भारत का संविधान

"हम भारतवासी,गंभीरतापूर्वक यह निश्चय करके कि भारत को सार्वभौमिक,लोकतांत्रिक गणतंत्र बनाना है तथा अपने नागरिकों के लिए------- न्याय--सामाजिक,आर्थिक,तथा राजनैतिक ; स्वतन्त्रता--विचार,अभिव्यक्ति,विश्वास,आस्था,पूजा पद्दति अपनाने की; समानता--स्थिति व अवसर की व इसको सबमें बढ़ाने की; बंधुत्व--व्यक्ति की गरिमा एवं देश की एकता का आश्वासन देने वाला ; सुरक्षित करने के उद्देश्य से आज २६ नवम्बर १९४९ को संविधान-सभा में,इस संविधान को अंगीकृत ,पारित तथा स्वयम को प्रदत्त करते हैं ।"

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"lafz" ke sampaadak ke bahaane aap sabko ek paigam....!!!!

सोमवार, 6 सितंबर 2010

मैं भूत बोल रहा हूँ..........!!

आदरणीय विनय कृष्ण उर्फ़ तुफ़ैल जी,
                               राम-राम
               अभी-अभी मेरी आजीवन सदस्यता वाली "लफ़्जका सितम्बर-नवम्बर २०१० का अंक पढ रहा था पेज बारह पर छ्पे श्री शंकर शरण जी के आलेख "माओवाद का अंधगानके मूल स्वर से यूं तो मैं सर्वथा सहमत हूं,मगर कुछ बातें जो मैं अपने चालीस-इकतालीस वर्षीय जीवन में समझ बूझ कर जीवन के प्रति कुछ ठोस समझ विकसित कर पाया हूं,उस समझ के अनुसार कुछ बातें कहने से खुद को मैं रोक नहीं पा रहा हूं,और आशा है कि ये बातें आपको मेरी गज़लों की तरह कूडा ना लगें.उपरोक्त आलेख के छ्ठे पैरे के एक वाक्यांश पर आता हूं,जो इस प्रकार उद्त है (अरुंधति के शब्दों में)
"....लोकतंत्र तो मुखौटा है,वास्तव में भारत एक ’अपर कास्ट हिन्दू-स्टेट है,चाहे कोई भी दल सता में होइसने मुसलमानों,ईसाइयों,सिखों, कम्युनिस्टों,दलितोंआदिवासियों और गरीबों के विरूद्द युद्ध छेड रखा है,जो उसके फ़ेंके गये टुकडों को स्वीकार करने के बजाय उस पर प्रश्न उठाते हैं..." उसके बाद के अगले पैरे में शंकर जी खुद कहते हैं कि यही पूरे लेख की केन्द्रीय प्रस्थापना है,जिसे जमाने के लिए अरुंधती ने हर तरह के आरोप,झूठ,अर्द्धसत्य घोषनाओं और भावूक लफ़्फ़ाजियों का उपयोग किया है..............."
               कभी-कभी जब हम एक ही विषय पर दो अलग-अलग तरह की बातें देखते-पढते या सुनते हैं तो अक्सर एक ही बात होती है,वो यह कि हम एक को लगभग बिना किसी मीन-मेख के स्वीकार कर लेते हैं और हमारे ऐसा करते ही वह दूसरी बात हमारे द्वारा एकदम से दरकिनार कर दी जाती है,मतलब यह कि यह भी अनजाने में तय हो जाता है कि उस दूसरी बात में कोई "सारही नहीं था,जबकि अक्सर हमारा ऐसा करना गलत ही साबित होता आया है.मैं पहले ही बता चुका हूं कि उपरोक्त लेख से मैं लगभग सहमत हूं,फिर भी अगर मैं कुछ कहना चाह रहा हूं,तो क्यों ना इसे थोडा समझ लिया जाए.
              अरुंधति के समुचे आलेख या किताब से पूरा विरोध प्रकट करते हुए भी एक बात जो है,वो हमारे जीवन में हमारे होश सम्भालते ही बार-बार हमारे सम्मुख आती है,वो यह कि हमारे खुद के जीवन में हमारे द्वारा नीची जातियों,गरीब लोगों,कमजोर लोगों के साथ किया जाने वाला कटु (कुटिल भी कहूँ क्या ??) "उल्लेखनीयव्यवहार....!!क्या इस बात से इंकार किया जा सकता है कि घर के अन्दर नौकरों,दुकान पर स्टाफ़ों और आफ़िस में तमाम तरह के कर्मचारियों के साथ हमारा व्यवहार किस कदर "रिजिडहोता है,किसी भी खास किस्म की बात पर हम तरह-तरह के वर्गों,लोगोंसमूहों के लिए किस तरह की शब्दावलियों का प्रयोग करते हैं,गुस्सा होने पर हम किस तरह से अपने सामने वाले "छोटे"कद के व्यक्ति का अपमान करते हैं और इस तरह के उदाहरणों में किन प्यारे-प्यारे शब्दों को अपने सभ्य,सु-संस्कृत,पढे-लिखे मुखमंडल से अपनी मीठी वाणी में किस प्रकार उच्चारित करते हैं.....??यह भूमिका आपको शायद मूल विषय से भटकती हुई लग रही होगी,मगर तुफ़ैल साहब ऐसा बिल्कुल भी नहीं है,बल्कि यह हमारे स्वभाव के "मूलरूपको दर्शाने और विषय को अपने पूरे वजूद के साथ प्रकट के उद्देश्य के रूप में है.
              क्या संविधानिक प्रस्थापनाओं से इतर भारत अपने मूल रूप में "अपर-कास्टरिजिड लोगों और खासकर ब्राह्मण लोगों के द्वारा के द्वारा संचालित नहीं है??जितना कि मैं जानता हूं,इसी इतिहास को पढकर,जो आपने-सबने पढा है,भारत अंग्रेजों के समय से बेशक अंग्रेजों का गुलाम था मगर उसके द्वारा किए जा रहे शासन की डोर भारत के इसी अपर कास्ट के हाथ में नहीं थी??,क्युंकि उस वक्त पढा-लिखा वर्ग यही हुआ करता था...??क्या अपनी रायबहादूरी,अंग्रेजों के प्रति अपनी स्वामी-भक्ति और अपने जीवन की ऐश-मौज को बनाए रखने के लिए क्या इसी वर्ग ने वाया ब्रिटिश सरकार,भारत के प्रति गद्दारी नहीं की थी...??राजपूतों(मैं खुद भी यही हूं)की आपसी रंजिश,ब्राहमणों के भयंकर एवं भगवान से भी ज्यादा ठसक वाले अहम के कारण ही क्या यह करोडों लोगों की आबादी वाला देश बेवजह ही सदियों तक थोडे से लोगों का गुलाम नहीं बना रहा....??और बीच-बीच में होने वाले आन्दोलनों की हवा इन्ही गद्दारों की वजह से नहीं निकली...??
                जी हां-जी हां मूल विषय पर  रहा हूं मैं....इन भूमिकाओं के मद्देनज़र अब मैं आप सबसे यह पूछना चाहता हूं कि इन स्थितियों में आज भी भला कहां और कौन-सा फ़र्क पैदा हो पाया है...और क्या आज भी यह "अपर-कास्ट" जरा भी बदल पायी है...??यह भारत में तमाम जगह पर जाकर निजी बातचीत कर के जाना जा सकता है कि हम आज भी किसी खास वर्ग,व्यक्ति या समूह के प्रति क्या राय रखते हैं और यही नहीं,अपनी उस राय को आज भी किन "संसदीय" शब्दों में व्यक्त करते हैं....!!अगर आप मेरे द्वारा उठाये गये इस प्रश्न की तह में जाने का रत्ती भर भी प्रयास करेंगे तो शायद आपकी आंखे भक्क रह जाएंगी...और दिमाग पागल....कि आज जिस युग में हम रह रहे हैं...उसमें इस तरह के विचारों और एक-दूसरे के प्रति इस तरह की राय को कायम रखते हुए कैसे एक-साथ रहा जा सकता है या कि कैसे एक साथ कार्य किया जा सकता है...??अगर तब भी यह हो रहा है तो यहां मैं यह जोडना चाहुंगा कि यह समय की मजबूरी भी है और साथ हमारे सभ्य होने का ढोंग भीकि कैसे हम अपने बाबा आदम जमाने के विचारों के बनाये रख आज के समय के साथ चलने का नाटक करते हैं और यह बात हमारे एक बेहतरीन-कुशल अभिनेता होने का परिचायक भी तो है..यह सब कहते हुए मैं अरुन्धति जी के विरोध में रहते हुए भी उनके इस वाक्यांश का अन्ध-समर्थक हूं हालांकि अरुन्धति जी ने ये ना भी कहा होता तो मैं सबके प्रति,हमारे और अपने प्रति भी यह अकाट्य राय रखता हूं कि हम "अपर-कास्ट" के लोग..........(भारत की तमाम संवैधानिक बाध्यताओं से परे हैं और अपनी तमाम मान्यताओं को कभी ना बदलने का संवैधानिक अधिकार कायम रखते हुए कुछेक लोगों के प्रति अपनी दुर्भावना को सदा कायम रखेंगे!!)........!!बाकि का आप खुद ही समझ लें(और पाठक तो वैसे भी काफ़ी समझदार हैं,कम-से-कम लफ़्ज़ जैसी पुस्तकों के रसिकगण....)
           मूल बात यह है कि व्यापारी,या ज्यादा सही शब्दों में कहूं तो बनिया बुद्धि के हम ज्यादातर "अपर-कासटीय" लोगों ने देश का जितना विकास नहीं किया है उससे कहीं बहुत-बहुत-बहुत ज्यादा सिर्फ़ और सिर्फ़ अपना हित-स्वार्थ ही साधा है....और इसके लिए हमने गरीब-कमज़ोर और छोटी जाति के  लोगों का सदा शोषण किया है....देश का विकास जो आज दिखायी पडता है क्या वो सचमुच देश का ही विकास है...??हमारे चारों ओर जो चकाचौंध दिखलाई पडती है क्या यह देश के विकास की ही चकाचौंध है....??अरे किसी मुहल्ले में भले चारों ओर गरीबों के पेट से हाय-हाय उठ रही हो....क्या उसकी आवाज़ सुनाई पड्ती है...??मगर किसी एक सेठ के घर में होने वाली पार्टी का शोर-शराबा और उसके जायकेदार भोजन की महक तो दूर-दूर तक जाती है...जाती है ना...??(बात निकलेगी तो फिर दूर............तलक जाएगी....!!)अब इसे आप देश का विकास कहिए कि निजी विकास कहिए कि क्या कहिए....सो आप जाने....!!
                     मूल बात तो यह है कि भले आप पढे-लिखे हों...आप हावार्ड में पढ्कर आये हुए हों कि आस्ट्रेलिया कि कहीं और से...भले आपके पास इतना अथाह पैसा हो कि आप सबको खरीद सकते हों....और आप किसी खास जगह पर ही कारखाना लगाना चाहते हों...और सरकारें आपके लिए "सेजसजाने के लिए ना जाने कितनी ही "चिता"को आग लगाने को तैयार बैठी हो.....मगर उन गरीबों ने,उन आदिवासियों ने आपका क्या बिगाडा है,जो कम पढे-लिखे है,या कि निरक्षर हैं,या कि भोले-भाले हैं और आपके अनुसार विकास-विरोधी और इस नाते देश-विरोधी कि जिनके खेतों की उपजाऊ उस जमीन,जो बाबा आदम जमाने से आपको रोटी उपजा कर देती आयी है...और अनन्त काल तक आपके लिए वह रोटी उपजाती ही रहेगी...!!,का ही हरण क्यों करना चाहते हैं...??आपने आज तक कितने लोगों को उनकी जमीन,मतलब उनकी रोटी,घर और जीवन की सुरक्षा को छीन कर उसका उचित मुआवजा दिया है...??देश को विकास की चकाचौंध का दिवा-स्वप्न दिखाने वाले आप थोडे-से लोग क्या सचमुच देश के विकास की ही इच्छा रखते हो,या सिर्फ़ अपना महल खडा करना चाहते हो,क्या किसी से छुपा भी हुआ है....??
          मूल बात यह है कि किसी बात का विरोधी होते हुए भी हमें इस बात का ख्याल रखना अत्यन्त जरूरी है कि हमारा विरोधी क्या सचमुच व्यर्थ ही विरोध कर रहा है कि उसके विरोध में कोई सार भी है....!!भारत के संविधान के विरोध करने वाली नक्सली बातों का विरोध करने वाले हम खुद कदम-कदम पर क्या कर रहे हैं और करते हैं...??क्या हम अपनी सोच...अपनी कार्य शैली ,अपने कार्यों और अपने "अपर-कास्टिय" अहंकार भरे व्यवहार के कारण हरेक पल संविधान विरोधी कार्य नहीं करते....??देश के विकास के नाम पर सिर्फ़ अपना हित साधना और राजनीतिक लोगों के स्वार्थों की पुर्ति करना और इसके लिए किसी भी हद तक जाकर अपने ही देश के गरीब लोगों का जर-जोरू-जमीन छीन लेना क्या संविधान-सम्मत है....??और अगर हमारे द्वारा तमाम जीवन ऐसे ही कृत्य किए जाने फल्स्वरूप अगर कोई व्यक्ति-समूह या वर्ग नक्सली या व्यवस्था विरोधी बन जाता है तो यह कसूर किसका है.....उसका या हमारा.....और हमारी थैली के चट्टे-बट्टों का.....??
          और अंत में मूल बात यह है कि देश का भला सोचने वाले हम.....संविधान नामक चीज़ की बडी-बडी बातें करने वाले हम......प्रशासन नाम की किसी चीज़ के होते हुए भी हमारे बीच से उसके बिल्कुल नदारद रहने के कारण सदा उसे बस आपस में ही पानी पी-पीकर कोसने वाले हम....यदि वास्तव में खुद चरित्रवान होकर अपने कायराना चरित्र को त्याग कर सत्ता-विरोधी सूरों के साथ अपना सूर मिला लें तो वास्तव में देश की तमाम सत्ताओं का सूर और चरित्र बदल सकता है....और तब वास्तव में देश की खुशहाली सबके लिए मौजूं हो सकती है....सब लोग तंत्र में शरीक हो सकते हैं...वतन की राह में वतन के नौजवान शहीद हों....का वास्तव अर्थ ध्वनित हो सकता है.....और तब सच बताऊं....!!कोई गलती से भी नक्सली नहीं बन सकता..!!

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2 टिप्‍पणियां:

डॉ. नूतन डिमरी गैरोला- नीति ने कहा…

bhootnaath ji.....aapka blog bahut pyara hai.vishwaas nahi hota kaliyug me bhoot itne samjhdaar hotey hai..aapka lekh bahut sundar aur blog bhi ..Dhanyvaad .. aap mere page par aaye... aapki kripa dristi bani rahe.. jay ho aapki..

हास्यफुहार ने कहा…

अच्छी प्रस्तुति।

 
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