भारत का संविधान

"हम भारतवासी,गंभीरतापूर्वक यह निश्चय करके कि भारत को सार्वभौमिक,लोकतांत्रिक गणतंत्र बनाना है तथा अपने नागरिकों के लिए------- न्याय--सामाजिक,आर्थिक,तथा राजनैतिक ; स्वतन्त्रता--विचार,अभिव्यक्ति,विश्वास,आस्था,पूजा पद्दति अपनाने की; समानता--स्थिति व अवसर की व इसको सबमें बढ़ाने की; बंधुत्व--व्यक्ति की गरिमा एवं देश की एकता का आश्वासन देने वाला ; सुरक्षित करने के उद्देश्य से आज २६ नवम्बर १९४९ को संविधान-सभा में,इस संविधान को अंगीकृत ,पारित तथा स्वयम को प्रदत्त करते हैं ।"

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फेस बुक पर चंडीदत्त शुक्ल की पंक्तियों पर.....!!

मंगलवार, 28 अप्रैल 2009

...तुम्हें...क्या कहूं...क्या लिखूं...
चुप रहूं...या बोलता जाऊं...
तुम्हीं कहो...(ये पंक्तियाँ चंडीदत्त शुक्ल की हैं.....अब उससे आगे मेरी पक्तियां....!!)
या फिर समेट लो खुद में...
और अगर कोई आरजू बाकी भी रहे
तो सिर्फ तेरी....सिर्फ तेरी.....
हाँ तरह समेट ले तू खुद को मुझमें....
सब तेरा ही हो जाए ....
मैं मैं ना रहूँ.....
मैं तू हो जाए....
मुझमें मेरा कुछ भी ना रहे....
आरजू मैंने भी खूब पाली थी कभी....
मगर अब जो तू आ गया है तो सब ख़त्म...
अब मैं हूँ ही नहीं......
सिर्फ तू है....सिर्फ तू.....
अरे मैं यह सब क्या कह गया.....
मैं तो हूँ ही नहीं.....
कहने वाला भी नहीं....!!
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3 टिप्‍पणियां:

Dr. Tripat Mehta ने कहा…

अब मैं हूँ ही नहीं......
सिर्फ तू है....सिर्फ तू.....

wah janaab kya baat hai...
mubarakh ho

BrijmohanShrivastava ने कहा…

रचना में दर्शन समाहित है ""कोई आरजू भी रहे कोई वाकी तो बस तेरी ""सिर्फ तू है सिर्फ तू है ,मैं तो हूँ ही नहीं "" बस जीवन में यह भावना आजाये तो फिर कहना ही क्या /इस रचना को सांसारिक रूप में न देख कर या तो सूफी रूप में देखा जाये या गीता के सिद्धांतों के रूप में तो यही रचना प्रार्थना बन जाये भजन बन जाये

चण्डीदत्त शुक्ल ने कहा…

अद्भुत भूतनाथ...मेरी पंक्तियों को आपने आगे बढ़ाया और बताया भी नहीं....ऊं--ऊं---ऊं...जय हो गूगल महाराज की, कि आज कुछ सर्च करते हुए ये पंक्तियां दिख गईं...पहले तो धन्यवाद और आगे बढ़ाने के लिए धन्यवाद भी.

 
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