भारत का संविधान

"हम भारतवासी,गंभीरतापूर्वक यह निश्चय करके कि भारत को सार्वभौमिक,लोकतांत्रिक गणतंत्र बनाना है तथा अपने नागरिकों के लिए------- न्याय--सामाजिक,आर्थिक,तथा राजनैतिक ; स्वतन्त्रता--विचार,अभिव्यक्ति,विश्वास,आस्था,पूजा पद्दति अपनाने की; समानता--स्थिति व अवसर की व इसको सबमें बढ़ाने की; बंधुत्व--व्यक्ति की गरिमा एवं देश की एकता का आश्वासन देने वाला ; सुरक्षित करने के उद्देश्य से आज २६ नवम्बर १९४९ को संविधान-सभा में,इस संविधान को अंगीकृत ,पारित तथा स्वयम को प्रदत्त करते हैं ।"

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सब कुछ पगला क्यूँ रहा है....??

रविवार, 2 अगस्त 2009

मैं भूत बोल रहा हूँ..........!!

सब कुछ पगला क्यूँ रहा है....??

पानी कहीं नहीं बरस रहा है....चारों तरफ़ हाहाकार मच चुका है....पिछले साल यही पानी जब झूम-झूम कर बरसा था...तब भी इसी तरह का हाहाकार मचा था....पानी इस तरह क्यूँ पगला जाता है...कभी तो बावला-सा मतवाला तो कभी बिल्कुल ही मौन व्रत....!!
दरअसल इसके जिम्मेवार हम ही तो हैं....इसके बनने के तमाम रास्तों में,इसके बहने के तमाम रास्तों में, इसके खिलने के तमाम रास्तों में हमने अपने नाजायज़ खूंटे गा दिए हैं....एक बिल्कुल ही स्वतंत्र "आत्मा" को अनेकनेक तरह से बाँध दिया है....जो पेड़ अपने असीम प्यार से इन्हें अपने घर से बांधे रहते हैं,या अपनी प्यार भरी मनुहार से रोके रखते हैं,उन पेडों को काट-काट कर अपना फर्नीचर बना लिया है,और ना जाने क्या-क्या दुर्गति कर दी है हमने पेडों की....!!....धरती को हमने बाँझ बना दिया है....धरती अपना कटा-फटा दामन समेटती सहमती-सकुचाती पानी को रोक तक नहीं सकती,रोके तो उसे ठहराए कहाँ ??....और ठहराए तो बिठाए कहाँ....हमने तो हर जगह मलीन और गंदली कर दी है....!!
अपनी नाजायज हरकतों से हमने धरती मा को गोया नेस्तनाबूद कर दिया है.....धरती की तमाम अभीप्सा....जरुरत....अपेक्षा...और अन्य तमाम तरह की अपनी जिम्मेवारियों से अपना पल्ला झाड़ लिया है हमने !!....यह बिल्कुल वैसे ही है,जैसे माँ-बाप अपने बच्चों को तमाम तरह की दुश्वारियों को झेलते हुए,ख़ुद किल्लत बर्दाश्त कर उनकी सब ज़रूरत पूरी करते हुए....उन पर अपना असीम प्रेम उड़ेलते हुए...उन्हें इंच-इंच बड़ा होते हुए देखते हुए....उन्हें सालों-साल पाल-पोस कर बड़ा करते हैं.....और बड़ा होते ही यही बच्चे....उन्हें "बोझ"करार कर
देते हैं....उन्हें "ठिकाने" लगा देते हैं....उन्हें सेंट्रिंग में डाल देते हैं....उनकी उपेक्षा करने लगते हैं.....ठीक वैसा ही हमने धरती के संग भी किया है.....और धरती के साथ जो भी कुछ हम करते हैं....उसका सिला हमें मिलने लगा है....पानी पगला रहा है... हवा पगला रहा है....मौसम पगला रहा है....!!.....नदियाँ पगला रही हैं....!!...और न जाने क्या-क्या उलट-पुलट हो रहा मौसमों में....कब गर्मी है....कब सर्दी...और कब बरसात.....किसी को कुछ समझ ही नहीं आ रहा....!!??
अगर हम नहीं रुके तो आने वाले बरसों में इसका परिणाम और भी ज्यादा भयावह होने वाला है....धरती हमें चीख-चीख कर कह रही है....अब बस....अब बस....अब बस .....क्या यह चीख हमें सुनाई पड़ रही है....क्या यह आर्तनाद हमें कभी सुनाई पड़ भी पायेगा.....!!क्या हम खुद को रोक सकते हैं .....????

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