने के बाद भी हम नहीं समझ नहीं पाते....ये भी बड़ा अद्भुत ही है ना कि दुनिया का सबसे विवेकशील प्राणी और प्राणी-जगत में अपने-आप सर्वश्रेष्ठ समझने वाला मनुष्य जिन्दगी का ज़रा-सा भी पहाडा नहीं जानता...और जिन्दगी-भर सबके साथ मिलकर जीने के बजाय सबसे लड़ने में ही बिता देता है....और सदा अंत में ये सोचता है....कि हाय ये जिन्दगी तो यूँ ही चली गई...कुछ कर भी ना पाये.....!!........अब यह कुछ करना क्या होता है भाई....??जब हर वक्त अपने पेट की भूख....अपने तन के कपड़े...अपने ऊपर इक छत के जुगाड़ की कामना भर में पागल हो रहे...और पागलों की तरह ही मर गए....तो ये कुछ करना भला क्या हुआ होता.....??.........जिन्दगी क्या है.........और इसका मतलब क्या....सबके साथ मिलकर जीने में अगर जीने का आनंद है....तो ये आप-धापी....ये कम्पीटीशन की भावना....ये आगे बढ़ने की साजिश-पूर्ण कोशिशें....ये कपट...ये धूर्तता...ये बेईमानी...ये छल-कपट....ये लालच...ये धन की अंतहीन....असीम चाहत....इस-सबको तो हर हालत में त्यागना ही होगा ही ना....!!??जीने के खाना यानी भोजन पहली और आखिरी जरुरत है....जरुरत है...और इस जरुरत को पूरा करने के लिए धरती के पास पर्याप्त साधन और जगह....मगर हमारी जरूरतें भी तो सुभान-अल्लाह किस-किस किस्म की हैं आज...??!! फेहरिस्त सुनाऊं क्या......??तो जब हमारी जरूरतों का ये हाल है...तो हमारा हाल भला क्या होगा...............हमारी जरूरतों से उनको प्राप्त करने के साधनों से कई गुना कर दें.... हमारा वास्तविक हाल निकल आयेगा...!! तो ये तो हमारी जिन्दगी है....अरे यही तो हमारा चुनाव है.....हमारी जरूरतों के चुनाव से तय होती है हमारी जिन्दगी....!!हमारे ही बीच से बहुत सारे लोग समाज के लिए जीकर निकल जाते हैं....उन्हें अपना ख्याल तक नहीं आता....और मज़ा यह कि ख़ुद जिंदगी उनका ख्याल रखती है.....और लोग-बाग़ जिनके बीच वो जीते हैं....वो उनका ख़याल रखते हैं.......और तो और हम तमाम अम्बानियों....मित्तलों...और ऐसी ही समाज की अनेकानेक अन्य विभूतियों को जरा सी देर में ही समाज द्वारा बिसार दिया जाता है.....और तमाम फ़कीर किस्म के लोग उसी समाज में हजारों वर्षों तक समाज की इक-इक साँस के साथ आते हैं....जाते हैं....!!!!तय तो हमें भी यही तो करना होता है....कि आख़िर हमें क्या करना है......अरे भाई....हम जो चाहेंगे जिन्दगी हमें वही तो देगी.....!!!???
बुधवार, 17 दिसंबर 2008

गरीबी....महसूसना कैसा होता है........????





गरीबी को देखा भी है....और महसूस भी किया है.....मगर इन दोनों बातों और ख़ुद के भोगने में बहुत अन्तर है....इसलिए गरीबी जीना....और महसूस करने में हमेशा एक गहरी खायी बनी ही रहेगी....लाख मर्मान्तक कविता लिख मारें हम....किंतु गरीबी को वस्तुतः कतई महसूस नहीं कर सकते हम...बेशक समंदर की अथाह गहराईयाँ नाप लें हम....!!!क्या है गरीबी.....अन्न के इक-इक दाने को तरसती आँखें...? कि बगैर कपडों के ठण्ड से ठिठुरती देह....??कि शानदार छप्पनभोगों का लुत्फ़ उठाते रईसों को ताकती टुकुर-टुकुर नज़रें....!!!कि इलाज़ के अभाव में इक ज़रा से बुखार से मौत का ग्रास बन जाती अमूल्य जिंदगियां......??कि नमक के साथ खायी जाने वाली रोटी या भात....??कि टूटे हुए छप्परों से बेतरह टपकता पानी....और बेबस-ताकती पथराई-सी आँखें....?? कि भयंकर धुप में कठोरतम भूख से बेजान शरीर से अथक और पीडादायी श्रम करते मामूली-से लाचार इन्सान....?
?कि जरा-सी गलती-भर से अपमानजनक टिप्पणियों तथा बेवजह मार का शिकार हो जाना.....??कि ज़रा-ज़रा-सी बात पर माँ-बहन की गंदी गालियों की बौछारें...??कि
कुछ सौ रूपयों में खरीद लेना इक जीवित इंसान का समूचा वक्त और पर्व-त्यौहार में भी अपना घर छोड़कर सेठजी की चाकरी...??कि छुट्टी या पगार बढ़ाने की किसी भी बात पर सेठजी की त्योरी और नौकरी से हटाने की धमकी.....!!कि किसी ऊँचे घर के कुत्ते-बिल्लियों से भी निम्नस्तरीय जीवन.....??कि धरती की गोया सबसे बदतरीन जगहों पर सूअरों की भांति ठुंसे हुए लोग....??कि गन्दा पानी पीते....झूठन खाते.....उतरन पहनते....हर वक्त मालिक की सलामी बजाते...जी-हुजूरी करते बस जिन्दगी काट लेने-भर को जिन्दगी जीते लोग.....!!कि दिन-रात मौत का इंतज़ार करती धरती की आबादी की आधी से ज्यादा आम जनता........यही गरीबी है... इस गरीबी क्या अर्थ है...??इस गरीबी को महसूसना भला कैसा हो सकता है....??इस गरीबी के विषय में लिखने के अलावा क्या किया जा सकता है....पता नहीं कुछ किया जा सके अथवा नहीं....मगर इस पर मर्मान्तक-लोमहर्षक गाथा लिख-कर कोई मैग्सेसे....नोबेल....फलाने या ढिकाने पुरस्कार तो अवश्य ही लिए जा सकते हैं....हैं ना......!!???
मंगलवार, 16 दिसंबर 2008

हे सुभाष !!अब हम क्या करें....???

हे सुभाष !! अब हम क्या करें......??
आज रांची हल्ला में नदीम भाई की एक पोस्ट देखी अमेरिकी राष्ट्रपति बुश पर एक पत्रकार द्वारा जूता फेंके जाने को ग़लत ठहराने को लेकर....मुझसे रहा नहीं गया.....और उनको लिखी प्रतिक्रिया यहाँ भी चस्पां कर दी.....एक नागरिक की प्रतिक्रिया के रूप में ...सम्भव है कि मेरा गुस्सा नाजायज हो मगर प्रश्न तो यही है कि इलाज़ आखिर क्या है....उत्तर आखिर क्या हैं ??आगे हमको करना क्या है....??भारत की समस्याएं क्या हैं....और उनका हल क्या है .....सिर्फ़ जबानी जमा-खर्च..........कि इससे आगे भी कुछ....और वह कुछ क्या.............??????

...........................बस एक ही बात कहूँगा भाई....कि देश से बहुतारह प्यार करने वाले इन्सानों के पास जब कोई चारा नहीं बचता तब वे ऐसे कृत्य करने को विवश हो जाते हैं... हजारों ऐसी घटनाएं हैं जहाँ एक अपराधी को दंड नहीं मिला.....अंत में जनता ने हिंसा द्वारा...रक्तपात द्वारा बात का उपसंहार किया.......इसे ग़लत नहीं ठराया जा सकता.......सच तो यह है कि तमाम पढ़े-लिखे लोग तो अपना भविष्य...अपनी नौकरी....मानवाधिकार...और ना जाने कितने ही अनजान कारणों से जरुरी कदम नहीं उठाते....मामला सर से बहुत ऊपर जा पहुंचता है...और तमाम विद्वान-विज्ञ जन चीख-पुकार मचाते रह जाते हैं....अंत में जनता अपना फैसला देती है....तब हम फिर चीखने लग जाएँ...कि हाय-हाय ये तो ग़लत हुआ..... ये तो ग़लत हुआ..... अरे भई जब मब कुछ कबाड़ नहीं पाते तो जो कुछ लोग कुछ कबाड़ने की चेष्टा करते हैं...तो उन्हें करने ही दें ना...ये दरअसल उत्तेजना भर नहीं है....आप देखियेगा भारत में आगे इससे भी बुरा होने जा रहा है....मेरे देखे तो भारत की सड़कों पर तरह-तरह के राजनीतिक अपराधी ,जो तमाम सबूतों के मद्देनज़र और जनता तथा मीडिया की नज़र में पुख्ता तौर पर अपराधी हैं,दौड़ा- दौड़ा कर मारे जाने वाले हैं...और सम्भव है कि उनका नेतृत्व मेरे या आपके बीच ही के कुछ लोग कर रहे हों...या ख़ुद हम ही हों....!!!! असल में भाई सब्र की भी एक इन्तहां होती है....भारत के सन्दर्भ में वो इन्तेहाँ अब ख़त्म होने को आई है....या ख़त्म हो ही चुकी है...अपराधी मन- चले व्यभिचारी सांडों की तरह छुट्टे घूम रहें हैं....और भारत के हर महकमे में...सड़क पर....घर में...हर जगह पर भारत माता का बलात्कार करते...उसकी आत्मा को कचोटते....उसका चीरहरण...उसका मान-मर्दन करते...और उसकी मासूम संतानों पर घनघोर अत्याचार करते राक्षसों की भाति अट्टहास करते....फुफकार करते... अपने अंहकार-शक्ति-धन आदि का फूहड़ प्रदर्शन करते.....विद्रूप रचते.....गोया कि सत्ता के अंधे मद में अपने लिंग का प्रदशन करते घूम रहे हैं...इस सत्ता को कौन जवाब देगा....जनता ही ना.....झारखंड के सन्दर्भ में तो यह तथ्य और भी बेबाक और अश्लीलता की हद से भी गया-बीता या नंगा है....तो इसका इलाज आख़िर क्या है...!!सच जानिए भाई....जनता इन सबको सरेआम पूरी तरह नंगा करके इतना मारेगी-इतना मारेगी कि इनकी सात पुश्त तक की संताने भी प्रदर्शन नाम की चीज़ क्या होती है....यह तक भूल जायेगी....हम और आप जैसे लोग सभ्यता के नाम पर चीखते ही रह जायेंगे कि हाय..हाय ये तो ग़लत है...ये तो ग़लत है....!! अंत में सच तो यही है....परिवर्तन के बारे में हम जैसे लोग सिर्फ़ सोचते हैं....परिवर्तन तो अंततः जनता ही करती है.....करती है ना.....!!!
सोमवार, 15 दिसंबर 2008

एक बात कहनी थी आपसे...कहूँ...??


आप लाजवाब लिखते हो साहब....मगर ये इस ग़ज़ल में वो बात नहीं......जो बात...........आप समझ गए होंगे.....हम सबको सिर्फ़ बढ़िया है...और एक-दूसरे को बधाई ही देने से फुर्सत नहीं मिलती....मजा यह कि हर ब्लागर की हर रचना श्रेष्ट ही होती है.....मगर यह सच भी नहीं होता.........अब ब्लॉग जगत में इस बात की गुन्जायिश जरूरी हो गई है....कि रचनाओं पर सच में ही सारगर्भित टिप्पणियां हों...ना कि सिर्फ़-व्-सिर्फ़ प्रशंसा के भाव...........आपकी रचनाएँ बड़ी अच्छी होती हैं... मगर सारी तो किसी की भी अच्छी नहीं हो सकती.....फिर कुछ ऐसे भी तो हैं...जो वाकई बहुत लाज़वाब नहीं लिखते....मगर उनकी भी वैसी ही प्रशंसा हम पाते हैं... क्यूँ भाई....एक कम अच्छी रचना को आप जरुरत से ज्यादा सम्मान देकर क्या आप उसकी भलाई करते हो....??नहीं ये उसका नुक्सान ही है....वो कमतर चीजों को भी अच्छा ही मान लेगा....और उसका टेस्ट शुरुआत से ही कमतर रह जायेगा.....!!.......प्रशंसा अच्छी बात है.....मगर औसत चीज़ के बारे में उचित ढंग से बताया जाना ज्यादा अच्छी प्रशंसा होगी...वो किसी नए...किंतु समझदार लेखक के लिए उसके हित का साधन भी बनेगी....और गैर समझदार अगर अनावश्यक रूप से उसे तूल दे...दे....तब भी कई ब्लागरों द्वारा उसे समझाया जाना मुमकिन है.....अमूमन तो सभी आए दिन अपनी पोस्ट प्रकाशित करते हैं....मगर वो हमेशा ही अपने "स्वामी" के स्तर की हो ही....ये कतई जरूरी नहीं.....हम सब लेखक भी हैं और अपने ही प्रकाशक भी.....यानि कि हम सब अकेले-अकेले भी मिडिया की इक-इक इकाई हैं....मिडिया के अंकुश में रहने की बात तो हमने कर दी....मगर हम पर किसका अंकुश है...??और अंकुश-हीन हम प्रकाशक-ब्लॉगर-लेखक जो स्तरीयता की मिसाल बन सकते हैं अपनी हड़बड़ी में...........रचनाओं को पेलने की अपनी घनघोर शौकीनी में ख़ुद अपनी-.....हिन्दी की-.......ब्लागर-जगत की-.....और हिन्दी- साहित्य का ही नुक्सान ना कर बैठें....!!हर रचना तो प्रेमचंद...ग़ालिब....मीर......आदि-आदि-आदि की भी जबरदस्त नहीं हुई थी.........हम किस खेत की मुली हैं....?? भाईयों .... इसे आप अपने ऊपर मत ले लीजियेगा.....आज तो बस इक विचार आ गया....जो जाने कब से मन में घूमता रहा है....आज संयोग-वशात मन से बाहर निकल पड़ा...वो भी आपकी रचना पर कमेन्ट के रूप में....सच में तो मैं आपसे बड़ा छोटा हूँ....मगर क्या करूँ आपने ख़ुद ने अपने लिए मानदंड काफ़ी ऊँचे बना लिए हैं... वैसे मेरा कमेन्ट आप-पर है भी नहीं...ये मुझ-सहित सब पर पूरी शिद्दत के साथ लागू होता है..........कम-से-कम उन सभी पर जो ब्लागरों में अत्यन्त लोकप्रिय हैं... सभी नए आने वालों को सही बात बताना बड़ों का कर्तव्य है...बिना अपनी बदनामी वगैरह की बाबत सोचे हुए...बदनाम होकर भी यदि कुछ अच्छा हो जाए तो यह ठीकरा आज मेरे ही सर....मैं यहाँ सीखने आया था....लेकिन देखा कि यहाँ तो कुछ सिखाया तो जाता ही .....!!नहीं बस रचनाएं ही रचनाये पेली जाती हैं....और अपनी रचनाओं पर टिप्पणियों का आनंद.....!!.....थोड़ा मज़ा तो मैंने भी लिया....मगर वही-वही-वही-वही..........देखते हुए अब ऊब-सी हो रही है...ये इसलिए है...कि सब (मेरे सहित) के सब दीवाने-गालिब-सी पुस्तक शायद आधे साल में ही ठोक देने वालें हैं.....बेशक "दीवान" पर रखने लायक उनमें चार भी ना हों....!!........ यह दुनिया बड़ी अद्भुत है... छोटे-छोटे युवा भी चकित कर देने वाला साहित्य रच रहे हैं.....बेशक साहित्य की अधिकता के कारण बहुत सारी अधबनी..अधूरी...अपरिपूर्ण रचनाएं भी आ जा रही हैं.....अब तक मैं ख़ुद भी इसमें शामिल रहा हूँ.... मगर अब और नहीं...!!.......सोचना भी जरुरी है कि कितना-क्या-और किस हद तक सही है खुबसूरत भी...और समय की आवश्यकता भी......!!....सिर्फ़ तात्कालिक भाव भर ही न हों.....हमारे विचार....!!...बल्कि ऐसे भी हों जो हमें चकित भी करें...और उसी वक्त व्यथित भी... भाईयों आपकी पोस्ट पर हमेशा अच्छा लगा है...मेरी बात को अन्यथा ना ले लेंगे...मुझे आपका प्यार और सुझाव दोनों ही चाहिए....जिसे मैंने बड़ी शिद्दत से एक टिप्पणी में आपसे मांगे भी थे....हम सभी ग़ज़ल के...कविता के....या किसी और विषय के जानकारों को अपनी जानकारी बांटनी चाहिए...मैं ख़ुद तो अनभिज्ञ हूँ....और यहाँ बहुत सारे लोग अद्भुत हैं....वो हम सबका मार्गदर्शन भी करते चलें.....हम जैसे लोग सदा आभारी रहेंगे...सच...हाँ सच.....!!
शनिवार, 13 दिसंबर 2008

रात भर मैं पागलों की तरह कुछ सोचता रहा...!!










प्यार से गले लगाया जब सिसकती मिली रात....
पास जब उसके गया तब सिमटती मिली रात...!!
रात जब आँखे खुलीं उफ़ तनहा-सी बैठी थी रात...
साँस से जब साँसे मिलीं तो लिपटती मिली रात !!
रात को जब कायनात भी थक-थकाकर सो गई
रात भर भागती फिरी बावली जगमगाती रात !!
रात को इक कोने में मुझको गमगीं-सा पाकर
सकपकाकर रोने लगी यकायक कसमसाती रात !!
मैं दिखाता उसे नूर-ऐ-सबा,सौगाते-सुबह की झलक
सुबह से पहले ही मगर सो गई वो चमचमाती रात
रात जब रात का मन ना लगा तब यूँ "गाफिल"
की पेट में गुदगुदी तो हंसने लगी मदमदाती रात !!



७५ वां दिन.....सौवीं पोस्ट....मुझे माफ़ करें....!!






चलते-चलते जब भी मैं साँस लेता हूँ .........
इक लम्हा अपनी उम्र का रब को देता हूँ.....!!
मैं तो अपने-आप से अक्सर चौंक जाता हूँ....
मैं अपने-आप को अक्सर ही आवाज़ देता हूँ...!!
मौत भी जब मुझसे मायूस हो लौट जाती है....
ख़ुद ही उसकी चौखट पर मैं आहट देता हूँ...!!
क्यूँ हो जाता है यारब मुझसे बिन-बात खफा
जा ना अपनी उम्र तुझे मैं यूँ ही दान देता हूँ..!!
क्यूँ धरती पे ला पटका है मेरी मर्ज़ी के ख़िलाफ़...
वो तो मैं हूँ फिर भी तुझपर अपनी जान देता हूँ...!!
सुनाई देती है मुझे अक्सर उसकी ही धड़कन...
उसको याद करके "गाफिल"जब मैं साँस लेता हूँ...!!
 
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