भारत का संविधान

"हम भारतवासी,गंभीरतापूर्वक यह निश्चय करके कि भारत को सार्वभौमिक,लोकतांत्रिक गणतंत्र बनाना है तथा अपने नागरिकों के लिए------- न्याय--सामाजिक,आर्थिक,तथा राजनैतिक ; स्वतन्त्रता--विचार,अभिव्यक्ति,विश्वास,आस्था,पूजा पद्दति अपनाने की; समानता--स्थिति व अवसर की व इसको सबमें बढ़ाने की; बंधुत्व--व्यक्ति की गरिमा एवं देश की एकता का आश्वासन देने वाला ; सुरक्षित करने के उद्देश्य से आज २६ नवम्बर १९४९ को संविधान-सभा में,इस संविधान को अंगीकृत ,पारित तथा स्वयम को प्रदत्त करते हैं ।"

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बेचैन आत्मा के ब्लॉग से लौटकर..!!

गुरुवार, 15 अप्रैल 2010



सचमुच आप भी बड़े बेचैन ही हो....शायद इसलिए ये नाम आपने अपना रखा हो....मेरी समझ नहीं आया कि अपनी बेचैनी का क्या करूँ....और कैसे व्यक्त करूँ सो मैं भूत ही बन गया....बेचैन मैं भी हूँ और यह बेचैनी भी ऐसी कि किसी तरह ख़त्म ही नहीं होती....क्या करूँ...क्या करूँ....क्या करूँ....जो कुछ हमारे आस-पास घटता है, जिसमें कभी हम कर्ता भी होते हैं...कभी शरीक...कभी गवाह....किसी भी रूप में हमारी जिम्मेवारी...हमारी जवाबदेही ख़त्म नहीं होती....मगर हम लिखने वाले शायद कभी भी खुद को कर्ता नहीं मानते....और इस नाते कभी भी कसूरवार भी नहीं होते....जो कुछ होता है...किसी दूसरे के द्वारा...किसी और के लिए....होता है...लिखने वाले यह सब किसी और ग्रह से देख रहे होते हैं....उनका काम है देवताओं की तरह सब कुछ देखना और करूणा से आंसू बहाना....उनके आंसू बहते रहते हैं...बहते आंसुओं के बाईस वो खुद भी गोया देवता ही बन जाते हैं.....और पब्लिक द्वारा अपनी चरण-वन्दना करवाते हैं....पब्लिक को आशीष देते हैं और यह आश्वासन कि समय रहते सब ठीक हो जाएगा...ऐसा बरसों से चला आ रहा है और लेखक नाम की जात अपनी पूजा करवाती आत्मरति में मग्न है...इसको अपने लेखक होने का अहसास भले हो मगर उसके लेखन का औचित्य क्या है उसके लेखन में जनता-जनार्दन के लिए क्या भाव है....जनता उससे सचमुच जुडी हुई है कि नहीं...जिनको वो सरोकार कहते हैं....वो दरअसल किसके सरोकार हैं....और लेखक समुदाय के बीच जो तरह-तरह के गुट-समुदाय हैं और उनकी जो राजनीति है...वो किन सरोकारों और किस करुणा से अभिप्रेरित है...यह सब मुझे भी बेचैन करता है आत्मा तो मैं भी बेचैन हूँ मगर इस सबको बदलने के लिए कुछ कर पाने खुद को असमर्थ पाता हूँ सो वर्तमान से भूत हो गया हूँ.....मगर ऐसे सभी लोगों का मैं मित्र हूँ....जो सचमुच बेचैन हैं....और साथ ही सबके भले के लिए प्रयास रत भी....काश उपरवाला हम सबको इतनी बुद्धि भी दे पाता कि हम सब अपने अहंकार से बस ज़रा-सा ऊपर उठकर सोच पाते....सबके सुख के लिए अपने खुद के हितों की थोड़ी-सी बलि दे पाते.. हम सब अपनी आलोचना खुद कर पाते....सचमुच ही सबसे प्यार कर पाते....तब यह सब जो धोखेबाजी वाला ढकोसला हम सब रचते रहते हैं...यह प्रपंच हमें कभी करना ही ना पड़ता.....और इंसान नाम की यह चीज़ सचमुच एक भरोसे की चीज़ बन पाता.....हमने कुत्ते के नाम को आदमियों के बीच गाली बनाया हुआ है....अरे नहीं-नहीं तमाम जानवरों को ही हमने अपने बीच गाली बनाया हुआ है... मगर मैं एक भूत आज यह चुनौती सब आदमियों को देता हूँ कि है कोई माई का लाल जो दुनिया के किसी भी पशु से अपनी वफादारी की तुलना कर सके....प्रकारांतर से मैं यह कहना चाहता हूँ सबको पहले एक सच्चा पशु तो बन कर दिखाए वह.....आदमी होने के लिए तो उसके बाद और भी मंजिलें तय करनी होंगी.....!
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4 टिप्‍पणियां:

रचना दीक्षित ने कहा…

लाजवाब , बहुत बढ़िया लगी ये पोस्ट बहुत कुछ जानने मिला, पर शायद कोशिश हर बार बेकार ही जाती है क्योंकि हम खुद ही सुधरना नहीं चाहते हैं
आभार

राइना ने कहा…

Bahut khoob.....

कविता रावत ने कहा…

अरे नहीं-नहीं तमाम जानवरों को ही हमने अपने बीच गाली बनाया हुआ है... ..
bilkul sahi baat kahi aapne sar aam kahain n kahin aise gaaliyon kaanon mein sunayee deti hain...
...Bahut achha prayas... Kuch sudhar ki ummed ke saath.....

देवेन्द्र पाण्डेय ने कहा…

देर से आने के पीछे एक तो मूड दूसरा बिजली कारण बना।
...आपकी बेचैनी से प्रभावित हुए बिना नहीं रहा जा सकता। बहुत कुछ सीधे-सीधे लिख दिया आपने।
...काश उपरवाला हम सबको इतनी बुद्धि भी दे पाता कि हम सब अपने अहंकार से बस ज़रा-सा ऊपर उठकर सोच पाते....सबके सुख के लिए अपने खुद के हितों की थोड़ी-सी बलि दे पाते.. हम सब अपनी आलोचना खुद कर पाते....सचमुच ही सबसे प्यार कर पाते....तब यह सब जो धोखेबाजी वाला ढकोसला हम सब रचते रहते हैं...यह प्रपंच हमें कभी करना ही ना पड़ता.....और इंसान नाम की यह चीज़ सचमुच एक भरोसे की चीज़ बन पाता...
---मैं भी यही प्रार्थना करता हूँ।
फिर आउंगा अभी कम्प्यूटर बंद करना पड़ रहा है।

 
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