मैं भूत बोल रहा हूँ..........!!
आईआईएम बेंगलुरु की छात्रा मालिनी मुर्मू के आत्महत्या जैसे कदम उठाये जाने से एक बार फिर सोशल-साईट्स में बनाने वाले रिश्तों की गंभीरता पर प्रश्नचिन्ह उठता है,कि बिना-देखे भाले बनाए गए रिश्ते और दोस्ती टिकाउपन के लिहाज से कहीं क्षण-भंगुर तो नहीं...?महज अपनी फ्रेंड-लिस्ट के बड़ा होते जाने को लेकर रोमांटिक होना इस दुनिया का बड़ा शगल है,एक दुसरे के पोस्ट को लाईक करना या उनपर कमेन्ट कर दोस्ती की परिभाषा पूरी नहीं हुआ करती,बल्कि आपसी समझ-और विचारों के आदान-प्रदान द्वारा एक-दुसरे को और-और-और ज्यादा समझते जाना,साथ ही अपनी समझ को विकसित करना भी नेट-दोस्ती की एक महत्वपूर्ण कसौटी बनायी जा सकती है !
इंटरनेट पल-भर में अपनी वैश्विक पहुँच के कारण आज ना सिर्फ सूचनाओं के त्वरित पहुँच का कारण और माध्यम बन चुका है बल्कि हरेक व्यक्ति के अपने विचारों के प्रकटीकरण का सबसे सशक्त माध्यम भी बन चुका है,मगर दोस्ती और संवेदना के लिहाज से यह अब भी खासा निरुत्साहित करने वाला है.क्यूंकि दोस्ती के लिए जान लड़ा देने वाली परम्परागत वैश्विक सोच के बनिस्पत यह दोस्ती अब गोया एक खेल बन चुकी इस माध्यम में....!!और यही इस माध्यम सबसे क्रूर सत्य है !!एक-दुसरे से कोसों-मीलों दूर बैठे लोग जब एक-दुसरे से दोस्ती गांठने का उपक्रम करते हैं तब उनमें कैसी और कितनी समझ होती है एक-दुसरे के प्रति, यह एक सवालिया निशान है इस नेट जगत के दोस्तों के बीच....और इस तरह के मुद्दों के मद्देनज़र हम सबको अपने भीतर भी टटोलना चाहिए कि हम इस दोस्ती में कहाँ तक ईमानदार है...??
वरना एक तरफ तो हो सकता है कि आपके विचारों या आपकी बातों से प्रभावित होकर या आकर्षित होकर कोई आपको अपना दोस्त-प्रेमी-प्रेयसी या कुछ भी बना डालता हो,जबकि आप सिर्फ शब्दडाम्बर रच रहे होंओ....महज एक खेल खेल रहें होंओ....या फिर इसका उलटा भी होओ....कि सामने वाला यही कर रहा हो आपके साथ....!!ऐसे में तो इस नयी दोस्ती से किसी भी प्रकार की अपेक्षा करना भी बिलकुल व्यर्थ है और इससे यह सन्देश भी ध्वनित होता है कि इस तरह की सोशल साईट्स में जाकर दोस्त "निर्मित" करने वाले लोग दोस्ती को दोस्ती के अर्थ में ना लें !!(जहां वाकई लोग दोस्त ही हैं,उनकी बात मैं नहीं कर रहा !!)
और इस करके वो इस तरह की "दोस्तियों" से कुछ भी अपेक्षा ना रखें !!बल्कि किसी भी "नामालूम"आगत के लिए भी खुद को तैयार रखें...क्यूंकि यह बात सदा ध्यान में रखने योग्य है कि जिस जगह आप दोस्ती कर रहे हो,वह सार्वजनिक है (बल्कि सार्वजनिक पैखाना कहूँ तो ज्यादा बेहतर होगा !!)और जहां बहुत सारे लोग टट्टी-पेशाब की तरह भी दोस्ती कर रहें हैं,जिन्हें पहचाना भी नहीं जा सकता......और इसका खुलासा तो तब हो पाता है जब कोई मालिनी मुर्मू फेसबुक पर अपने बॉय-फ्रेंड के खुद के रिश्ते पर सार्वजनिक रूप से कमेन्ट किये जाने पर आत्महत्या जैसा आखिरी कदम उठा लेती है,जिसे मेरे जैसे लोग ह्त्या मानते हैं....मगर इस तरह के बॉय-फ्रेंड जैसे हत्यारे तरह-तरह के तिकड़मी वक्तव्यों से खुद को बचा भी लेते हैं,क्यूंकि वो दरअसल एक ठग हैं!! इसलिए ओ फेसबुकिया दोस्तों सावधान....यहाँ पर हजारों ठग हैं....संभल कर कीजिये दोस्ती....एक शेर तो सूना ही आपलोगों ने....बशीर बद्र का है,कोई हाथ भी ना मिलाएगा जो गले मिलोगे तपाक से....ये नए मिजाज का शहर है,ज़रा फासले से मिला करो !!(क्या बशीर जी ने यह सोचा भी होगा कि उनके द्वारा यह लिखे जाने के बाद ऐसी एक वर्चुवल दुनिया पैदा होगी जहां उनका यह शेर बिलकुल सटीक बैठ जाएगा....!!??)
आईआईएम बेंगलुरु की छात्रा मालिनी मुर्मू के आत्महत्या जैसे कदम उठाये जाने से एक बार फिर सोशल-साईट्स में बनाने वाले रिश्तों की गंभीरता पर प्रश्नचिन्ह उठता है,कि बिना-देखे भाले बनाए गए रिश्ते और दोस्ती टिकाउपन के लिहाज से कहीं क्षण-भंगुर तो नहीं...?महज अपनी फ्रेंड-लिस्ट के बड़ा होते जाने को लेकर रोमांटिक होना इस दुनिया का बड़ा शगल है,एक दुसरे के पोस्ट को लाईक करना या उनपर कमेन्ट कर दोस्ती की परिभाषा पूरी नहीं हुआ करती,बल्कि आपसी समझ-और विचारों के आदान-प्रदान द्वारा एक-दुसरे को और-और-और ज्यादा समझते जाना,साथ ही अपनी समझ को विकसित करना भी नेट-दोस्ती की एक महत्वपूर्ण कसौटी बनायी जा सकती है !
इंटरनेट पल-भर में अपनी वैश्विक पहुँच के कारण आज ना सिर्फ सूचनाओं के त्वरित पहुँच का कारण और माध्यम बन चुका है बल्कि हरेक व्यक्ति के अपने विचारों के प्रकटीकरण का सबसे सशक्त माध्यम भी बन चुका है,मगर दोस्ती और संवेदना के लिहाज से यह अब भी खासा निरुत्साहित करने वाला है.क्यूंकि दोस्ती के लिए जान लड़ा देने वाली परम्परागत वैश्विक सोच के बनिस्पत यह दोस्ती अब गोया एक खेल बन चुकी इस माध्यम में....!!और यही इस माध्यम सबसे क्रूर सत्य है !!एक-दुसरे से कोसों-मीलों दूर बैठे लोग जब एक-दुसरे से दोस्ती गांठने का उपक्रम करते हैं तब उनमें कैसी और कितनी समझ होती है एक-दुसरे के प्रति, यह एक सवालिया निशान है इस नेट जगत के दोस्तों के बीच....और इस तरह के मुद्दों के मद्देनज़र हम सबको अपने भीतर भी टटोलना चाहिए कि हम इस दोस्ती में कहाँ तक ईमानदार है...??
वरना एक तरफ तो हो सकता है कि आपके विचारों या आपकी बातों से प्रभावित होकर या आकर्षित होकर कोई आपको अपना दोस्त-प्रेमी-प्रेयसी या कुछ भी बना डालता हो,जबकि आप सिर्फ शब्दडाम्बर रच रहे होंओ....महज एक खेल खेल रहें होंओ....या फिर इसका उलटा भी होओ....कि सामने वाला यही कर रहा हो आपके साथ....!!ऐसे में तो इस नयी दोस्ती से किसी भी प्रकार की अपेक्षा करना भी बिलकुल व्यर्थ है और इससे यह सन्देश भी ध्वनित होता है कि इस तरह की सोशल साईट्स में जाकर दोस्त "निर्मित" करने वाले लोग दोस्ती को दोस्ती के अर्थ में ना लें !!(जहां वाकई लोग दोस्त ही हैं,उनकी बात मैं नहीं कर रहा !!)
और इस करके वो इस तरह की "दोस्तियों" से कुछ भी अपेक्षा ना रखें !!बल्कि किसी भी "नामालूम"आगत के लिए भी खुद को तैयार रखें...क्यूंकि यह बात सदा ध्यान में रखने योग्य है कि जिस जगह आप दोस्ती कर रहे हो,वह सार्वजनिक है (बल्कि सार्वजनिक पैखाना कहूँ तो ज्यादा बेहतर होगा !!)और जहां बहुत सारे लोग टट्टी-पेशाब की तरह भी दोस्ती कर रहें हैं,जिन्हें पहचाना भी नहीं जा सकता......और इसका खुलासा तो तब हो पाता है जब कोई मालिनी मुर्मू फेसबुक पर अपने बॉय-फ्रेंड के खुद के रिश्ते पर सार्वजनिक रूप से कमेन्ट किये जाने पर आत्महत्या जैसा आखिरी कदम उठा लेती है,जिसे मेरे जैसे लोग ह्त्या मानते हैं....मगर इस तरह के बॉय-फ्रेंड जैसे हत्यारे तरह-तरह के तिकड़मी वक्तव्यों से खुद को बचा भी लेते हैं,क्यूंकि वो दरअसल एक ठग हैं!! इसलिए ओ फेसबुकिया दोस्तों सावधान....यहाँ पर हजारों ठग हैं....संभल कर कीजिये दोस्ती....एक शेर तो सूना ही आपलोगों ने....बशीर बद्र का है,कोई हाथ भी ना मिलाएगा जो गले मिलोगे तपाक से....ये नए मिजाज का शहर है,ज़रा फासले से मिला करो !!(क्या बशीर जी ने यह सोचा भी होगा कि उनके द्वारा यह लिखे जाने के बाद ऐसी एक वर्चुवल दुनिया पैदा होगी जहां उनका यह शेर बिलकुल सटीक बैठ जाएगा....!!??)
5 टिप्पणियां:
राजीव जी आपका लेख समसामयिक और सार्थक है...आई ओपनर है...इस तथ्य को हमें समझ लेना चाहिए के नेट पर बनी दोस्ती का कोई अस्तित्व नहीं होता...अरे जहाँ हमें अपने सगे दगा दे जाते हैं वहां अनदेखे अनजाने लोगों से वफ़ा की उम्मीद रखना मूर्खता है...... साहब का शेर इस से बहतर कहीं और कोट नहीं हो सकता था इस लेख के लिए मेरी बधाई स्वीकार करें.
नीरज
लेकिन नेट एक सच्ची दोस्ती का जरिया हो सकता है... निभाने को तो दसियों सालों तक रोज मत्थे लगने वाले भी नहीं निभाते... और खैर किसी से कया गिला करना... अपन जितनी दोस्ती प्रेम निभा लें वही काफी है...
जुर्म क्या? ये सजा क्यों है?
निश्चित ही सजगता की जरुरत है...सार्थक आलेख.
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राजीव जी , इस दुखद प्रकरण पर एक बहुत ही ज़रूरी आलेख लिखा है आपने। आभासी दुनिया हो याँ फिर वास्तविक हो , रिश्तों में उचित एवं पर्याप्त दूरी तो होनी ही चाहिए। कोई किसी पर हावी हो जाए तो दुष्परिणाम आने तयशुदा हैं। किन्तु कभी-कभी कुछ लोग जिनसे अपना कोई वास्ता भी नहीं होता, जान पहचान भी नहीं होती , वे भी अनायास ही ईर्ष्या और द्वेष पाल लेते हैं और हर संभव प्रयास करते हैं एक स्त्री को प्रताड़ित, अपमानित और पराजित करने का। क्या कोई हल है इसका ? या फिर नियति को स्वीकार कर लिया जाए ? किन्तु यह भी कहूँगी की स्वार्थ से भरी इस दुनिया में भूले-भटके कभी-कभी देवदूत भी मिल जाते हैं , जिनके संरक्षण में एक स्त्री महफूज़ भी महसूस करती है।
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अच्छी चेतावनी। सुन्दर। बशीर साहब ने कहा ही है इतना दमदार।
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