भारत का संविधान

"हम भारतवासी,गंभीरतापूर्वक यह निश्चय करके कि भारत को सार्वभौमिक,लोकतांत्रिक गणतंत्र बनाना है तथा अपने नागरिकों के लिए------- न्याय--सामाजिक,आर्थिक,तथा राजनैतिक ; स्वतन्त्रता--विचार,अभिव्यक्ति,विश्वास,आस्था,पूजा पद्दति अपनाने की; समानता--स्थिति व अवसर की व इसको सबमें बढ़ाने की; बंधुत्व--व्यक्ति की गरिमा एवं देश की एकता का आश्वासन देने वाला ; सुरक्षित करने के उद्देश्य से आज २६ नवम्बर १९४९ को संविधान-सभा में,इस संविधान को अंगीकृत ,पारित तथा स्वयम को प्रदत्त करते हैं ।"

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मंगलवार, 28 जुलाई 2009

आईये दोस्तों !!करें देश की इज्ज़त की नीलामी....!!

मैं भूत बोल रहा हूँ..........!!
आईये ना प्लीज़ आप भी यहाँ,
हम आपकी भी नुमाईश कर देंगे!!
बेशक आपने खोले नहीं हों अपने कपड़े बाथरूम में भी कभी
लेकिन हम आपको यहाँ बिल्कुल नंगा कर देंगे!!
हम यहाँ सबका सामना सच से कराते हैं
बेशक इस सच से हम सबको अधमरा कर देंगे !!
नई लाइफ-स्टाइल में कुछ भी गोपनीय नहीं होता
हर कोई एक बार कम से कम अधनंगा तो होना ही चाहिए !!
और हर सच भले ही चाहे कितना ही कुरूप क्यूँ ना हो
उस भयावह कुरूपता को परदे पर उजागर क्यूँ नहीं होना चाहिए??
परदे पर कुरूपता सुंदर-वैभवशाली और परिपूर्ण लगती है!!
इसलिए हर कुरूपता को खोज-खोज कर हम इस परदे को भर देंगे !!
भारत के तमाम भाई और बहनों
अब भी तुम सबमें कुछ तमीज-संस्कार और परम्परा यदि बाकी बची है
तो यहाँ आओ, इस तमीज की कमीज हम ही उतारते हैं!!
सभ्यता नाम की कोई चीज़ अगर आदमी में बाकी बच रही है,
उसे इन्हीं दिनों में ख़त्म होना होना है !!
ये बात बाबा"........"जी बता कर गए हैं !!
अरे भारत-वासियों,अब तो आप सच से मुकर मत जाना !!
और गली-गली से-हर नाली और पोखर से गंदे-से-गंदे
हर सच की बदबूदार सडांध को ढूँढ-ढूँढ कर इस मंच पर लाना !!
हम सच बेचते हैं,जी हाँ हम सच बेचते हैं!!
सच के साथ हम और भी बहुत कुछ बेचते हैं!!
ईमान-धरम की बात हमसे ना कीजै,
ये सब कुछ तो हम मज़ाक-मज़ाक में ही बेच देते हैं...!!
तो फिर साहिबान-कद्रदान-मेजबान-मेहमान !!
आज और अभी इस मंच पर आईये,
और हमसे मज़ाक का इक सिलसिला बनाईये,
और अपनी इज्ज़त के संग ख़ुद भी बिक जाईये!!
नोट-देश की इज्ज़त की नीलामी फ्री गिफ्ट के रूप में ले जाईये !!
बुधवार, 22 जुलाई 2009

मुट्ठी यूँ तो बंद है,मगर उसमें कुछ भी नहीं है !!



कहें तो किससे कहें कि हमारे पास क्या नहीं है,
मुट्ठी यूँ तो बंद है,मगर उसमें कुछ भी नहीं है !!
गरज ये कि सारे जहां को खिलाने बैठ गए हैं,
और तुर्रा यह कि खिलाने को कुछ भी नहीं है !!

तू यह ना सोच कि मैं तेरे लिए कुछ भी न लाया

हकीकतन तो यार मेरे पास भी कुछ भी नहीं है !!

मैंने तेरा कुछ भी ना लिया है ए मेरे दोस्त,यार
तेरे दिल के सिवा मेरे पास और कुछ भी नहीं है !!
अपनी ही कब्र पर बैठा यह सोच रहा हूँ "गाफिल"

जमा तो बहुत कुछ किया था,पर कुछ भी नहीं है !!
रविवार, 12 जुलाई 2009

जिंदगी-जिंदगी-जिंदगी-जिंदगी !!

कब यहाँ से वहाँ.....कब कहाँ से कहाँ ,
कितनी आवारा है ये मेरी जिंदगी !!
जिंदगी-जिंदगी-जिंदगी-जिंदगी !!
कभी बनती सबा कभी बन जाती हवा ,
कितने रंगों भरी है मेरी ये जिंदगी !!
जिंदगी-जिंदगी-जिंदगी-जिंदगी !!
नाचती कूदती-चिडियों सी फूदती ,
चहचहाती-खिलखिलाती मेरी जिंदगी !!
जिंदगी-जिंदगी-जिंदगी-जिंदगी !!
याद बनकर कभी,आह बनकर कभी ,
टिसटिसाती है अकसर मेरी जिंदगी !!
जिंदगी-जिंदगी-जिंदगी-जिंदगी !!
जन्म से मौत तक,खिलौनों से ख़ाक तक
किस तरह बीत जाती है ये तन्हाँ जिंदगी !!
जिंदगी-जिंदगी-जिंदगी-जिंदगी !!
रविवार, 5 जुलाई 2009

गरज-बरस प्यासी धरती को फिर पानी दे मौला

मैं भूत बोल रहा हूँ..........!!
गरज-बरस प्यासी धरती को फिर पानी दे मौला
चिडियों को दाने , बच्चों को , गुडधानी दे मौला !!

कई दिनों से आँखें पानी को तरस रही थीं और अब जब पानी बरसा तो कई दूसरी आँखें पानी से तर हो गयीं हैं,पानी उनकी झोपड़-पट्टियों को लील लिए जा रहा है....पानी ,जो सूखे खेतों को फसलों की रौनक लौटने को बेताब है,वहीं शहरों में गरीबों को लील जाने को व्यग्र...!!पानी को कतई नहीं पता है कि उसे कहाँ बरसना है और कहाँ नहीं बरसना !!
शायर ने कहा भी तो है, "बरसात का बादल है.....दीवाना है क्या जाने,
किस राह से बचना है,किस छत को बिगोना है !!
तो प्यारे दोस्तों ,यूँ तो प्रकृति हमारी दोस्त है...और सदा ही दोस्त ही बनी रही है....लेकिन हम सबने अपनी-अपनी हवस के कारण इसे मिलजुल कर अपना दुश्मन बना डाला है....प्रकृति को हमने सिर्फ़ अपने इस्तेमाल की चीज़ बना डाला है....और अपने इस्तेमाल के बाद अपने मल-मूत्र का संडास....ऐसे में यह कहाँ तक हमारा साथ निभा सकती है.....और जो यह हमारा साथ नहीं निभाती...तो यह हम पर कहर हो जाती है....कारण हम ख़ुद हैं...!और यह सब समझबूझकर भी यही सब करते रहने को अपनी नियति बना चुके हम लोगों को भविष्य में इस कहर से कोई भी नहीं बचा सकता.....उपरवाला भी नहीं...!!पानी भी तो हमारा दोस्त ही है....और हमारी तमाम कारगुजारियों के बावजूद भी हर साल हमारी मदद करने,हमें जीवन देने के लिए ही आता है !हम कब ख़ुद इसके दोस्त बनेंगे ??ख़ुद तो दुश्मनों के काम करना,और इसके एवज में कोई इसकी प्रतिक्रिया व्यक्त करे तो उसे पानी पी-पी कर कोसना, क्या यही मनुष्यता है??
प्यारे मनुष्यों,मैंने तुम्हें यही बताना है कि अपनी हवस को वक्त रहते लगाम दे दो ना...अपने लालच को थोड़ा कम कर दो ना....!!तुम्हारे जीवन में सुंदर फूल फिर से खिल उठेंगे....तुम्हारा जीवन फिर से इक प्यारी-सी बगिया बन जाएगा..!!जैसा कि तुम सदा से कहते रहे हो...."धरती पर स्वर्ग"...तो इस स्वर्ग को बनाने का भी यत्न करो....कि नरक बनाए जाने वाले कृत्यों से "स्वर्ग"नहीं निर्मित होता...कभी नहीं निर्मित होता....यही सच है....!!

मंगलवार, 9 जून 2009

हाँ,दुनिया इसी की तलाश में है.....!!

हाँ,दुनिया इसी की तलाश में है.....!!

मैं भूत बोल रहा हूँ..........!!
रोज-ब-रोज सूरज उग रहा है,रोज-ब-रोज रात हो रही है.आदमी के सम्मुख अँधेरा और उजाला दोनों ही हर वक्त होते हैं.मगर आदमी अँधेरे को ही पहले तरजीह देता है !!क्योंकि अँधेरे में ही उसकी समस्त वासनाओं का शमन होता है !!आदमी धीरे-धीरे एक ऐसी चीज़ में परिणत होता जा रहा है जो हर वक्त सिर्फ-व्-सिर्फ अपने और अपने स्वार्थ को येन-केन-प्रकारेण पूरा करने के बारे में सोचती रहती है.जीवन को भरा-पूरा बनाने के साधनों का एक ऐसा अंतहीन तिलिस्म आदमी ने अपने चारों तरफ फैला लिया है कि उनको प्राप्त करने की जद्दोजहद में उसकी कमर टूट जा रही है,और उसे अपनी जरूरतों से इतर कुछ भी सच पाने को कोई अवकाश ही नहीं है,और इस बारे में कुछ भी सोचने का प्रयास भी नहीं,तो इस तिलिस्म से बाहर आने के बारे में कुछ अपेक्षा करना भी बेमानी है !!
आदमी अपने-आप को सदा पशुओं से ऊपर बता रहा है,सिर्फ इस बुनियाद पर कि उसमें विवेक नाम की कोई चीज़ है,वो हँसता है,बोलता है,नाचता है और सबसे बढ़कर सोचता है !!और मज़ा यह कि इन्हीं बुनियादों पर वह पशु-जगत को अपने से दीन-हीन बतलाता रहा है और यहाँ तक कि उसने हर वक्त पशुओं को अपनी जरुरत तथा प्रयोगों का साधन बनाया हुआ है !!आदमी के हाथ में एक दुर्दमनीय पीडा से छटपटाते ये पशु कुछ बोल नहीं पाने के कारण आदमी नामक इस स्वनामधन्य विवेकशील जीव द्वारा मार दिए जाते हैं,मानवता की सेवा करने की आड़ में पशु-जगत आदमी के तमाम काले-कारनामों का शिकार बनता रहा है,बन रहा है !!और मज़ा यह कि आदमी विवेकशील है!!
प्रेम-मुहब्बत-भाईचारे की बात बहुत करता है यह आदमी...तुर्रा यह कि इसकी दुनिया में बाबा आदम के जमाने से अब तक भी ये चीज़ें इसे नसीब नहीं हो पायी हैं जबकि आदमी की सिर्फ एक ही जात है और वह है आदमी...!!और जिस जात को वह पशु मानता है वह धरती और गगन में असंख्य किस्म की होने के बावजूद आदमी से असंख्य गुणा प्रेम-मुहब्बत और भाईचारे के संग रहती है....!!आदमी अपनी एक-मात्र जात के बावजूद भी एक-दुसरे से कई-कई गुणा दूर है,यहाँ तक कि एक-दुसरे के विरुद्द एक अंतहीन नफरत से भरा हुआ और तमाम वक्त एक-दुसरे से लड़ता हुआ....लड़ता ही लड़ता हुआ !!और बाकी का पशु-पक्षी जगत अपनी अनगिनत रूपों की विभिन्नता के बावजूद एक-दुसरे के संग लगभग शालीनता से रहता हुआ,यहाँ के आदमी के लिए प्रेरणादायी होने तक !!
फिर भी आदमी जानवरों को लतियाता है,आदमी को भी लतियाता है,अपने बच्चों को लतियाता है,बड़े-बूढों को लतियाता है,स्त्रियों को लतियाता है,कमजोरों को लतियाता है,अपने से तमाम कमतर कहे जाने वाले लोगों को लतियाता है,हालांकि कमतर समझना उसका खुद का ही पैदा किया हुआ एक अनावश्यक विचार होता है....इस बारे में उसमें कई किस्म की बेजोड़ भ्रांतियां है,मज़ा यह कि जिन्हें वह तथ्य समझता हुआ उसी अनुसार आचरण करता है,बिना यह जाने हुए कि यह आचरण उसे अपने ही बनाए हुए आदमी होने के विशेषणों के उसे विलग करता है !!आदमी के साथ सबसे बड़ी तो दिक्कत ही यही है कि अपनी ही गडी हुई तमाम परिभाषाओं को अपने अनुकूल बनाने या साबित करने के लिए यह उन परिभाषाओं का दम खुद ही घोंट देता है,अपने ही गडे हुए शब्दों के अर्थ हजारों-हज़ार निकाल लेता है,यहाँ तक कि उसके शब्द अपनी ही महत्ता खो देते हैं,यहाँ तक कि उनका सही अर्थ भी हम नहीं समझ पाते,यहाँ तक कि आदमी कहना क्या चाहता है,उसे खुद ही नहीं पता होता....फिर भी आदमी,आदमी है,और समस्त पशु-जगत से कहीं ऊपर है...!!....नीचे के स्थान से कि ऊपर के स्थान से यह तय होना बाकी है !!
सच बताऊँ तो आदमी जरुरत से ज्यादा समझदार है,इतना ज्यादा कि इतने ज्यादा की जरुरत ही नहीं,इतना ज्यादा कि हास्यास्पद की हद तक,इतना ज्यादा कि ज्यादा होना आपकी राह में रोड़ा बनने लगे और हर समय एक अंतहीन पीडा देने लगे और दूसरों को ना जाने किन-किन आधारों पर छोटा या बड़ा समझने लगे और तरह-तरह के अनावश्यक विवादों को जन्म देकर और फिर उन्हें सुलझाने के उपक्रमों में अपना और दूसरों का समय खोता करने लगे !!आदमी सच ही ब्रहमांड की सबसे अजूबी चीज़ है,लेता तो है वह खुदा से होड़ और करता है तमाम किस्म के शैतानियत से भरे और रूह को कंपा देने वाले भद्दे-गंदे-गलीच और बिलकुल ही घटिया कर्म....!!अपनी सहूलियत के लिए सब कुछ कर डालने को उत्सुक एक व्यभिचारी आत्मा...!!और अगर आदमी सचमुच ही ऐसा ही है तो खुद को ऊँचा या विवेकमान मानने की जिद्द क्यों ??खुद को पशु से बेहतर बताने की जिद्द क्यों....??आदमी सच कहूँ तो मसीहा भी बन सकता है,भगवान् भी बन सकता है,वह कुछ भी बन सकता है,उसमें इतनी ताब है,उसमें ऐसी रौशनी भी है....खुद को यदि इतना बेहतर समझने का ऐसा ही उसमें जज्बा है तो दिखाए अपना दम...और बन कर दिखा दे सही मायनों में दुनिया का देवता...हाँ दुनिया इसी की तलाश में है....हाँ दुनिया इसी की आस में है.....!!
शनिवार, 6 जून 2009

आप ही फ़ैसला करें दानिश भाई का....!!

मैं भूत बोल रहा हूँ..........!!

आप ही फ़ैसला करें दानिश भाई का....!!

aap faisla karen daanish bhaayiji kaa.....!!















RAJEEV THEPRA

to lgdanish
show details 11:25 AM (8 minutes ago)
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भईया लोगों,ज़रा इन्हें पहचानिये.....!!
ई साहब तो ब्लागरों के बाप हैं....इनका ब्लाग" मोहब्बत में दिक्कतें " सारे अन्य ब्लागरों की रचनाओं से मोहब्बत करता है....अन्य ब्लोगर की रचनाएं ये साहब अपने ब्लॉग पर अपने ही नाम से चस्पां करते हैं,आज किसी लिंक से मैं यहाँ तक पहुंचा तो भूतनाथ जी की दो रचनाएं शीर्षक बदल दानिश नाम से पोस्टेड दिखायीं दीं...और देखा तो "अर्श" साहब की रचनाएं भी इसी तरह उनके नाम पर चस्पां मिलीं....तो हम तो भईया चकिते हो गए...चकिते माने हतप्रभ....मने आश्चर्यचकित....माने अब और माने क्या बताऊँ....अब ऐसे भाई साहब का का करना चाहिए....सो फैसला आप ही करें....!!
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lgdanish@gmail.com <lgdanish@gmail.com>
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मंगलवार, 2 जून 2009

उफ़ !!यूँ भी होता तो क्या होता...??

मैं भूत बोल रहा हूँ..........!!
उफ़ यूँ भी होता तो क्या होता
गर्द से भरा मेरा चेहरा होता !!
इतने लोगों का यही है फ़साना
इस भरी भीड़ में तनहा होता !!
बावफा होकर भी यही है जाना
इससे बेहतर था बेवफा होता!!
तिल-तिल मरने से तो अच्छा है
जहर खा लेने से फायदा होता !!
अक्सर गम में हम ये सोचा किये
मेरे बदले यां कोई दूसरा होता!!
अच्छा इस बात को भी जाने दो
कि यूँ भी होता तो क्या होता !!
अच्छा हुआ कि तनहा गुजर गया
भीड़ में मरता तो क्या माजरा होता !!
शनिवार, 30 मई 2009

दोस्तों....आप सबको मेरा असीम....अगाध प्रेम.....!!

मैं भूत बोल रहा हूँ..........!!
दोस्तों....आप सबको मेरा असीम....अगाध प्रेम.....!!
मेरे प्यारे दोस्तों,आप सबको भूतनाथ का असीम और निर्बाध प्रेम,
मेरे दोस्तों.......हर वक्त दिल में ढेर सारी चिंताए,विचार,भावनाएं या फिर और भी जाने क्या-क्या कुछ हुआ करता है....इन सबको व्यक्त ना करूँ तो मर जाऊँगा...इसलिए व्यक्त करता रहता हूँ,यह कभी नहीं सोचता कि इसका स्वरुप क्या हो....आलेख-कविता-कहानी-स्मृति या फिर कुछ और.....उस वक्त होता यह कि अपनी पीडा या छटपटाहट को व्यक्त कर दूं....और कार्य-रूप में जो कुछ बन पड़ता है,वो कर डालता हूँ....कभी भी अपनी रचना के विषय में मात्रा,श्रृंगारिकता या अन्य बात को लेकर कुछ नहीं सोचता,बस सहज भाव से सब कुछ लिखा चला जाता मुझसे....आलोचना या प्रशंसा को भी सहज ही लेता हूँ....अलबत्ता इतना अवश्य है कि इन दोनों ही बातों में आपका प्रेम है,और वो प्रेम आपके चंद अक्षरों में मुझपर निरुपित हो जाता है.....और उस प्रेम से मैं आप सबका अहसानमंद होता चला जाता हूँ...हुआ चला जा रहा हूँ....दबता चला जा रहा हूँ...और बदले में मैंने इतना प्रेम भी नहीं दिया....मगर आज आप सबको यही कहूंगा कि आई लव यू.....मुझे आप-सबसे बहुत प्रेम है....और यह मुझसे अनजाने में ही हो गया है....सो मुझे जो बहुत ना भी चाहते हों,उन्हें भी क्षमा-याचना सहित मेरा यह असीम प्रेम पहुंचे...और वो मुझे देर-अबेर कह ही डालें आई लव यू टू.....खैर आप सबका अभिनन्दन....मैं,सच कहूँ तो अपनी यह भावना सही-सही शब्दों में व्यक्त नहीं कर पा रहा....सो इसे दो लाईनों में व्यक्त करे डालता हूँ.....
"मेरे भीतर यह दबी-दबी-सी आवाज़ क्यूँ है,
मेरी खामोशी लफ्जों की मोहताज़ क्यूँ है !!
अरे यह क्या लाईने आगे भी बनी जा रही हैं....लो आप सब वो भी झेलो....
"मेरे भीतर यह दबी-दबी-सी आवाज़ क्यूँ है,
मेरी खामोशी लफ्जों की मोहताज़ क्यूँ है !!
बिना थके हुए ही आसमा को नाप लेते हैं
इन परिंदों में भला ऐसी परवाज़ क्यूं है !!
गो,किसी भी दर्द को दूर नहीं कर पाते
दुनिया में इतने सारे सुरीले साज़ क्यूं है !!
जिन्हें पता ही नहीं कि जम्हूरियत क्या है
उन्हीं के सर पे जम्हूरियत का ताज क्यूं है !!
जो गलत करते हैं,मिलेगा उन्हें इसका अंजाम
तुझे क्यूं कोफ्त है"गाफिल",तुझे ऐसी खाज क्यूं है !!
जिंदगी-भर जिसके शोर से सराबोर थी दुनिया
आज वो "गाफिल" इतना बेआवाज़ क्यूं है !!
सब कहते थे तुम जिंदादिल बहुत हो "गाफिल"
जिस्म के मरते ही इक सिमटी हुई लाश क्यूं है !!
उफ़!वही-वही चीज़ों से बोर हो गया हूँ मैं "गाफिल"
कल तक थी जिंदगी,थी,मगर अब आज क्यूं है ??
आप सबका बहुत-बहुत-बहुत आभार....आप सबका "भूतनाथ"
गुरुवार, 28 मई 2009

हाय समाज........तू भी देता है ना जाने कैसे-कैसे दंश.....!!

मैं भूत बोल रहा हूँ..........!!

हाय समाज........तू भी देता है ना जाने कैसे-कैसे दंश.....!!

............न पुरूष और न ही स्त्री..............दरअसल ये तो समाज ही नहीं.........पशुओं के संसार में मजबूत के द्वारा कमजोर को खाए जाने की बात तो समझ आती है......मगर आदमी के विवेकशील होने की बात अगर सच है तो तो आदमी के संसार में ये बात हरगिज ना होती.......और अगरचे होती है.....तो इसे समाज की उपमा से विभूषित करना बिल्कुल नाजायज है....!! पहले तो ये जान लिया जाए कि समाज की परिकल्पना क्या है.....इसे आख़िर क्यूँ गडा गया.....इसके मायने क्या हैं....और इक समाज में आदमी होने के मायने भी क्या हैं....!!
..............समाज किसी आभाषित वस्तु का नाम नहीं है....अपितु आदमी की जरूरतों के अनुसार उसकी सहूलियतों के लिए बनाई गई एक उम्दा सी सरंचना है....जिसमें हर आदमी को हर दूसरे आदमी के साथ सहयोग करना था....एक दूसरे की जरूरतों को पूरा करना था.....एक आदमी ये काम करता.....और दूसरा वो काम करता....तीसरा कुछ और....हर आदमी अपने-अपने हुनर और कौशल के अनुसार समाज में अपने कार्यों का योगदान करता....और इस तरह सबकी जरूरतें पूरी होती रहतीं.....साथ ही हारी-बीमारी में भी लोग एक-दूसरे के काम आते....मगर हुआ क्या............??
हर आदमी ने अपने हुनर और कौशल का इस्तेमाल को अपनी मोनोपोली के रूप में परिणत कर लिया...........और उस मोनोपोली को अपने लालच की पूर्ति के एकमात्र कार्यक्रम में झोंक दिया.......लालच की इन्तेहाँ तो यह हुई कि सभी तरह के व्यापार में ,यहाँ तक कि चिकित्सा आदि के क्षेत्रों में भी लालच की ऐसी पराकाष्ठा का यही घृणित रूप तारी हो गया.....और आज यह राजनीति और सेवा कार्यों में तक में भी यही खेल मौजूं हो गया है....तो फ़िर समाज नाम की चीज़ अगर हममे बची है तो मैं जानना चाहता हूँ कि वो है तो आख़िर कहाँ है....एक समाज के सामाजिक लोगों के रूप में हमारे कार्य आख़िर क्या हैं.....कि हम जहाँ तक हो सके एक-दूसरे को लूट सकें...........????

.......क्या यह सच नहीं कि हम सब एक दूसरे को सहयोग देने की अपेक्षा,उसका कई गुणा उसे लूटते हैं.....वरना ये पेटेंट आदि की अवधारणा क्या है......??और ये किसके हित के लिए है.....लाभ कमाने के अतिरिक्त इसकी उपादेयता क्या है.....??क्या एक सभ्य समाज के विवेकशील मनुष्य के लिए ये शोभा देने वाली बात है कि वो अपनी समझदारी या फ़िर अपने किसी भी किस्म के गुण का उपयोग अपनी जरूरतों की सम्यक पूर्ति हेतु करे ना कि अपनी अंधी भूख की पूर्ति हेतु......??
मनुष्य ने मनुष्य को आख़िर देना क्या है.....??क्या मनुष्यता का मतलब सिर्फ़ इतना है कि कभी-कभार आप मनुष्यता के लिए रूदन कर लो.....या कभी किसी पहचान वाले की जरुरत में काम आ जाओ....??..........या कि अपने पाप-कर्म के पश्ताताप में थोड़ा-सा दान-धर्म कर लो.......??

........मनुष्यता आख़िर क्या है...........??............अगर सब के सब अपनी-अपनी औकात या ताकत के अनुपात में एक दूसरे को चाहे किसी भी रूप में लूटने में ही मग्न हों....??..........और मनुष्य के द्वारा बनाए गए इस समाज की भी उपादेयता आख़िर क्या है..........??
.........और अपने-अपने स्वार्थ में निमग्न स्वार्थियों के इस समूह को आख़िर समाज कहा ही क्यूँ जाना चाहिए..........??.........हम अरबों लोग आख़िर दिन और रात क्या करते हैं........??उन कार्यों का अन्तिम परिणाम क्या है......??अगर ये सच है कि परिणामों से कार्य लक्षित होते हैं.............तो फ़िर मेरा पुनः यही सवाल है कि इस समूह को आखर समाज कैसे और क्यूँ कहा जा सकता है......और कहा भी क्यूँ जाना चाहिए.......??

जहाँ कदम-दर-कदम एक कमज़ोर को निराश-हताश-अपमानित-प्रताडित-और शोषित होना पड़ता है......जहाँ स्त्रियाँ-बच्चे-बूढे और गरीब लोग अपना स्वाभाविक जीवन नहीं जी सकते.... ?? जहाँ हर ताकतवर आदमी एक दानव की तरह व्यवहार करता है........!!??
......दोस्तों मैं कहना चाहता हूँ कि पहले हम ख़ुद को देख लें कि आख़िर हम कितने पानी हैं.....और हमें इससे उबरने की आवश्यकता है या इसमें और डूबने की........??हम ख़ुद से क्या चाहते हैं......ये अगर हम सचमुच इमानदारी से सोच सकें तो सचमुच में एक इमानदार समाज बना सकते हैं............!!
याद रखिये समाज बनाने के लिए सबसे पहले ख़ुद अपने-आप की आवश्यकता ही पड़ती है........तत्पश्चात ही किसी और की.....!!आशा करता हूँ कि इसे हम पानी अपने सर के ऊपर से गुजर जाने के पूर्व ही समझ पायेंगे..........!!!!
 
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