भारत का संविधान

"हम भारतवासी,गंभीरतापूर्वक यह निश्चय करके कि भारत को सार्वभौमिक,लोकतांत्रिक गणतंत्र बनाना है तथा अपने नागरिकों के लिए------- न्याय--सामाजिक,आर्थिक,तथा राजनैतिक ; स्वतन्त्रता--विचार,अभिव्यक्ति,विश्वास,आस्था,पूजा पद्दति अपनाने की; समानता--स्थिति व अवसर की व इसको सबमें बढ़ाने की; बंधुत्व--व्यक्ति की गरिमा एवं देश की एकता का आश्वासन देने वाला ; सुरक्षित करने के उद्देश्य से आज २६ नवम्बर १९४९ को संविधान-सभा में,इस संविधान को अंगीकृत ,पारित तथा स्वयम को प्रदत्त करते हैं ।"

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शुक्रवार, 30 सितंबर 2011

धरती पर बढ़ेंगे अभी और बलात्कार !!

मैं भूत बोल रहा हूँ..........!!

धरती पर बढ़ेंगे अभी और बलात्कार !!

               शीर्षक पढ़कर चौंकिए नहीं क्योंकि तरह-तरह के अध्ययनों के अनुसार जो तथ्य सामने आ रहे हैं उनसे दो बातें स्पष्टया साबित होती हैं,एक,धरती पर पुरुष-स्त्री का लिंगानुपात असामान्य रूप से असंतुलित होता जा रहा है,दूसरा,संचार के तमाम द्रुतगामी साधनों की बेतरह उपलब्धता के कारण आदमी जल्द ही व्यस्क होता जा रहा है,आदमी जहां पूर्व में इक्कीस-बाईस में,फिर सत्रह-अट्ठारह में,फिर पंद्रह-सोलह में और अब तेरह-चौदह वर्ष की उम्र में ही व्यस्क हो रहा है,जबकि लड़कियों में यह उम्र बारह-तेरह की निम्नतम स्तर को छु गयी है !!
                इसका एक मात्र कारण आधुनिक युग के संचार के साधन हैं,जहां अब कुछ भी गोपन नहीं है,पहले जहां किसी प्रकार की कामुक सामग्री बहुत कठिनता से प्राप्त हुआ करती थी,वो भी छपी हुए रूप में,जिसे छिपाना अत्यंत असाध्य हुआ करता था,जिससे ऐसी सामग्री को घर में लाने से कोई किशोर डरा करता था,मगर अब किशोरों की तो क्या कहिये,बच्चे-बच्चे के हाथ में मोबाईल के रूप में चौबीसों घंटे उपलब्ध रहने वाला ऐसा साधन उपलब्ध है,जिसके साथ कोई भी किस चीज़ का आदान-प्रदान कर रहा है,कोई नहीं जान सकता,क्योंकि देख-पढ़ लेने के बाद डीलीट करने के ऑप्शन के कारण आप कुछ भी चिन्हित नहीं कर सकते हो,दूसरी और किशोरों के हाथ में इंटरनेट नामक एक ऐसा हथियार आ चुका है,जिसे वो अपनी क्लास छोड़-छोड़ कर चाहे कितनी ही बार इस्तेमाल करने जा सकते हैं,जाते हैं.मगर अब तो यह मोबाईल में भी चौबीस घंटे उपलब्ध है!!आपने अपने बच्चों के हाथों में ऐसी चीज़ें उपलब्ध करवा दी हैं,जिसका उपयोग अब वो अस्सी से नब्बे प्रतिशत तक अपना यौवन बढाने के लिए ही करते हैं,आप भी अब खुश हो जाईये कि अब आप अपने ही बच्चों का कुछ भी नहीं "उखाड़"सकते!!ऐसे शब्दों का उपयोग मैं इसी कारण कर रहा हूँ,क्यूंकि मैं देख पा रहा हूँ,कि आगे क्या तस्वीर उभर रही है,जिसे बदल पाना हमारे बस के बाहर है दोस्तों !!
                धरती पर पुरुष-स्त्री के असंतुलित होते जाने के बरअक्श आप इस तस्वीर को सामने रखिये तो आपको इसकी भयावहता का अंदाजा लगेगा.एक तरफ कामुक होते किशोर तो दूसरी तरफ घटती स्त्री की आबादी,इन दोनों को एक साथ रखकर देखिये तो बात साफ़ हो जाती है.धरती पर पहले ही पुरुष द्वारा स्त्री पर जबरन किये जाने बलात्कारों की सीमा भयावहतम सीमा को पार कर चुकी है,जो अब रोजाना लाखों की संख्या में है,ऐसे में धरती पर आने वाले दिनों में स्त्री की अनुपलब्धता किस स्थिति को जन्म देने वाली है,इसकी कल्पना भी नहीं जा सकती !!बच्चे जब जल्द युवा होंगे तो उन्हें जल्द ही स्त्री भी चाहिए होगी,और क़ानून या समाज की उम्र की बंदिशें उन्हें यह करने से रोकेंगी,तब ऐसे में क्या होगा??
                  दोस्तों प्रकृति में जो भी कुछ है,वो एक-दुसरे के जीवन-यापन की ही एक भरपूर श्रृंखला है.इस श्रृंखला की अनेकानेक इकाईयों को आदमी अपनी कारस्तानियों के कारण मेट चुका है,मगर अब अपनी ही जाति की व्याप्त बुराईयों की वजह से स्त्री को माँ के पेट में ही नष्ट कर देता है,यह उसकी इस "थेथरई"का ही परिचायक है,कि हम अपने भीतर की बुराईयों को नहीं मिटाएंगे,जिसके कारण हम स्त्री को अजन्मा ही मार डालते हैं,बल्कि स्त्री को ही मार डालेंगे!!सच भी है,ना रहेगा बांस,ना बजेगी बांसूरी...!!
         मगर ओ पागल धरतीवासियों मगर इसी बांसूरी को बजाने के कारण ही तुम्हें सुख भी मिल रहा है,साथ ही धरती भी चल रही है,और तुर्रा यह कि यह सुख तुम्हें शायद चौबीसों घंटे भी मिले तो तुम अघा ना पाओ,तब तो ओ पागल लोगों इस बात को तुम समझो कि इस सुख को पाने के लिए,जिसके लिए ना जाने तुम कितने ही तरह के धत्त्करम करते चलते हो,ना जाने कितने झूठ बोलते हो,धूर्ततायें करते हो,जिस सुख की खातिर तुम्हारे मनीषी,साधू-पादरी और ना जाने कौन-कौन से महापुरुष अपना सम्मान विगलित कर गए!!उसके अनिवार्य माध्यम को मिटा देना तुम्हारी कौन सी समझदारी है,यह तो बताओ !!??
                 प्रकृति में हर-एक चीज़ के होने का कोई-ना-कोई कारण है,उसकी उपादेयता है तथा उसके ना होने से व्यापक हानि भी है,स्त्री के सम्मान-वम्माम को तो मारो गोली,वह तो पता नहीं आदमी कब सीख पायेगा,किन्तु एक जैविक तत्व होने के नाते भर से भी स्त्री की उपादेयता को आदमी अगर ईमानदारी-पूर्वक  समझ भर भी ले तो वह इस अपने लिए इस अनिवार्य जैविक के ना होने से होने वाले नुक्सान को समझ पाने में भी सक्षम नहीं है क्या यह सभ्य-सु-संस्कृत सु-शिक्षित आधुनिक इन्सान..??!!अगर हाँ,तो समस्या का निदान नहीं ही है,ऐसा ही समझिये...मगर मैं तो यह जोड़ना चाहूंगा कि ऐसे आदमी को गधा कहना गधे का भी अपमान होगा....आप क्या कहते हैं दोस्तों....??कुछ आप भी कहिये ना..??    

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http://baatpuraanihai.blogspot.com/

शनिवार, 24 सितंबर 2011

हैप्पी बर्थ डे आल ऑफ़ टू यू..............

मैं भूत बोल रहा हूँ..........!!
हैप्पी बर्थ डे आल ऑफ़ टू यू
दिन बदलते हैं....
कुछ बदलता सा दिखाई देता है....
मगर कुछ बदलता सा नहीं होता...
बस थोड़ा सा हम बदल जाते हैं....
एक दिन और बढ़ जाते हैं....
एक कदम और मृत्यु की और ले जाते हैं 
दिन बदलते जाते हैं...
और हर एक दिन के साथ 
बढ़ा लेते हैं हम 
अपनी कुछ और जिम्मेवारियां....
सर पर बोझ बढाते जाते हैं 
और खुद ही हर दिन 
अपने-आप पर बोझ बनते जाते हैं 
बदलता है ना बहुत कुछ...
हमारा हंसता हुआ चेहरा
उदासी में परिणत हो जाता है 
इस उदासी के बीच 
घर की जिम्मेवारियों के बीच 
किसी एक दिन या कुछेक दिन 
हम हंस लिया करते हैं 
और हो जाया करते हैं बाग़-बाग़ 
ढेर सारी बधाईयाँ पाकर
खुशह हो जाया करते हैं...
जब बहुत सारे लोग करते हैं विश हमें
जन्मदिन तो है ही सबका कोई ना कोई दिन 
मगर हर दिन को खुशियों से जी लें 
अपनी समस्त जिम्मेवारियों के बावजूद 
अपने तमाम दुखों और पीडाओं के बाद भी 
तो दोस्तों...इस जीवन का कोई अर्थ है...
है ना दोस्तों मेरे प्यारे दोस्तों....
तो आज मेरे जन्मदिन से 
आप भी अपने-आप से यह वादा करो
कि आप सब खुश रहो हमेशा 
अपने समस्त दुखों-पीडाओं के साथ भी....
ये जो कर्मफल हैं हमारे....
उन्हें नहीं मेट सकता कोई भी....
तो फिर दुखी होना 
जीवन का अपमान करना ही तो है....
आईये हम ख़ुशी मनाये अपने होने की....
आईये मैं देता हूँ.....
आपको अपने आने वाले जन्मदिवस 
की अनंत-असीम शुभकामनाएं....!!   

बुधवार, 21 सितंबर 2011

ये नए मिजाज का शहर है,ज़रा फासले से मिला करो !!

मैं भूत बोल रहा हूँ..........!!
                    आईआईएम बेंगलुरु की छात्रा मालिनी मुर्मू के आत्महत्या जैसे कदम उठाये जाने से एक बार फिर सोशल-साईट्स में बनाने वाले रिश्तों की गंभीरता पर प्रश्नचिन्ह उठता है,कि बिना-देखे भाले बनाए गए रिश्ते और दोस्ती टिकाउपन के लिहाज से कहीं क्षण-भंगुर तो नहीं...?महज अपनी फ्रेंड-लिस्ट के बड़ा होते जाने को लेकर रोमांटिक होना इस दुनिया का बड़ा शगल है,एक दुसरे के पोस्ट को लाईक करना या उनपर कमेन्ट कर दोस्ती की परिभाषा पूरी नहीं हुआ करती,बल्कि आपसी समझ-और विचारों के आदान-प्रदान द्वारा एक-दुसरे को और-और-और ज्यादा समझते जाना,साथ ही अपनी समझ को विकसित करना भी नेट-दोस्ती की एक महत्वपूर्ण कसौटी बनायी जा सकती है !
                   इंटरनेट पल-भर में अपनी वैश्विक पहुँच के कारण आज ना सिर्फ सूचनाओं के त्वरित पहुँच का कारण और माध्यम बन चुका है बल्कि हरेक व्यक्ति के अपने विचारों के प्रकटीकरण का सबसे सशक्त माध्यम भी बन चुका है,मगर दोस्ती और संवेदना के लिहाज से यह अब भी खासा निरुत्साहित करने वाला है.क्यूंकि दोस्ती के लिए जान लड़ा देने वाली परम्परागत वैश्विक सोच के बनिस्पत यह दोस्ती अब गोया एक खेल बन चुकी इस माध्यम में....!!और यही इस माध्यम सबसे क्रूर सत्य है !!एक-दुसरे से कोसों-मीलों दूर बैठे लोग जब एक-दुसरे से दोस्ती गांठने का उपक्रम करते हैं तब उनमें कैसी और कितनी समझ होती है एक-दुसरे के प्रति, यह एक सवालिया निशान है इस नेट जगत के दोस्तों के बीच....और इस तरह के मुद्दों के मद्देनज़र हम सबको अपने भीतर भी टटोलना चाहिए कि हम इस दोस्ती में कहाँ तक ईमानदार है...??
                   वरना एक तरफ तो हो सकता है कि आपके विचारों या आपकी बातों से प्रभावित होकर या आकर्षित होकर कोई आपको अपना दोस्त-प्रेमी-प्रेयसी या कुछ भी बना डालता हो,जबकि आप सिर्फ शब्दडाम्बर रच रहे होंओ....महज एक खेल खेल रहें होंओ....या फिर इसका उलटा भी होओ....कि सामने वाला यही कर रहा हो आपके साथ....!!ऐसे में तो इस नयी दोस्ती से किसी भी प्रकार की अपेक्षा करना भी बिलकुल व्यर्थ है और इससे यह सन्देश भी ध्वनित होता है कि इस तरह की सोशल साईट्स में जाकर दोस्त "निर्मित" करने वाले लोग दोस्ती को दोस्ती के अर्थ में ना लें !!(जहां वाकई लोग दोस्त ही हैं,उनकी बात मैं नहीं कर रहा !!)
                     और इस करके वो इस तरह की "दोस्तियों" से कुछ भी अपेक्षा ना रखें !!बल्कि किसी भी "नामालूम"आगत के लिए भी खुद को तैयार रखें...क्यूंकि यह बात सदा ध्यान में रखने योग्य है कि जिस जगह आप दोस्ती कर रहे हो,वह सार्वजनिक है (बल्कि सार्वजनिक पैखाना कहूँ तो ज्यादा बेहतर होगा !!)और जहां बहुत सारे लोग टट्टी-पेशाब की तरह भी दोस्ती कर रहें हैं,जिन्हें पहचाना भी नहीं जा सकता......और इसका खुलासा तो तब हो पाता है जब कोई मालिनी मुर्मू फेसबुक पर अपने बॉय-फ्रेंड के खुद के रिश्ते पर सार्वजनिक रूप से कमेन्ट किये जाने पर आत्महत्या जैसा आखिरी कदम उठा लेती है,जिसे मेरे जैसे लोग ह्त्या मानते हैं....मगर इस तरह के बॉय-फ्रेंड जैसे हत्यारे तरह-तरह के तिकड़मी वक्तव्यों से खुद को बचा भी लेते हैं,क्यूंकि वो दरअसल एक ठग हैं!!                         इसलिए ओ फेसबुकिया दोस्तों सावधान....यहाँ पर हजारों ठग हैं....संभल कर कीजिये दोस्ती....एक शेर तो सूना ही आपलोगों ने....बशीर बद्र का है,कोई हाथ भी ना मिलाएगा जो गले मिलोगे तपाक से....ये नए मिजाज का शहर है,ज़रा फासले से मिला करो !!(क्या बशीर जी ने यह सोचा भी होगा कि उनके द्वारा यह लिखे जाने के बाद ऐसी एक वर्चुवल दुनिया पैदा होगी जहां उनका यह शेर बिलकुल सटीक बैठ जाएगा....!!??)  

शुक्रवार, 16 सितंबर 2011

अभी-अभी जो मैंने पढ़ा....अच्छा लगा....!!

मैं भूत बोल रहा हूँ..........!!

SUNDAY, SEPTEMBER 11, 2011

जब औरत घर की जिम्मेदारियां ना संभालना चाहे तो क्या करें?

peopleइंसान को जीने के लिए इस दुनिया मैं बहुत कुछ करना पड़ता है. बचपन से बच्चों को पढाया लिखाया जाता केवल इसलिए है कि समाज मैं इज्ज़त से सर उठा के जी सकें. अपनी अपनी सलाहियत के अनुसार हर इंसान अपने रोज़गार का रास्ता चुन लेता है. कोई व्यापार करने लगता है, कोई विज्ञान मैं महारत हासिल करता है तो कोई बैंकिंग मैं और उसी के अनुसार नौकरी कर लेता है. इस प्रकार इंसान का जीवन दो ख़ास हिस्सों मैं बंट जाता है . पहला उसका घर और परिवार और दूसरा उसकी नौकरी या व्यापार.

किसी के पास अच्छा व्यापार या नौकरी है और उसका घर भी अच्छे से चल रहा है तो वो इंसान एक सुखी इंसान कहलाता है.लेकिन इन दोनों सुखों को पाने के लिए इन्सान को बहुत सी कुर्बानियां  देती पड़ती हैं, मेहनत करनी पड़ती है. इसमें औरत या मर्द का कोई सवाल नहीं आता बल्कि जैसा कि मैंने कहा अपनी अपनी सलाहियतो का इस्तेमाल करते हुए करते हुए  औरत और मर्द इन  सुखों को पाने कि कोशिश करते हैं.

यकीनन यदि किसी घर मैं पति और पत्नी दोनों घर पे बैठ के रोटियां  पकाएं , बच्चों की परवरिश मैं ही लगे रहें तो उनको यह सब करने के लिए धन कहाँ से आएगा? और यदि दोनों नौकरी करने लगें तो घर का सुकून ख़त्म हो जाता है क्यों कि केवल धन से ना तो औलाद  की  सही परवरिश संभव है और ना ही शाम के २ घंटो मैं घर को संभालना संभव है.

सबसे बेहतर तरीके से वही घर चलता है जहाँ एक धन कमाने के लिए घर से बाहर जाए और दूसरा घर पे रह ते हुए औलाद की परवरिश और घर तथा समाज के दूसरे कामों को अंजाम दे. कौन किस काम को करेगा इसका फैसला उनकी सलाहियत करेगी ना कि हमारी जिद.

यह औरत ही है जो अपने गर्भ मैं ९ महीने अपने बच्चे को रखती है और जन्म होने पे उस बच्चे को दूध पिलाना होता है. ऐसे मैं बच्चा अपनी माँ से लगा रहता है और वो जैसी  परवरिश करती है वैसा बनता चला जाता है. यह दोनों काम किसी मर्द के लिए करना संभव नहीं यह सभी जानते हैं.ऐसे मैं इस बात कि जिद करना कि हम घर को नहीं संभालेंगे ,बस बाहर जा के धन कमायेंगे कहाँ तक उचित है?

मर्द को ना गर्भ मैं बच्चे रखने हैं, ना दूध पिलाना है. शारीरिक रूप से भी अधिक मज़बूत है तो यदि वो बाहर के काम करे, मजदूरी करे, नौकरी करे ,व्यापार करे तो इसे  ना इंसाफी तो नहीं कहा जा सकता? यहाँ ना तो किसी गुलामी की बात है और ना ही किसी ज़ुल्म कि बात है. यह बात   है पति और पत्नी के समझोते की जिसके नतीजे मैं दोनों पारिवारिक सुख का अनुभव करते हुई सुखी जीवन व्यतीत करते हैं.

यदि किसी अलग परिस्थिति में या मजबूरी में यह आवश्यक हो जाए कि पत्नी नौकरी करे या ऐसी औरत जिसके  कोई औलाद नहीं, घर पे पड़े पड़े क्या करे तो यकीनन उसे भी अपने  व्यापार मैं साथ देना चाहिए और नौकरी कर के कुछ और धन कमाने कि कोशिश करनी चाहिए.

लेकिन पति कमाने में सक्षम है, व्यापार भी बढ़िया है फिर भी अपने औलाद के प्रति , घर के प्रति ज़िम्मेदारी को महसूस ना करते हुए  बाहर नौकरी करने कि जिद ,या किसी और काम मैं समय गंवाने की जिद क्या घर का सुकून और चैन ख़त्म नहीं कर देगी?

माना कि घर कि जिम्मेदारियों   को निभाना आसान नहीं, घर मैं बंध के रह जाना  पड़ता है , अक्सर बुज़ुर्ग महिलाएं घर की बहु को ना जाने क्या क्या सुना देती हैं, बहुत बार खराब पति होने पे पति की चार बातें घर  की सभी ज़िमेदारियां निभाने   के बाद भी  सुननी भी पड़ती है लेकिन यह हर घर मैं तो  नहीं होता?

क्या नौकरी मैं मर्द को ज़िल्लत का सामना नहीं करना पड़ता? क्या खराब अफसर के आ जाने पे बुरा भला नहीं सुनना पड़ता? यह तो जीवन है जिसमें इस तरह कि बातें होती रहती रहती हैं. इसका बहाना बना के यदि मर्द नौकरी की  ग़ुलामी से भागने लगे और औरत घर मैं रहके अपनी जिमेदारियों को निभाने को ग़ुलामी का नाम देते हुए उस से से भागने लगे तो यकीन जानिए मानसिक शांति जिसके लिए हम सब कुछ करते हैं ख़त्म हो जाएगी.  आज  तरक्की के युग में ऐसे घरों की संख्या दिन बा दिन बढती जा रही है.

ध्यान रहे अकारण जिद घरों को बसाते नहीं उजाड़ देते  हैं. कुछ लोग तो इतने अव्यवहारिक अपनी  जिद मैं हो जाते हैं कि तरक्की के नाम पे महिलाओं को शादी ना करने तक का मशविरा दे डालते हैं.

पति और पत्नी को अपनी जिद छोड़ के अपनी अपनी सलाहियतो, परिस्थियों के अनुसार काम को बाँट लेना चाहिए और सुख से जीवन व्यतीत करना चाहिए. यही वास्तविक तरक्की कहलाती है.
गुरुवार, 1 सितंबर 2011

क्या कोई सुन भी रहा है...???

मैं भूत बोल रहा हूँ..........!!
क्या कोई सुन भी रहा है...???
"संपत्ति ने मनुष्य का निर्माण नहीं किया है,बल्कि मनुष्य ने संपत्ति ईजाद की है.अपनी जिन्दगी को जितनी सरलता और सहजता से जी सको,जीने की कोशिश करो.अगर आपके पास पैसा है,तो उसे अनावश्यक रूप से खर्च करने के बजाय उन लोगों पर खर्च करो,जिन्हें इसकी जरुरत है."
ये शब्द (किसी संत या) किसी और के नहीं अपितु दुनिया  के सबसे बड़े उद्द्योगपतियों में शुमार "वारेन बफेट"के हैं,जिन्होंने अपनी निन्याबे प्रतिशत सपत्ति तो दान में ही दे डाली है,और उन्होंने desh के अमीरों पर और ज्यादा टैक्स लगाने की वकालत की है,और मजा यह की अनेक धनपतियों ने उनकी इस राय और पहल है तहे-दिल से स्वागत किया है,और राष्ट्र की मदद के लिए ऐसा योगदान करना स्वीकार कर लिया है !!
                  दूसरी और भारत की बात करें तो भारत के धनकुबेर(बल्कि धन पशु कहूँ तो ज्यादा अच्छा होगा!!)टैक्स बढवाना तो दूर,बल्कि तरह-तरह की तिकड़मों से टैक्स बचाते हैं,जहां भी संभावना हो टैक्स की चोरी करते हैं.मगर यह तो हुई सिर्फ चोरी की बात.कारोबार में तरह-तरह की रियायतों के रूप में सरकार से अनेकों छूट भी हासिल करते हैं,अगर आपको यह जान कर कोई ताजूब ना हो तो बताऊँ की अकेले २०१०-२०११ को एक लाख करोड़ रुपये वो इस छूट के रूप में हासिल कर चुकें हैं,तो दोस्तों यह आंकडा आप पिछले दस सालों पर लागू कर दें,तो आप पायेंगे की कितनी अकूत धन-संपदा उन्होंने इस सरकारी चोर रास्ते से प्राप्त कर ली है,जिसे हम-आप-कोई भी नहीं जानता...दूसरी और घाटा-घाटा का विलाप करते हुए इन उद्द्योगपतियों की सरासर मदद करती हुई यही सरकारें गरीब लोगों द्वारा उपयोग की जाने वाली अनेकानेक वस्तुओं पर से लगातार सब्सिडी कम-पर-कम किये जाती हैं !!
                क्या वारेन बफेट के द्वारा उठाये गए सवाल और उनके इस तरह कदमों से भारतीय धनकुबेर कोई प्रेरणा ले पायेंगे...अगर ऐसा हो पाया भारत सचमुच अपने सपूतों से निहाल हो जाएगा....!!!
बुधवार, 31 अगस्त 2011

क्या हम सब एक जंगल में रहते हैं.....??

क्या हम सब एक जंगल में रहते हैं.....???



मैं भूत बोल रहा हूँ..........!!
   क्या हम सब एक जंगल में रहते हैं.....??
..........जंगल.....!!यह शब्द जब हमारी जीभ से उच्चारित होता है....तब हमारे जेहन में एक अव्यवस्था...एक कुतंत्र...एक किस्म की अराजकता का भाव पैदा हो जाया करता है....इसीलिए मानव-समाज में जब भी कोई इस प्रकार की स्थिति पैदा होती है तो हम अक्सर इसे तड से जंगल-तंत्र की उपमा दे डालते हैं.....मगर अगर एक बार भी हम जंगल की व्यवस्था को ठीक प्रकार से देख लें तो हम पायेंगे कि हमारी यह उपमा ना सिर्फ़ गलत है....अपितु जंगल-विरोधी भी है....!!
               क्या कभी किसी ने किसी भी जंगल में अव्यवस्था नाम की चीज़ देखी भी है...??अव्यवस्था दरअसल कहते किसे हैं?....जंगल में (प्रक्रिति) का सिस्टम क्या होता है...यही ना कि शेर हिरण को खा जाता है....??मगर कब...जब उसे भूख लगती है केवल-और-केवल तब..!!जब-तब तो नहीं ही ना...मगर यह सिस्टम तो उपरवाले द्वारा प्रदत्त सिस्टम है...जिससे जंगल ही नहीं बल्कि सारा जगत चला चला करता है...मानव-जगत के सिवा....जल-थल और नभ,सब जगह का प्राकृतिक नियम एक समान है कि एक मजबूत भूखा जानवर एक कमजोर जानवर को खा जाता है...मगर सब जगह एक बात सामान्य है...वो यह कि सब जानवरों को जब भूख लगती है....केवल और केवल तभी उसके द्वारा दूसरे को खाये जाने की ऐसी घटना घटती है....इसके अलावा बाकी सब कुछ,सब समय,सब जगह बिल्कुल सामान्य और सहज ढंग से घटता रहता है.....प्राय: सब जानवर एक-दूसरे के संग आपस में घुल-मिलकर ही रहा करते हैं...और ऐसा होना हमारी जानकारी के अनुसार जीव-जगत के प्रादुर्भाव के समय से ही सुचारू ढंग से चला आ रहा है....शायद चलता भी रहेगा.....गनीमत है कि कम-से कम जंगल या जीव-जगत में यह एक अनिवार्य किस्म की नियमबद्द्त्ता जारी ही है....वरना हम हम कभी के नियम नाम की किसी चीज़ को भूल गये होते....!!
                      आदमी के जगत में,भले ही आदमी खुद को क्या-न-क्या साबित करने में लगा रहे मगर,हर पल यह बात साबित होती है कि अनुशासन में बंधना आदमी की फ़ितरत कतई नहीं है....भले ही धरती के कुछ हिस्सों में आदमी नाम की यह जात अनुशासन नाम की चीज़ से बंधी हुई दीख पड्ती है...मगर यह अनुशासन अधिकांशत: भय-जनित प्रक्रिया है,जहां कि नियम का पालन न करने पर कठोर दंड का प्रावधान है....और मज़ा यह कि तमाम कठोर-से-कठोर दंडों के बावजूद भी आदमी नाम का यह उच्चश्रृंखल  जीव नीच-से-नीच कर्म करता पाया जाता है....बेशक फांसी भी चढ जाता है....मगर अपने कुकर्मों से तनिक भी बाज नहीं आता...और मज़ा यह कि यही आदमी हर वक्त खुद को जानवरों से बेहतर बताता है...!!
                                अगर सिर्फ़ सोच के बूते,जबकि उस सोच का अपने जीवन में किसी भी प्रकार की करनी पर कोई असर तक ना हो,एक जात विशेष को बिना किसी से पुछे अपने-आप ही बेहतर बताना एक किस्म की धृष्टता ही कही जायेगी...एक अहंकार-जनित अहमन्यता.....!!मगर आदमी को इससे क्या लेना-देना....वो श्रेष्ठ था,श्रेष्ठ  है और सदा श्रेष्ठ ही रहेगा.... किसी को कोई दिक्कत है तो हुआ करे उसकी बला से....!!मगर आदमी की तमाम करनी को जानवरों के कर्मों से तौलें तो हम यही पायेंगे कि जंगल, आदमी के समाज से सदा बेहतर था...बेहतर है....और शायद जन्म-जन्मान्तर तक बेहतर ही रहेगा क्योंकि जानवर की तलाश सिर्फ़-और-सिर्फ़ पेट की भूख है....मगर आदमी की तलाश पेट से ज्यादा अहंकार.... लालच....और उससे निर्मित स्वार्थ की है....और चुंकि आदमी सोचता भी है....सो भी वह अपने स्वार्थ से ज्यादा कभी कुछ नहीं सोचता...भले वह बातें तरह-तरह की जरूर कर ले....और अपनी लच्छेदार बोलियों से अपने स्वार्थ...अपने अहंकार....अपने लालच...अपनी बेईमानियों को तरह-तरह के प्यारे-प्यारे नाम और काल्पनिक शक्ल क्युं ना दे दे....!!
                        आदमी इस जगत वह सबसे अलबेला जीव है....जो अपने समुचे जीवन में अपनी तमाम कथनी और करनी के अंतर के बावजूद खुद को खुद ही श्रेष्ठ साबित किये हुए रहता है....और मज़ा यह कि इसमें उसका खुद का ही,यानि अपनी खुद की जाति के लोगों का समर्थन भी रहता है....अपने स्वार्थ...अपने अहंकार....अपने लालच...अपनी बेईमानियों के एवज में वो कत्ल करता है.....बम फ़ोडता है....हज़ारों लोगों का एक साथ कत्लेआम करता है....अपने जीवन में खुद को और खुद के संबंधियों को आगे बढाने के लिये ना जाने क्या-क्या करम करता है....खुद के रंग....धर्म....नस्ल....धन....वर्ग को ऊंचा साबित करने से ज्यादा सामने वाले को बौना साबित करने के लिये हर-प्रकार के शाम-दाम-दंड-भेद का सहारा लेता है... चुगलखोट्टा तो यह जीव इतना है कि धरती का हर जीव इसके सम्मुख तुच्छ है....और अहंकारी इतना कि ऊपरवाला भी इसके सामने पानी भरे....लालची भी इतना कि दुनिया का सब कुछ उदरस्थ करके भी इसका जी भरने को ना आये....और मज़ा यह कि फ़िर भी आदमी सबसे श्रेष्ठ है...क्या आपको हंसी नहीं आती आदमी की यानि अपनी इस स्वनामधन्य अहंकार-जनित श्रेष्ठता पर....यदि नहीं....तो आप भी इसी प्रकार की आदमीयत का इक हिस्सा हैं.....
                                आदमी हमेशा समाज-समाज करता रहता है....मगर उसके समाज की अंतरंग सच्चाई क्या है....??
               क्या यह समाज,जो एक ही जाति के लोगों का तथाकथित पढा-लिखा,सभ्य-ससंस्कृत समाज है,क्या वास्तव में यह है.. ??
              क्या धरती के इस हिस्से से लेकर उस हिस्से तक वह किसी भी एक रूप से एक है??
              वसुधैव-कुटुम्बकम की प्यारी-प्यारी धारणाओं के होते हुए भी क्या कभी भी किसी भी वक्त में यह धारणा या ऐसी ही कोई अन्य धारणा धरती पर विचार-भर के अलावा अन्य किसी भी रूप में फलीभूत हुई भी है??                                  
              क्या समाज आज भी तरह-तरह से एक-दूसरे का खून नहीं पीता....??वह भी सामाजिकता का चोला ओढ़कर....!!!!
             यह समाज क्या आज भी बिना किसी कारण के महज अपनी धारणा को पुख्ता बताने के वास्ते दूसरे का सिर कलम नहीं कर देता ??
             क्या यही समाज आज भी किसी गैर के या यहां तक कि अपने ही घर में अपनी बहन-बेटियों का रेप नहीं करता??
             क्या आज भी यह समाज अपने फायदे के लिये कौन-सा गंदे-से-गंदा काम नहीं करता....??
             आदमी के द्वारा किये जाने वाले अगर इन तमाम कामों की फ़ेहरिस्त तैयार करूं तो एक लंबा-सा आलेख अलग से और तैयार करना पडेगा....!!(आप कहें तो शुरू करूँ....??)
             सच तो यह है कि भाषा आदमी की....बोली आदमी की....जानवर तो बिचारे मूक प्राणी रहे हैं सदा से,इसलिए सदा से इस धरती पर बेखट्के राज करता आया है आदमी....मगर करे ना राज आदमी कौन साला उसे मना करता है....मगर अपनी करनी का दंड इस पूरी धरती को क्यूं देता है....अपने किये की गाज जानवरों-पहाडों-नदियों और तमाम तरह के वातावरण पर क्यूं डालता है....??
             और तो और आदमी पशुओं के नाम की गाली क्यूं देता है....पशु बेचारों ने आदमी के बाप का क्या बिगाडा है??यह जो सामाजिक दुर्व्यवस्था है...यह तो आदमी नाम के इस जीव की मौलिक उपज या आविष्कार है...!! इसे जंगल का नाम देकर जंगल बेचारे का नाम बदनाम क्यूं करता है...??
              खुदा ना खास्ते अगर कभी कुछ जानवरों ने आदमी की कुछ हरकतें सीख लीं ना.....तो आदमी का समाज जंगल चाहे बना हो या बना हो.....जंगल अवश्य एक वीभत्स समाज बन जायेगा आदमी की एक घटिया कार्बन-कापी....एकदम बेलगाम...उच्चश्रृंखल ...और इन बेचारों को यह मालूम भी ना पडेगा कि वो क्या-से-क्या बन गए हैं और उनका जंगल भी.....क्या-से-क्या....!!
            आदमी तो शायद अपनी सोच से संभवत: कभी बदल भी पाये.... क्यूंकि शायद कभी तो वह ठीक-ठाक तरह भी सोच ले.....मगर जानवर तो यह सोच भी नहीं सकते कि गलती से वे भी अगर आदमी की तरह हो गये तो धरती किस किस्म की हो जायेगी.....!!!
शुक्रवार, 26 अगस्त 2011

कुछ मुद्दे....जो हमारे लिए वांछित होने चाहिए....!!

मैं भूत बोल रहा हूँ..........!!
कुछ मुद्दे....जो हमारे लिए वांछित होने चाहिए....!!

मिस्टर राहूल,तुम्हारे कहने अनुसार अगर लोकपाल भी भ्रष्ट होगा तो तुम प्लीज़ चिंता मत करो,उसे जनता बदल देगी,ठीक उसी तरह जिस तरह आने वाले चुनावों में वह तुम समस्त लोगों को बदल देने वाली है....!!
ओ संसद के तमाम सांसदों,तुम सब जिस तरह जन-लोकपाल के प्रश्न पर जिस तरह का दोहरा आचरण कर रहे हो,उसका प्रत्युत्तर जनता तुम्हें जल्द ही देने वाली है,तुम जैसे तमाम सांसदों का अबकी बार संसद से सफाया होकर ही रहेगा,तुम्हारा धनबल,बाहुबल या कोई भी छल-कपट तुम्हें नहीं बचा पायेगा...!!
एक अपील हम जनता से....आने वाले चुनावों में वह साफ़-स्वच्छ छवि वाले वाले उम्मीदवार को हो अपना मत दे,ऐसे किसी को उम्मीदवार को वह धन आदि की कमी के चलते हारने ना दे,उसे भरोसा दे,और इतना ही नहीं उसके जीतते ही उसके घर जाकर उसे बधाई देने के पश्चात उस पर जनता के लिए कार्य करने का नैतिक दबाव बनाए...!! 
अब जनता आने वाले दिनों में अपने-अपने क्षेत्र के सांसदों से उसके किये-धरे का चिठ्ठा मांगे,और जिसने जो कुछ भी अवैध अर्जित किया हो,उसकी बाबत सवाल पूछे,उसका समुचित उत्तर ना मिल पाने पर उस सांसद का क्या करना है उसके बारे में मिल बैठ कर सोचे...!! 
यह भी बड़ी अजीब बात है की आप चोरी करो,डाका डालो,लड़कियों के साथ बिस्तर गर्म करो,देश की सुरक्षा तक के साथ खिलवाड़ करो,देश का धन बाहर ले जाओ...अपना ही घर बस भरते जाओ,भरते जाओ,भरते जाओ और हम कुछ कहें या पूछे तो कहो यह अशोभनीय है,यह भाषा अनुचित है,असंसद्नीय है ,तो अब तुम्ही बताओ हमें ,क्या उचित है,क्या अनुचित !!
दोस्तों, भारतमाता किसी अन्ना के बहाने से आप-हम-सबे दिलों पर यह दस्तक दे रही है,के हम भी अब सुधर जाएँ,बदल जाए और एक हद तक सच्च्चरित्र हो जाएँ(क्यूंकि हम भी तो पूरा नहीं बदल सकते...!!??)सिर्फ दूसरों को गरियाने से कुछ नहीं बदलेगा,हरेक चीज़ के इकाई हम खुद हैं,हमें खुद को जिम्मेदार-सभ्य और निष्कलंक नागरिक बनना होगा...!!
अगर सच में ही हम खुद को भारतीय कहतें हैं,तो भारतीयता के निम्नतम कसौटी के ऊपर खुद को कसना होगा,एक नागरिक के रूप में हमारे भी क्या कर्तव्य हैं,उन्हें पूरा करना ही होगा,वरना एक जन-लोकपाल तो क्या एक लाख लोकपाल या जन-लोकपाल भी रत्ती-भर मात्र भी कुछ नहीं उखाड़ पायेंगे,आन्दोलन का रोमाच एक बात है...और खुद को बदलना बिलकुल दूसरी बात..!!
हमारे ह्रदय में हमारी आत्मा में क्या पक रहा है,इसी पर देश का भविष्य सुनिश्चित है,हम खुद को कुछ बनाना चाहते हैं,या देश को सचमुच कहीं ले जाना चाहते हैं,यह बिलकुल स्पष्ट तय नहीं है तो इस आन्दोलन-वान्दोलनों का कोई अर्थ नहीं है ,सिर्फ हमारी खुद के गुणवत्ता ही देश को वाजिब उंचाई प्रदान कर सकती है..!! 
अब सिर्फ यही आत्म-मंथन करना है,के हम क्या थे,क्या हैं,और क्या होंगे अब....!!सिर्फ एक नेक विचार देश को नयी उंचाईयां प्रदान कर सकता है,क्या कुछेक विचारों पर सोचने को,उन्हें अपने दिल में जगह देने को,उन पर चलने को हम तैयार हैं....??
अन्ना एक निमित्त बन चुके...अब आगे का काम तो हम अरबों लोगों का ही है,सत्ता के लोगों का अहंकार संभवतः अन्ना को "भूतकाल"में परिणत कर दे, क्योंकि डोलते हुए भयभीत सांसदों से अब शायद कोई उम्मीद ही नहीं के सकती,तो अगर अना ना रहें तो हमें क्या करना है....!!????
प्रश्न तो ढेर-ढेर सारे हैं....आर उत्तर खुद हमारे ही भीतर....उत्तर ढूँढ लें,समस्याएं स्वतः ही हल हो जायेंगी,यह समय आन्दोलन से अधिक अपने भीतर झाँकने का है,खुद को सही दिशा प्रदान करने का है....!!
हर तरफ-हर जगह यह लिखा हुआ पाया जा रहा है,मैं अन्ना हूँ,मैं अन्ना हूँ,मैं अन्ना हूँ....ज़रा सोचिये...एक अन्ना ने एक आंधी पैदा कर दी है...हम सब यदि अन्ना हो गए,तो फिर देश को उंचाईयों पर पहुँचते देर ही कहाँ लगेगी...!!

बुधवार, 24 अगस्त 2011

अब अगर अन्ना को कुछ हुआ तो.......!!

अब अगर अन्ना को कुछ हुआ तो.......!!
             दोस्तों कल रात टीम-अन्ना के साथ हुई बातचीत को सत्ता के अहंकार ने विफल कर कर दिया है,क्योंकि सभी दलों के सांसदों के साथ हुई बातचीत में हमारे देश के,हमारी सेवा करने के लिए हमारे द्वारा चुने गए हमारे जन-प्रतिनिधियों ने बेमिसाल और अपूर्व एका दिखाया....उससे हमारे द्वारा नियुक्त किये गए इन जन-प्रतिनिधियों 
की स्वार्थ-मंशा बिलकुल साफ़-साफ़ उजागर होती है,और यह भी स्पष्ट होता है कि संसद और विधानसभाओं में भेजे गए हमारे जन-प्रतिनिधियों ने राजनीति को स्पष्ट तौर पर अपना पेशा बना लिया है और इस पेशे से पर्याप्त लाभ बटोरने के लिए अब वे किसी भी हद तक जा सकते अथवा उसे पार कर सकते हैं....और यही कारण है कि लगभग समस्त सांसदों के सूर इस भयानक मुद्दे पर जनता की राय के बिलकुल विपरीत हैं....उस जनता के हिमायतियों को ये नपुंसक-स्वार्थी और कायर लोग नकार और धिक्कार रहें हैं....जिनके बूते ये (हरामखोर!!)लोग आज सत्ता पर आसीन है....और मजा यह कि हमहीं पर शासन भी कर रहें हैं...मगर केवल यहीं तक होता तो जनता बर्दाश्त भी करती....मगर जिन्होंने बरसों-बरस से देश और राज्यों में शासन के स्थान पर सिर्फ-व्-सिर्फ लूट और खसोट ही की है....और तो और अब तो पिछले कुछेक बरसों से तो ये साहिबान तो मवालीगिरी भी करते चले आ रहे हैं...उस सत्ता का ऐसा दंभ...!!कि वह एक संत-एक निस्वार्थी सामाजिक कार्यकर्ता की बिना अन्न-जल ग्रहण किये हुए आन्दोलन की आवाज़ ही अनसुनी कर दे....??अगर ऐसा है तो अब हमें भी ऐसी सत्ता और इस जैसी समस्त सत्ताओं को उसकी औकात बता ही देनी चाहिए...!!और साथ ही अपनी....यानी अरबों की अपनी इस जनसंख्या की ताकत का अहसास भी.....!!
                  दोस्तों....अब तक तो हम इस देश का अन्न खाते आयें हैं...इसका दिया हुआ वस्त्र हमने पहना है....इसीकी मिटटी पर हमनें मल-मूत्र भी त्यागा है....मगर इसकी सरजमीं ने हमें आसरा दिया है....और इसके गौरव से हम खुद गौरवान्वित महसूस करते चले आयें हैं...तो फिर आज वक्त का यह तकाजा हो गया है....कि अब अपने छोटे-छोटे स्वार्थों को ज़रा-सी देर के लिए भूल-भाल कर इस देश के कूड़े-कचरे को साफ़ करने के लिए किये जा रहे इस आन्दोलन का साथ देने के लिए हम भी उठ खड़े हों....!!यह इस करून वक्त की पुकार है....कि एक व्यक्ति हमारे लिए खुद को मिटाने की कगार पर पहुँच चुका हो....और हम सब सिर्फ अपने स्वार्थ की नालियों में कीड़ों की तरह निमग्न रहें...अगर ऐसा हुआ तो इतिहास भले हमें माफ़ कर दे...मगर हमारे खुद के बच्चे तक भी हमें माफ़ नहीं करेंगे...!!
                अन्ना का आन्दोलन इस देश के इतिहास का वह मोड़ है...जहां से जनता ही इसे वह राह-वह दिशा प्रदान कर सकती है...जहां जाने और जिस जगह को पाने के लिए इस देश के विवेकवान लोगों की अंतरात्मा कराहती रही है....भारतमाता का ह्रदय छटपटाता रहा है...!!अरबों भूखे-नंगों लोगों के इस देश को और भी कंगाल बनाने पर उतारू रहें हैं सदा से मुट्ठी भर लोग....इन मूठी भर लोगों का क्या हश्र किया जाना चाहिए....अब यह हम सबको बैठकर तय करना ही होगा...और यह भी अभी की अभी ही....!!अब अन्ना हजारे सिर्फ एक व्यक्ति नहीं....एक नारा हैं....एक सैलाब है....एक आंधी हैं....एक तूफ़ान हैं....और अगर इस बहाव में हम सब नहीं उठ खड़े होंगे तो सच बताऊँ....??हमपर धिक्कार होगा...और वतन पर एक बहुत बड़ी प्रताड़ना...!!
                इसी वक्त इस आन्दोलन को एक भीषण जन-आन्दोलन में तब्दील कर डालना होगा...व्यवस्था परिवर्तन-सत्ता-परिवर्तन....और अपने खुद के आचरण में भी आमूल-चूल परिवर्तन के लिए अब हमें अपने मन में ठान लेनी चाहिए....!!एक बार इस सत्ता के अहंकार को उसकी औकात बताने के लिए एक दिन के लिए समूचा देश बंद कर अरबों लोगों को एक साथ सड़क पर आ जाना चाहिए....हरेक सांसद-विधायक-ठेकेदार-अफसर और हमारी दृष्टि भी जो भी भ्रस्थ कर्मी है....उसका घेराव कर सत्ता को सुस्पष्ट सदेश देना ही होगा कि सिंहासन खाली करो कि जनता आती है....कि सिंहासन खाली करो जनता आ रही है....और अब भी तुम नहीं हते या बदले तो यही जनता तुम्हारे सीने पर मूंग डालेगी.....जिसकी छाती पर तुम इतने बरसों मूंग डालते आये थे....!!
                 जाते-जाते एक नसीहत सत्ता और उसके सहयोग से नाच रहे समस्त लोगों को कि बेशक अब उनकी नज़र में अन्ना का अनशन उनकी अपनी निजी समस्या है...मगर अन्ना को अब कुछ भी हुआ तो......तो....तो....!!!!
रविवार, 14 अगस्त 2011

जश्न मनाइए दोस्तों....कि अब तो हम आजाद हैं !!

जश्न मनाइए दोस्तों....कि अब तो हम आजाद हैं !! 
                     दोस्तों,हर साल की भांति इस साल भी यह आज़ादी का दिवस हमारे माथे पर खडा है.हमारे चारों और देश-प्रेम के गीत थोक के भाव में सुनाई दे रहे हैं और संजोग ऐसा है कि समस्त भारत में इसमें हो रहे घोटालों के गूँज और इसकी अनुगूंज समस्त विश्व में हो रही है.भारत आज चरित्र के सबसे निचले पायदान पर खडा है और भ्रष्टतम  देशों का सिरमौर !!सिरमौर का क्या अर्थ होता है,क्या वो आप जानते हैं....सिरमौर का अर्थ होता है सबसे ऊपर....आपके माथे-सर से इतना ज्यादा ऊपर कि जिसे देखने के लिए आपको आपना माथा या गर्दन ऊपर उठानी पड़े और यह शब्द प्रमुखतया गौरव के अर्थों में ही प्रयुक्त किया जाता है !!वह तो भला हो भारत के शासक वर्ग और उससे जुड़े तमाम तरह के सफेदपोशों का,जिन्होंने समस्त पवित्र शब्दों का अर्थ तो गलीच और समस्त घटिया शब्दों के अर्थों को जन-जन में ऐसा व्याप्त कर दिया है कि अब यही शब्द हर किसी की जुबां पर हैं....आम आदमी हो या मीडिया...या अन्य कोई भी हो !!
कहीं-कहीं आन्दोलनों की भरमार भी है,जिसके परिणाम हम आने वाले दिनों में पायेंगे किन्तु इस सबके बीच एक घोर चिंता का विषय है जिस पर किसी की दृष्टि ही नहीं जाती !!
                  दोस्तों हर जगह तरह-तरह की शक्ल में हो रहे इन आन्दोलनों में बहुतेरे ऐसे लोग भी शरीक हैं,जिनके विरुद्द यह आन्दोलन  है,अपने ही खिलाफ हो रहे इन आन्दोलनों में बड़े ही मजे से शरीक इन लोगों के लिए चित्त और पट्ट दोनों ही इनकी है!!यहाँ तक कि जो मीडिया इस सबको हवा देता है और जो मीडिया भ्रष्ट लोगों का नकाब उतारता है...वो मीडिया भी एक बहुत बड़े अंश में उसी वर्ग का एक बहुत बड़ा हिस्सेदार है और सच तो यह कि जिस तरह मीडिया का यह प्रभावशाली वर्ग चलता है वो सत्ता में हिस्सेदारी के बगैर संभव भी नहीं है और मज़ा यह कि सबकी पोल खोलने वाले इस विचित्र तंत्र की पोल खोलने वाला कोई है भी नहीं....इस तरह आप देखोगे कि जो जितना ज्यादा हरामखोर है (देश के प्रति)वो उतना ज्यादा चीख रहा है-चिल्ला रहा है....और इतना ज्यादा चीत्कार कर रहा है कि लगता है उससे ज्यादा पवित्र कोई अन्य है ही नहीं !!
मंगलवार, 2 अगस्त 2011

सबसे बड़ा डंडा खुद का चरित्र है.....क़ानून नहीं ......!!

सबसे बड़ा डंडा खुद का चरित्र है.....क़ानून नहीं ......!!
              हम रोज-ब-रोज तरह-तरह के अपराधों के बारे में पढ़ते हैं,सुनते हैं और साथ ही बड़े लोगों के अपराधों के बारे या अपराधियों को सज़ा देने के लिए तरह-तरह के आयोग या कमीशन बैठाए जाने के बारे सुना करते हैं,मगर बाद में यह भी देखते हैं कि दरअसल कुछ भी होता जाता नहीं है और मैं आपको सच बताता हूँ दोस्तों कि आगे भी कुछ होने जाने को नहीं है या कहूँ कि कभी कुछ होगा ही नहीं...... 
               दोस्तों,ऐसा है कि जब से समाज बना है और अपराध घटने शुरू हुए हैं,ठीक तभी से क़ानून नाम की चीज़ भी बनी हुई है,सज़ाएँ भी होती हैं और सदा-सदा लाखों-करोड़ों लोग विश्व-भर की जेलों में ठूंसे भी रहा करते है मगर धरती से अपराध में कोई कमी नहीं आती दिखाई देती,बल्कि यह तो बढ़ते ही जाते हैं....क्या कभी हमने यह सोचा भी है कि क्यूँ....ऐसा क्यूँ होता है.....ऐसा क्यूँ हो रहा है....??और होता ही जाता है !! 
                ऐसा इसलिए है दोस्तों कि आदमी नाम के जीव में उसको अंकुश में रखने वाली लाठी उसके बाहर नहीं बल्कि उसके खुद के भीतर ही हुआ करती है और इस करके जो भी संस्कार वो ग्रहण करता है उसी के अनुसार आचरण किया करता है ,अगर उसका संस्कार उसे कुछ करने (मतलब कोई अपराध करने)से नहीं रोकता तो दुनिया का कोई क़ानून या किसी भी तरह की सज़ा का डर भी उसे वह अपराध करने से नहीं रोक सकता है !!
शुक्रवार, 17 जून 2011

खुदा करे कि वो इन जैसे लोगों को कभी माफ़ ना करे....!!

             एक बार फिर चारों तरफ बरसात का आलम है.....कुछ लोगों के लिए बेशक यह रोमांचक शमां हो सकता है,किन्तु झारखंड नाम के एक राज्य में यह मौसम इस वक्त एक लोमहर्षक-दर्दनाक-विकराल और दिल को दहला देने वाला दृश्य पैदा कर रहा है....!!कारण पिछले कुछ समय से माननीय हाई-कोर्ट के आदेश से चल रहा अतिक्रमण हटाओ अभियान है....इस गर्मी के मौसम में कड़ी धूप में गरीब-कमजोर-मासूम लोगो को उस सरकारी जमीन से जबरन हटाया जा रहा है,जिसे हर किसी ने कभी अपनी कड़ी मेहनत और दुर्दमनीय संघर्ष से खरीद कर हासिल किया था और तो और,वो तो ये भी नहीं जानते थे कि जिस जमीन को वो सरकारी कारिंदों से सरकारी रेटों पर वाजिब तरह से खरीद कर उस पर अपना आशियाना बना रहें हैं,उस जमीन को बेचने का कोई हक़ उन सरकारी लोगों को नहीं था,और अब जब ये मासूम और गरीब लोग कोर्ट के आदेश से ना सिर्फ सड़क पर आ चुके हैं,बल्कि उस स्लम से इन तरह-तरह के राहत शिविरों में इस बरसात में नालियों-नालों और दूर-दूर से बह कर आती तरह-तरह की गन्दगी में किस तरह की यातना के बीच नरक से भी बदतर जिन्दगी जी रहें हैं,उसे बताया नहीं जा सकता,उसे देखकर ही जाना जा सकता है और अगर किसी के पास संवेदनशील ह्रदय ना भी हो तो भी वो पसीजे बिना नहीं रह सकता और इस वाक्य के आलोक में एक बड़ा ही कठिन और मार्मिक प्रश्न पैदा होता है कि जिन स्थितियों को देख कर हर प्रकार का मनुष्य दहल जाता है,ठीक उन्हीं स्थितियों को देखकर नेता,वकील-जज और पुलिस नाम के मनुष्य देह-धारियों के जेहन में क्यों कुछ नहीं होता...!!??
 
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