भारत का संविधान

"हम भारतवासी,गंभीरतापूर्वक यह निश्चय करके कि भारत को सार्वभौमिक,लोकतांत्रिक गणतंत्र बनाना है तथा अपने नागरिकों के लिए------- न्याय--सामाजिक,आर्थिक,तथा राजनैतिक ; स्वतन्त्रता--विचार,अभिव्यक्ति,विश्वास,आस्था,पूजा पद्दति अपनाने की; समानता--स्थिति व अवसर की व इसको सबमें बढ़ाने की; बंधुत्व--व्यक्ति की गरिमा एवं देश की एकता का आश्वासन देने वाला ; सुरक्षित करने के उद्देश्य से आज २६ नवम्बर १९४९ को संविधान-सभा में,इस संविधान को अंगीकृत ,पारित तथा स्वयम को प्रदत्त करते हैं ।"

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कहीं आदमी पागल तो नहीं..............!!

शनिवार, 14 मार्च 2009

लड़का होता तो लड्डू बनवाते....लड़का होता रसगुल्ले खिलाते......... इस बात को इतनी जगह...इतनी तरह से पढ़ चूका कि देखते ही छटपटाहट होती है....मेरी भी दो लडकियां हैं...और क्या मजाल कि मैं उनकी बाबत लड़कों से ज़रा सा भी कमतर सोचूं....लोग ये क्यूँ नहीं समझ पाते....कि उनकी बीवी...उनकी बहन....उनकी चाची...नानी...दादी....ताई.....मामी...और यहाँ तक कि जिन-जिन भी लड़कियों या स्त्रियों को वे प्रशंसा की दृष्टि से देखते हैं...वो सारी की सारी लड़किया ही होती हैं....लोगों की बुद्धि में कम से कम इतना भर भी आ जाए कि आदमी के तमाम रिश्ते-नाते और उनके प्यार का तमाम भरा-पूरा संसार सिर्फ-व्-सिर्फ लड़कियों की बुनियाद पर है....पुरुष की सबसे बड़ी जरुरत ही स्त्री है....सिर्फ इस करके उसने वेश्या नाम की स्त्री का ईजाद करवा डाला......कम-से-कम इस अनिवार्य स्थिति को देखते हुए भी वो एक सांसां के तौर पर औरत को उसका वाजिब सम्मान दे सकता है...बाकी शारीरिक ताकत या शरीर की बनावट के आधार पर खुद को श्रेष्ट साबित करना इक झूठे दंभ के सिवा कुछ भी नहीं....!!
अगर विपरीत दो चीज़ों का अद्भुत मेल यदि ब्रहमांड में कोई है तो वह स्त्री और पुरुष का मेल ही है.....और यह स्त्री-पुरुष सिर्फ आदमी के सन्दर्भ में ही नहीं अपितु संसार के सभी प्राणियों के सन्दर्भ में भी अनिवार्यरूपेण लागू होता है....और यह बात आदमी के सन्दर्भ में अपने पूरे चरमोत्कर्ष पर हैं....और बेहयाई तो ये है कि आदमी अपने दुर्गुणों या गैर-वाजिब परम्पराओं और रूदीवादिताओं के कारण उत्पन्न समस्याओं का वाजिब कारण खोजने की बजाय आलतू-फालतू कारण ढूँढ लिए हैं....और अगर आप गलत रोग ढूँढोगे तो ईलाज भी गलत ही चलाओगे.....!!और यही धरती पर हो रहा है....!!
अगर सच में पुरुष नाम का का यह जीव स्त्री के बगैर जी भी सकता है...तो बेशक संन्यास लेकर किसी भी खोह या कन्दरा में जा छिपा रह सकता है.....मगर " साला "यह जीव बिलकुल ही अजीब जीव है....एक तरफ तो स्त्री को सदा " नरक का द्वार "बताता है ....और दूसरी तरफ ये चौबीसों घंटे ये जीव उसी द्वार में घुसने को व्याकुल भी रहता है...ये बड़ी भयानक बात इस पुण्यभूमि "भारत"में सदियों से बिला वजह चली आ रही है...और बड़े-बड़े " पुण्यग्रंथों "में लिखा हुआ होने के कारण कोई इसका साफ़-साफ़ विरोध भी नहीं करता....ये बात बड़े ही पाखंडपूर्ण ढंग से दिलचस्प है कि चौबीसों घंटे आप जिसकी बुद्धि को घुटनों में हुआ बताते हो......उन्हीं घुटनों के भीतर अपना सिर भी दिए रहते हो..... !!
मैं व्यक्तिगत रूप से इस पाखंडपूर्ण स्थिति से बेहद खफा और जला-जला....तपा-तपा रहता हूँ....मगर किसी को कुछ भी समझाने में असमर्थ....और तब ही ऐसा लगता है....कि मनुष्य नाम का यह जीव कहीं पागल ही तो नहीं....शायद अपने इसी पगलापंती की वजह से ये स्वर्ग से निकाल बाहर कर...इस धरती रुपी नरक में भटकने के लिए छोड़ दिया गया हो.....!!या फिर अपनी पगलापंती की वजह से ही इसने धरती को नरक बना दिया हो....जो भी हो....मगर कम-से-कम स्त्री के मामले में पुरुष नाम के जीव की सोच हमेशा से शायद नाजायज ही रही है....और ये नाजायज कर्म शायद उसने अपनी शारीरिक ताकत के बूते ही तो किया होगा.....!!
मगर अगर यह जीव सच में अपने भीतर बुद्धि के होने को स्वीकार करता है....तो उसे स्त्री को अपनी अनिवार्यरूह की तरह ही स्वीकार करना होगा....स्त्री आदमी की तीसरी आँख है....इसके बगैर वह दुनिया के सच शुद्दतम रूप में नहीं समझ सकता....." मंडन मिश्र " की तरह....!!और यह अनिवार्य सच या तथ्य (जो कहिये) वो जितनी जल्दी समझ जाए...यही उसके लिए हितकर होगा....क्योंकि इसीसे उसका जीवन स्वर्ग तुल्य बनने की संभावना है.....इसीसे अर्धनारीश्वर रूप क सार्थक होने की संभावना है.....इसी से धरती पर प्रेम क पुष्प खिलने की संभावना है....इसीसे आदमी खुद को बतला सकता है कि हाँ सच वही सच्चा आदमी है....एक स्त्री क संग इक समूचा आदमी......!!!!!
कभी रस्सी की तरह तनी-सी देखी है
कभी परी की तरह बनी-सी देखी है !!
रात को रोया है अक्सर ही आसमां
सुबह को जमीं में नमी-सी देखी है !!
पिघलती रही है जो आग की मानिंद
अगले पल मोम-सी जमी-सी देखी है !!
ये औरत है याकि डर का दूसरा नाम
हर बखत किसी से सहमी-सी देखी है !!
हर बार ये आदमी से दब जाती है यूँ
अपना घर बचाने को ठनी-सी देखी है !!
मैं उससे बचना चाहता हूँ एय "गाफिल"
इक औरत जो "दुर्गा"सी बनी-सी देखी है !!
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7 टिप्‍पणियां:

श्यामल सुमन ने कहा…

हकीकत को आईना दिखाती है आपकी यह रचना। सुन्दर।

कहते हैं कि -

रूप तेरे हजार, तू सृजन का आधार।
माँ की ममता भी तुझमें बहन का भी प्यार।।

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
www.manoramsuman.blogspot.com

Kavita Vachaknavee ने कहा…

अच्छा प्रयास।

Neha Dev ने कहा…

आपकी टिप्पणी बहुत पसंद आई मेरे ब्लॉग पर आने का धन्यवाद और हाँ आप तो बहुत सारे ब्लॉग लिखते हैं, मेरी बधाई स्वीकार करें !

BrijmohanShrivastava ने कहा…

भूतनाथ जी /शायद बीच में आपने अपना नाम तब्दील करने की कोशिश की थी /लेख सटीक है /पुन्य ग्रन्थ की ज़िक्र किया किसने लिखे -आपने और हमने /मनुष्य नाम की जीव न तो कभी पागल था न है /हम बुध्धिमानों ने अपना vyapaar chalaane उसे मूर्ख बनाये रखा /

Alpana Verma ने कहा…

रात को रोया है अक्सर ही आसमां
सुबह को जमीं में नमी-सी देखी है !!
is rachna ki har pankti bahut hi sundar likhi hai..gahre bhaav samete hue,


aap ne likha--आदमी के तमाम रिश्ते-नाते और उनके प्यार का तमाम भरा-पूरा संसार सिर्फ-व्-सिर्फ लड़कियों की बुनियाद पर है....bilkul sahi likha hai..agar yah sabhi samjh len to kya baat ho!

lekh achcha likha hai.yah vishay hamesha vishar mangta hai..vimarsh bhi.

संगीता पुरी ने कहा…

आपके विचारों को जानकर खुशी हुई ... दोनो बेटियों के उज्‍जवल भविष्‍य के लिए शुभकामनाएं।

राजीव थेपड़ा ( भूतनाथ ) ने कहा…

सारे दोस्तों को.....प्यारे दोस्तों को......जो यहाँ आये..........आते रहते हैं.........सबको मेरा आभार........और प्रेम..........!!

 
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