भारत का संविधान

"हम भारतवासी,गंभीरतापूर्वक यह निश्चय करके कि भारत को सार्वभौमिक,लोकतांत्रिक गणतंत्र बनाना है तथा अपने नागरिकों के लिए------- न्याय--सामाजिक,आर्थिक,तथा राजनैतिक ; स्वतन्त्रता--विचार,अभिव्यक्ति,विश्वास,आस्था,पूजा पद्दति अपनाने की; समानता--स्थिति व अवसर की व इसको सबमें बढ़ाने की; बंधुत्व--व्यक्ति की गरिमा एवं देश की एकता का आश्वासन देने वाला ; सुरक्षित करने के उद्देश्य से आज २६ नवम्बर १९४९ को संविधान-सभा में,इस संविधान को अंगीकृत ,पारित तथा स्वयम को प्रदत्त करते हैं ।"

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इस उदासी का सबब क्या है 
तुझमें छिपा ऐसा दर्द क्या है !!
मेरे अरमानों को भी ले ले तू 
इतना रोता है बेसबब क्या है !!
इस उदासी का सबब क्या है......
तेरे सारे आंसू पोंछ डालूँ मैं 
कुछ तो बोल,इत्ता चुप क्या है !!
इस उदासी का सबब क्या है......
तेरी सूरत नज़र से हटती नहीं 
बाहर आ तू,मुझमें छिपा क्या है !!
इस उदासी का सबब क्या है......
तेरे रु-ब-रु बैठ,तुझे देख रहा हूँ
मेरे भीतर तेरा ऐसा कुछ क्या है 
 इस उदासी का सबब क्या है......!
सोमवार, 13 सितंबर 2010

आंकडे यदि सच्चाई होते तो......!!!

                                                       एक सवाल !!!!
""जैसा कि कहा जाता है कि औरत की बुद्धि उसके पैर के घुट्नों में होती है तो फिर एक तीस-चालीस-पचास-साठ-सत्तर-अस्सी यहां तक कि नब्बे वर्षीय "पुरुष"भी अठ्ठारह-बीस वर्षीय अपनी बेटी-पोती-नाती-परपोती समान लड्की के साथ के साथ "ब्याह" कैसे रचा डालता है?क्या पुरुष की बुद्धि उसके पैर की कानी अंगुली में होती है??होती भी है या कि नहीं...???""



                       आंकडे यदि सच्चाई होते तो......!!
                       अपने बचपन से ही हम स्कूल में और बाद में कालेज आदि में बहुत सारी बाते तरह-तरह के आंकडों की मदद से पढ्ते-समझते हुए आते हैं,सांख्यिकी के आंकडे  कुछ ऐसी ही चीज़ हैं जो ऐसा लगता है कि तस्वीर को थोडा साफ़ करते हैं,कि गणनात्मक चीज़ों को सही तरीके से समझने में हमारी मदद करते हैं किन्तु सच तो यह है कि अधिकतर इससे मानवजाति दिग्भ्रमित ही होती रही है और इससे पैदा निष्कर्षों में बहुत से मामलों में कोई सार तक नहीं होता,अगर आप यह गौर करें तो आप खुद भी चौंक जायेंगे ! दरअसल ज्यादातर चीज़ों के बारे में हम निष्कर्षों की प्राप्ति के लिए जिन आंकडों का उपयोग करते हैं,दरअसल वो आंकडे उन मूल आंकडों का औसत होता है,जिनकी संख्या के कुल जोड को कुल ईकाईयों से भाग देकर प्राप्त किया जाता है,लेकिन यही भागफल बहुत से मामलों में एक "भ्रम" हो जाता है हम सबके लिए !आईए हम सब जरा इसकी पड्ताल भी करें .
           आज के अखबार की खबर है कि भारत में मोबाईल उपभोक्ताओं की संख्या साढे पैंसठ करोड जा पहुंची है मगर इस आंकडे में सच का प्रतिशत थोडा-सा अलग भी हो सकता है,क्योंकि यह आंकडा मोबाईल कंपनियों द्वारा दिये/बेचे गये सिम के आधार पर है,जबकि सच तो यह है कि करोडों लोगों के पास आज मल्टी-सिम मोबाईल हैं,यहां तक कि लाखों लोगों के पास चार-पांच सिम से लेकर दर्जनों सिम तक मौजूद हैं,इसके अलावा बेकार पडे सिमों तथा रद्दी की टोकरी में फेंके जा चुके सिमों की संख्या भी लाखों-लाख संख्या में होंगे,इस प्रकार अगर हम इस संख्या की वास्तविक पड्ताल कर सकें तो यह संख्या मेरी समझ से पांच-सात करोड कम भी हो सकती है !!
           अभी कुछ दिनों पूर्व भारत के सांसदों ने अपना वेतन सोलह हजार से  तीन गुना बढा कर पचास हजार करोड रुपये कर लिया था तब अखबारों में तरह-तरह के आंकडे देखने को मिले.विभिन्न देशों में सांसदों को मिलने वाले वेतन का जिक्र किया गया था मगर संयोग से इस मामले में भारत की तुलना जिन देशों से तुलना की गयी थी वे सब-के-सब विकसित देश थे और भारत के मुकाबले बेहद अमीर,अर्थात इस "मुकाबले" का असल में कोई अर्थ ही नहीं था,क्योंकि यह बिल्कुल ऐसा ही था कि बिल्ली कितना खाना खाती है और हाथी कितना !तो सौ बिल्लियां कितना खाएंगी इतने हाथी के मुकाबले !!
           आंकडों की बाजीगरी में एक शब्द बडा ही "फ़ेमस" है उस शब्द का नाम है "प्रति-व्यक्ति"!आईए जरा इस प्रति व्यक्ति नामक बला को समझें !दर-असल धरती पर प्रत्येक चीज़ प्रत्येक आदमी को उपलब्धता के आधार पर तौली जाती है और अरबों आदमियों के "महा-मायाजाल" में हरेक व्यक्ति की प्राप्तियों को अलग-अलग नहीं बताया जा सकता, इसे बताने के लिए ही सबके गुणनफल को इकाइयों से भाग देकर एक औसत निकाल कर बताया जाता है किन्तु यही औसत दर-असल एक "महाघोटाला" है,जिससे सच के नाम पर सिर्फ़-व-सिर्फ़ भ्रम ही सामने आता है और इस भ्रम का शिकार हर कोई ही है !आईए जरा इसे भी देखें !!!
           मेरे गांव में एक हजार लोग रहते हैं,जिसमें किसी का दो जने का परिवार है,किसी का चार का,किसी का दस जने का,तो किसी का तो पच्चीस-तीस जनों का परिवार भी है,उसमें भी किसी दो जने वाले परिवार के पास कई एकड खेती है और किसी बीस जने वाले परिवार के पास एकाध या आधा एकड ही खेती है.गांव के एक हजार लोग मोटा-मोटी सौ परिवार हैं और गांव की कुल उपज सात हजार टन अनाज है.अब मज़ा यह कि गांव के सौ परिवारों में अस्सी-पिचयासी परिवार गरीब हैं,दो परिवार करोड्पति हैं,आठ परिवार लखपति,और पांच लखपति के लगभग-लगभग.तो कोई तो कम कमाई के बावजूद अपने परिवार के सदस्यों की दिन-रात की हारी-बीमारी से परेशान है और फसल भी उसकी ऐसी जो साल में दो बार ही होए,तिस पर सुखा-बाढ या किसी अन्य दैवीय आपदा का प्रकोप हो जाए तो यह समस्या अलग !हो सकता है कि किसी परिवार के खेतों की कुल उपज गांव में सबसे अधिक हो मगर वह परिवार ज्यादा व्यक्तियों वाला हो,इसका उलटा भी संभव है,कोई साल भर चार फसल तो कोई दो,कोई सब्जी उगा रहा है तो कोई क्या,हर तरह की फसल का विक्रय मूल्य भी अलग-अलग है,जो एक रुपये से लेकर पचास रुपये प्रति किलो तक का भी हो सकता है,जो भी हो मगर गांव की कुल उपज का मुल्य  कुल कोई नब्बे लाख रुपये सालाना है,मगर इसमें भी पचास लाख रुपये तो इन पन्द्रह परिवारों के हैं,और उसमें भी पच्चीस लाख रुपये पांच परिवारों के,और उसमें भी पन्द्रह लाख सिर दो परिवारों के !!इस प्रकार आर्थिक आधार पर किसी की कोई तुलना या गणना आप कर ही नहीं सकते.....!!
                          तो दोस्तों आकड़ों का सच तो सचमुच यही है एक अलग तरह का उदाहरण देता हूँ,दो भाईयों की लड़ाई हो गयी,बिजनेस में आपस में उनकी नहीं पटी,घर की पंचायत बैठी,बड़े भाई से हिसाब माँगा गया तो उसने जो हिसाब दिया वो कुछ यूँ था....कमाई सौ रुपये,घर खर्च तीस रुपये,दूकान खर्च तीस  रूपये,गोदाम दस रुपये,एल.आई.सी.पालिसी बीस रुपये और उपरी खर्च दस रूपये.....ऊपर-ऊपर देखने में हिसाब-किताब बिल्कुस जंचा हुआ था मगर जो बात घर की पंचायत को आखिरी तक पता नहीं चली की घर के तीस रुपये खर्च में छोटे भाई का हिस्सा मात्र पांच रूपये था,दूकान खर्च दरअसल बीस रूपये ही था,गोदाम खर्च भी इसी तरह कुछ उन्नीस-बीस के फर्क में था,तथा एल.आई.सी.पालिसी में छोटे भाई का हिस्सा महज ढाई प्रतिशत ही था और सबसे मजे वाली बात तो यह कि कमाई का अनुमान वास्तविक कमाई से आधा बताया जा रहा था और महीने की कुल सेल भी काफी घटा कर बतायी गयी थी.....मगर घर की पंचायत इस नपे-तुले हिसाब से संतुष्ट थी और इस प्रकार अंत में जो फैसला हुआ उसमें बड़े भाई ने कुल स्टॉक का साथ प्रतिशत खुद और चालीस प्रतिशत छोटे भाई के आधार पर बंटवारा कर दिया,अब यह स्टॉक का मूल्यांकन भी बड़े भाई का मन-माफिक हिसाब से तय किया हुआ था....तथा बड़े भाई ने पिछले पन्द्रह-बीस सालों का निजी इन्वेस्टमेंट तो पूरा-का-पूरा गायब ही कर दिया तथा वर्तमान में दी गयी उधारियों,जो स्टॉक का आधा थीं,उसे भी पूँजी मानने से इनकार कर वह भी गपचा गया यहाँ तक वह दूकान भी बड़े भाई के पास ही रही और बड़े भाई की इस न्यायप्रियता का सबने सामने समर्थन किया....और बड़ी हंसी-ख़ुशी-पूर्वक यह बंटवारा राजी-ख़ुशी संपन्न करवा दिया गया...बाद में क्या हुआ,इसकी बातें बाद में.....!!
                         कहने का मतलब यही है आंकड़ों का खेल ऐसा ही है,अगर आंकड़ों से सच प्रकाशित होता तो सब कुछ बहुत अलग-सा होता...आंकड़े अगर सच होते तो दुनिया में इतनी खुशहाली होती कि मत पूछिए.....भारत की प्रति-व्यक्ति आय मान लिया पांच हजार रुपये प्रति महीना है,मगर कहते हैं भारत की    आधी संपदा के बराबर मूल्य के संसाधन कुल छत्तीस लोगों के पास है(या ऐसा ही कुछ)तो इन छत्तीस लोगों के प्रति महीने की कमाई को अगर निकाल लें तो प्रति व्यक्ति आंकडा क्या बचेगा....सो अनुमान लगाने का कार्य मैं आज आप सबों को सौंपता हूँ....आप अनुमान लगाएं तब तक मैं ज़रा हल्का होकर आता हूँ...तब तक के लिए एक छोटा सा ब्रेक.....!!!
मैं भूत बोल रहा हूँ..........!!

भारत विश्व की एक महाशक्ति बन सकता है बशर्तें.....!!.


मंगलवार, 7 सितंबर 2010

एक देश-द्रोही का पत्र..........सरकार बनाने वालों के नाम.....!!!

                           एक सवाल !!

"जैसा कि कहा जाता है कि औरत की बुद्धि उसके पैर के घुट्नों में होती है तो फिर एक तीस-चालीस-पचास-साठ-सत्तर-अस्सी यहां तक कि नब्बे वर्षीय "पुरुष"भी अठ्ठारह-बीस वर्षीय अपनी बेटी-पोती-नाती-परपोती समान लड्की के साथ के साथ "ब्याह" कैसे रचा डालता है?क्या पुरुष की बुद्धि उसके पैर की कानी अंगुली में होती है??होती भी है या कि नहीं...??"






मैं भूत बोल रहा हूँ..........!!
मेरे प्यारे सम्मानीय दोस्तों......
सचमुच मैं ऐसा मानता हूँ कि हमारे देश में कोई भी समस्या ऐसी नहीं है जिसके लिए समस्याओं का पहाड़ बना दिया जाए....मगर हम देखते हैं कि ऐसा ही है....और ऐसा देखते वक्त अक्सर मेरी आँखें छलछलाई जाती हैं....मगर शायद मैं भी देश के कतिपय उन कुछ कायर लोगों में से एक हूँ....जो डफली तो बहुत बजाते हैं....मगर उसमें से कोई राग नहीं पैदा होता....और ना ही अपने खोखे से निकल कर किसी चौराहे पर आते हैं कि जिससे कोई आवाज़ कहीं तक भी पहुंचे मगर उफ़ किसी की कोई आवाज़ कहीं तक भी नहीं पहुँचती....अक्सर ऐसा लगता है कि हम पागल कुत्तों की तरह बेकार ही भूंक रहे हैं....क्योंकि जिनको सुनाने के लिए हम भूंके जा रहे हैं...उनके कानों में जूं तो क्या रेंगेगी...शायद उनतक हमारी आवाज़ पहुँचती ही नहीं.....मगर मैं देख रहा हूँ कि कब तक नीरो चैन की बंशी बजाता रहेगा....कब तक हम सोते रहेंगे....मगर दोस्तों इतना तो तय जानिये जिस दिन हमारी आँख खुलेगी....उस दिन इन नीरों को अपनी बंशी छोड़कर घुटनों के बल चलकर हम तक आना होगा....और देखिये कि कब तक हम इस कुंभकर्णी नींद में सोये रहते हैं....!!!!बाकी आपके द्वारा इस नाचीज़ के विचारों को सम्मान दिए जाने पर मैं अभिभूत हूँ....आप विचार का सम्मान अब तक करते हो...तो इतना तो जाहिर है कि लौ अभी बुझी नहीं है....बस उसे थोड़ा हवा दिए जाने की जरुरत है....और बस.....आग लग जानी है....इस सिलसिले में मैं अपना यह आलेख भी आप तक पहुंचा रहा हूँ....!!
                                        एक देश-द्रोही का पत्र..........सरकार बनाने वालों के नाम.....!!
क्यूं सरकार बनाना चाहते हैं आप सरकार.....??
                         ....हे सरकार बनाने वालों....इधर देख रहा हूं कि बडी छ्टफटी लगी हुई है आप सबको सरकार बनाने की,क्यूं माई बाप ऐसी भी क्या हड्बडी हो गयी है अचानक आप सबको...कि आव-न-देखा ताव...वाली धून में आप सब सरकार बनाने को व्याकुल हो रहे हो,यहां तक किसी अंधे को भी आप सबों की यह व्यग्रता दिखाई पड रही है.किसी को समझ ही नहीं आ रहा है कि यकायक ऐसा क्या घट गया कि आप सब ऐसे बावले हुए जा रहे हो सरकार बनाने के लिये....लेकिन हां,कुछ-कुछ तो हम सब्को समझ आ ही रहा है कि यह सब क्यूं हो रहा है...!!
             आप सब पर शायद आप सबके द्वारा किए गये घोटालों की तलवार लटक रही है ना शायद....आप सब वही है ना जो अभी से दस साल पहले से लेकर अभी कुछ दिनों पूर्व तक एक-एक कर बने दलीय या निर्दलीय मुख्यमंत्री थे..और उस दौरान आप और आपके साथियों ने क्या-क्या गुल-गपाडा किया था क्या आप सब उस सबको भूल गये...या आप चाहते हैं कि जनता उसे भूल जाये ...!!हा....हा....हा....हा....हा....मैं भी क्या-क्या बके जा रहा हूं....जनता तो वैसे ही सब कुछ भूल जाती है....तभी तो बार-बार आप सबों से धोखा खाने के बावजूद बार-बार आप सबमें से उलट-पुलट कर फिर-फिर से उन्हीं कुछ लोगों को वापस वहीं भेज देती है,जहां से अभी-अभी कुछ दिनों पहले ही लुट-पिट कर आयी थी....पता नहीं क्यों भारत की जनता के दिल में विश्वास नाम की चीज़ जाने किस अकूत मात्रा में ठूस-ठूस कर भरी हुई है कि साला खत्म ही नहीं होने को आता....और इसी के चलते पिछली बार ही चुनाव में हारा व्यक्ति इस बार फिर से जीत कर ठसके से संसद या विधान-सभा में जा पहुंचता है...और किसी की आंखे भी नहीं फटती...!!
                         पता नहीं क्यों यह कुडमगज जनता ऐसा क्यों सोचती है कि इस बार यह आदमी सुधर गया होगा....इस बार "सार" ई बबुआ सुधरिए गया होगा....और सत्ता के खेल के पिछ्वाडे में फिर से वही कुचक्र रचा जाने लगता है...फिर से राज्य-देश और संविधान के "पिछ्वाडे" में लातें जमायी जाने लगती हैं...और किसी भी माई के लाल को कभी भी यह अहसास नहीं हो पाता कि वह भी इसी मिट्टी की संतान है....और अभी कुछ दिनों पहले वह भी यहां के स्थानीय लोगों के साथ...जनम-जनम के साथ की तरह रहा करता था....यहीं की बोली-चाली में रचा-पगा वह यहीं के लोगों के साथ यहीं के वार-त्योहार मनाता था और यहीं के लोगों के दुख-दर्द-हारी-बीमारी-पीडा-म्रत्यु आदि में शरीक हुआ करता था...ऐसा लगता है कि राजनीति को उसने अपने "लिफ़्ट" कराने भर की सीढी मात्र बनाया हुआ था...और लिफ़्ट होते ही उसका इस परिवेश से-इस वातावरण से-इस सहभागिता से नाता ही टूट गया...किसी नयी दुल्हन बनी  लड्की की तरह...जैसे एक लडकी अपनी शादी के तुरंत पश्चात अपने पति के घर के नये वातावरण- नये परिवेश के अनुसार खुद को ढाल लेती है यहां तक कि थोडे ही दिनों में अपने बाबुल के घर कभी-कभार आने के अलावा सभी नातों से विरक्त हो जाती है...आप सब भी हे सरकार बनाने वालों शायद ठीक वैसे ही लगते हो मुझे....लेकिन दुल्हन का यह जो उदाहरण दिया है मैंने,यह अधुरा है अभी क्योंकि पूरी बात तो यह है कि यह दुल्हन ज्यादातर अपने घर को बनाती है,इसकी रखवाली करती है....इसके वंश को बढाती है....वंशजों को पालती है-पोषती है,उनकी रखवाली करती है...अपना खून भी देना पडे तो देकर उस घर की रक्षा करती है...!!
                             तुम जरा सोचो ओ सरकार बनाने वालों कि यदि यह दुल्हन अगर तुम्हारी तरह हरामखोर या विभीषण हो जाए तब....!!तब क्या होगा...??अरे होगा क्या....तुम्हारी संताने नाजायज होंगी और तुम्हे पता भी नहीं होगा....!!तुम्हारे सच्चे वंश का भी तुम्हे पता ना होगा....क्या तुमने कभी सपने में भी यह सोचा या चाहा है कि तुम्हारे घर में कभी ऐसा हो...तुम्हारी दुल्हन कोई वेश्या या दुश्चचरित्र हो....!!...अगर नहीं...तो ओ सरकार बनाने वालों....तुम अपने राज्य या देश रूपी घर के लिए ऐसा क्यूं और कैसे सोचा करते हो....और दिन-रात...अपने देश और राज्य के प्रति दुश्च्रित्रिय आचरण कैसे किया करते हो...??क्या तुम्हें इस बात का कोई भान भी है कि इसका असर तुम्हारे खुद के वंशजों पर क्या पडेगा....कभी तुमने ऐसा सोचकर देखा भी है कि कल को तुम्हारे बच्चे किसी स्कूल में पढ रहे हों या सडक पर कहीं जा रहे हों और उनके पीछे अचानक यह जुमला उनके कानों में आ पडे..."देखो हरामखोर की औलाद....!!""देखो वो जा रही उस साले हरामजादे की बेटी,पता है इसकी मां....!!""वो देखो...वो देखो क्या पहलवान बना फिर रहा साला....साला मर्सिडीज बेंज दिखाता है....बाप की हराम की कमाई...!!"
                लेकिन ये जुमले तो बडे साधारण हैं...आप कल्पना करो कि कैसे-कैसे और कितने-कितने गन्दे जुमले तुम्हारे बच्चे-बच्चियों के लिए सरे-राह,सरे-आम और किस टोन में इस्तेमाल किए जा सकते हैं...!!और तुम्हारी खून और वीर्य से उत्पन्न वो सन्तानें किस कदर शर्म से पानी-पानी हो सकती हैं....दोस्तों...जरा यह भी सोचो कि ऐसे वक्त उन पर क्या गुजरेगी,सो कोल्ड जिनके लिए-जिनकी खुशी के लिए तुम सब इन गन्दे कार्यों को अंजाम दे रहे हो.....!!!   
                             तुम सब अगर अपने लिए और अपने बच्चों के लिए उज्जवल और प्यारा भविष्य चाहते हो तो अपने राज्य-अपने देश को अपने माँ-बात की तरह इज्ज़त दो सम्मान दो....इसके निवासियों का हक़ लूटने के बजाय इनकी सच्ची रहनुमाई करो...इनकी खातिर और इनके हक़ का कार्य करो....अरे पागलों पैसा तो तब भी तुम्हारे हाथ पर्याप्त आ जाएगा....तुम क्यों हाय-पैसा--हाय पैसा किए जाते हो...क्यूँ नहीं समझते कि ये पैसा तुम्हारे भविष्य का कटु अन्धकार है...और तुम्हारी संतानों के लिए घोर श्रम से डूब मरने का एक साधन...अगर तुम्हें अपने आने वाले भविष्य के लिए गदगी ही छोडनी है तब तो कुछ कहा और किया नहीं जा सकता...मगर अगर सच में तुम्हें देश में पीडी-दर-पीडी अमर होना है और वो भी अपने नाम की सुन्दरता के रूप में तो मेरे अनाम भाईयों ओ सरकार बनाने वालों,अपने शौर्य को राज्य और देश की बेहतरी की खातिर खर्च करो....और देखना अगर तुम स्वर्ग के आसमान देख पाए तो,कि तुम्हारी संतानें तुम्हारे नाम पर क्या गर्वोन्मत्त जीवन जी पा रही है.....और सर उठाकर सबसे कहे जा रही कि हाँ....देखो यह हमारे पापा ने किया था.....देखो ये काम मेरे दादाजी ने किया था....!!!
सोमवार, 6 सितंबर 2010

"lafz" ke sampaadak ke bahaane aap sabko ek paigam....!!!!

मैं भूत बोल रहा हूँ..........!!

आदरणीय विनय कृष्ण उर्फ़ तुफ़ैल जी,
                               राम-राम
               अभी-अभी मेरी आजीवन सदस्यता वाली "लफ़्जका सितम्बर-नवम्बर २०१० का अंक पढ रहा था पेज बारह पर छ्पे श्री शंकर शरण जी के आलेख "माओवाद का अंधगानके मूल स्वर से यूं तो मैं सर्वथा सहमत हूं,मगर कुछ बातें जो मैं अपने चालीस-इकतालीस वर्षीय जीवन में समझ बूझ कर जीवन के प्रति कुछ ठोस समझ विकसित कर पाया हूं,उस समझ के अनुसार कुछ बातें कहने से खुद को मैं रोक नहीं पा रहा हूं,और आशा है कि ये बातें आपको मेरी गज़लों की तरह कूडा ना लगें.उपरोक्त आलेख के छ्ठे पैरे के एक वाक्यांश पर आता हूं,जो इस प्रकार उद्त है (अरुंधति के शब्दों में)
"....लोकतंत्र तो मुखौटा है,वास्तव में भारत एक ’अपर कास्ट हिन्दू-स्टेट है,चाहे कोई भी दल सता में होइसने मुसलमानों,ईसाइयों,सिखों, कम्युनिस्टों,दलितोंआदिवासियों और गरीबों के विरूद्द युद्ध छेड रखा है,जो उसके फ़ेंके गये टुकडों को स्वीकार करने के बजाय उस पर प्रश्न उठाते हैं..." उसके बाद के अगले पैरे में शंकर जी खुद कहते हैं कि यही पूरे लेख की केन्द्रीय प्रस्थापना है,जिसे जमाने के लिए अरुंधती ने हर तरह के आरोप,झूठ,अर्द्धसत्य घोषनाओं और भावूक लफ़्फ़ाजियों का उपयोग किया है..............."
               कभी-कभी जब हम एक ही विषय पर दो अलग-अलग तरह की बातें देखते-पढते या सुनते हैं तो अक्सर एक ही बात होती है,वो यह कि हम एक को लगभग बिना किसी मीन-मेख के स्वीकार कर लेते हैं और हमारे ऐसा करते ही वह दूसरी बात हमारे द्वारा एकदम से दरकिनार कर दी जाती है,मतलब यह कि यह भी अनजाने में तय हो जाता है कि उस दूसरी बात में कोई "सारही नहीं था,जबकि अक्सर हमारा ऐसा करना गलत ही साबित होता आया है.मैं पहले ही बता चुका हूं कि उपरोक्त लेख से मैं लगभग सहमत हूं,फिर भी अगर मैं कुछ कहना चाह रहा हूं,तो क्यों ना इसे थोडा समझ लिया जाए.
              अरुंधति के समुचे आलेख या किताब से पूरा विरोध प्रकट करते हुए भी एक बात जो है,वो हमारे जीवन में हमारे होश सम्भालते ही बार-बार हमारे सम्मुख आती है,वो यह कि हमारे खुद के जीवन में हमारे द्वारा नीची जातियों,गरीब लोगों,कमजोर लोगों के साथ किया जाने वाला कटु (कुटिल भी कहूँ क्या ??) "उल्लेखनीयव्यवहार....!!क्या इस बात से इंकार किया जा सकता है कि घर के अन्दर नौकरों,दुकान पर स्टाफ़ों और आफ़िस में तमाम तरह के कर्मचारियों के साथ हमारा व्यवहार किस कदर "रिजिडहोता है,किसी भी खास किस्म की बात पर हम तरह-तरह के वर्गों,लोगोंसमूहों के लिए किस तरह की शब्दावलियों का प्रयोग करते हैं,गुस्सा होने पर हम किस तरह से अपने सामने वाले "छोटे"कद के व्यक्ति का अपमान करते हैं और इस तरह के उदाहरणों में किन प्यारे-प्यारे शब्दों को अपने सभ्य,सु-संस्कृत,पढे-लिखे मुखमंडल से अपनी मीठी वाणी में किस प्रकार उच्चारित करते हैं.....??यह भूमिका आपको शायद मूल विषय से भटकती हुई लग रही होगी,मगर तुफ़ैल साहब ऐसा बिल्कुल भी नहीं है,बल्कि यह हमारे स्वभाव के "मूलरूपको दर्शाने और विषय को अपने पूरे वजूद के साथ प्रकट के उद्देश्य के रूप में है.
              क्या संविधानिक प्रस्थापनाओं से इतर भारत अपने मूल रूप में "अपर-कास्टरिजिड लोगों और खासकर ब्राह्मण लोगों के द्वारा के द्वारा संचालित नहीं है??जितना कि मैं जानता हूं,इसी इतिहास को पढकर,जो आपने-सबने पढा है,भारत अंग्रेजों के समय से बेशक अंग्रेजों का गुलाम था मगर उसके द्वारा किए जा रहे शासन की डोर भारत के इसी अपर कास्ट के हाथ में नहीं थी??,क्युंकि उस वक्त पढा-लिखा वर्ग यही हुआ करता था...??क्या अपनी रायबहादूरी,अंग्रेजों के प्रति अपनी स्वामी-भक्ति और अपने जीवन की ऐश-मौज को बनाए रखने के लिए क्या इसी वर्ग ने वाया ब्रिटिश सरकार,भारत के प्रति गद्दारी नहीं की थी...??राजपूतों(मैं खुद भी यही हूं)की आपसी रंजिश,ब्राहमणों के भयंकर एवं भगवान से भी ज्यादा ठसक वाले अहम के कारण ही क्या यह करोडों लोगों की आबादी वाला देश बेवजह ही सदियों तक थोडे से लोगों का गुलाम नहीं बना रहा....??और बीच-बीच में होने वाले आन्दोलनों की हवा इन्ही गद्दारों की वजह से नहीं निकली...??
                जी हां-जी हां मूल विषय पर  रहा हूं मैं....इन भूमिकाओं के मद्देनज़र अब मैं आप सबसे यह पूछना चाहता हूं कि इन स्थितियों में आज भी भला कहां और कौन-सा फ़र्क पैदा हो पाया है...और क्या आज भी यह "अपर-कास्ट" जरा भी बदल पायी है...??यह भारत में तमाम जगह पर जाकर निजी बातचीत कर के जाना जा सकता है कि हम आज भी किसी खास वर्ग,व्यक्ति या समूह के प्रति क्या राय रखते हैं और यही नहीं,अपनी उस राय को आज भी किन "संसदीय" शब्दों में व्यक्त करते हैं....!!अगर आप मेरे द्वारा उठाये गये इस प्रश्न की तह में जाने का रत्ती भर भी प्रयास करेंगे तो शायद आपकी आंखे भक्क रह जाएंगी...और दिमाग पागल....कि आज जिस युग में हम रह रहे हैं...उसमें इस तरह के विचारों और एक-दूसरे के प्रति इस तरह की राय को कायम रखते हुए कैसे एक-साथ रहा जा सकता है या कि कैसे एक साथ कार्य किया जा सकता है...??अगर तब भी यह हो रहा है तो यहां मैं यह जोडना चाहुंगा कि यह समय की मजबूरी भी है और साथ हमारे सभ्य होने का ढोंग भीकि कैसे हम अपने बाबा आदम जमाने के विचारों के बनाये रख आज के समय के साथ चलने का नाटक करते हैं और यह बात हमारे एक बेहतरीन-कुशल अभिनेता होने का परिचायक भी तो है..यह सब कहते हुए मैं अरुन्धति जी के विरोध में रहते हुए भी उनके इस वाक्यांश का अन्ध-समर्थक हूं हालांकि अरुन्धति जी ने ये ना भी कहा होता तो मैं सबके प्रति,हमारे और अपने प्रति भी यह अकाट्य राय रखता हूं कि हम "अपर-कास्ट" के लोग..........(भारत की तमाम संवैधानिक बाध्यताओं से परे हैं और अपनी तमाम मान्यताओं को कभी ना बदलने का संवैधानिक अधिकार कायम रखते हुए कुछेक लोगों के प्रति अपनी दुर्भावना को सदा कायम रखेंगे!!)........!!बाकि का आप खुद ही समझ लें(और पाठक तो वैसे भी काफ़ी समझदार हैं,कम-से-कम लफ़्ज़ जैसी पुस्तकों के रसिकगण....)
           मूल बात यह है कि व्यापारी,या ज्यादा सही शब्दों में कहूं तो बनिया बुद्धि के हम ज्यादातर "अपर-कासटीय" लोगों ने देश का जितना विकास नहीं किया है उससे कहीं बहुत-बहुत-बहुत ज्यादा सिर्फ़ और सिर्फ़ अपना हित-स्वार्थ ही साधा है....और इसके लिए हमने गरीब-कमज़ोर और छोटी जाति के  लोगों का सदा शोषण किया है....देश का विकास जो आज दिखायी पडता है क्या वो सचमुच देश का ही विकास है...??हमारे चारों ओर जो चकाचौंध दिखलाई पडती है क्या यह देश के विकास की ही चकाचौंध है....??अरे किसी मुहल्ले में भले चारों ओर गरीबों के पेट से हाय-हाय उठ रही हो....क्या उसकी आवाज़ सुनाई पड्ती है...??मगर किसी एक सेठ के घर में होने वाली पार्टी का शोर-शराबा और उसके जायकेदार भोजन की महक तो दूर-दूर तक जाती है...जाती है ना...??(बात निकलेगी तो फिर दूर............तलक जाएगी....!!)अब इसे आप देश का विकास कहिए कि निजी विकास कहिए कि क्या कहिए....सो आप जाने....!!
                     मूल बात तो यह है कि भले आप पढे-लिखे हों...आप हावार्ड में पढ्कर आये हुए हों कि आस्ट्रेलिया कि कहीं और से...भले आपके पास इतना अथाह पैसा हो कि आप सबको खरीद सकते हों....और आप किसी खास जगह पर ही कारखाना लगाना चाहते हों...और सरकारें आपके लिए "सेजसजाने के लिए ना जाने कितनी ही "चिता"को आग लगाने को तैयार बैठी हो.....मगर उन गरीबों ने,उन आदिवासियों ने आपका क्या बिगाडा है,जो कम पढे-लिखे है,या कि निरक्षर हैं,या कि भोले-भाले हैं और आपके अनुसार विकास-विरोधी और इस नाते देश-विरोधी कि जिनके खेतों की उपजाऊ उस जमीन,जो बाबा आदम जमाने से आपको रोटी उपजा कर देती आयी है...और अनन्त काल तक आपके लिए वह रोटी उपजाती ही रहेगी...!!,का ही हरण क्यों करना चाहते हैं...??आपने आज तक कितने लोगों को उनकी जमीन,मतलब उनकी रोटी,घर और जीवन की सुरक्षा को छीन कर उसका उचित मुआवजा दिया है...??देश को विकास की चकाचौंध का दिवा-स्वप्न दिखाने वाले आप थोडे-से लोग क्या सचमुच देश के विकास की ही इच्छा रखते हो,या सिर्फ़ अपना महल खडा करना चाहते हो,क्या किसी से छुपा भी हुआ है....??
          मूल बात यह है कि किसी बात का विरोधी होते हुए भी हमें इस बात का ख्याल रखना अत्यन्त जरूरी है कि हमारा विरोधी क्या सचमुच व्यर्थ ही विरोध कर रहा है कि उसके विरोध में कोई सार भी है....!!भारत के संविधान के विरोध करने वाली नक्सली बातों का विरोध करने वाले हम खुद कदम-कदम पर क्या कर रहे हैं और करते हैं...??क्या हम अपनी सोच...अपनी कार्य शैली ,अपने कार्यों और अपने "अपर-कास्टिय" अहंकार भरे व्यवहार के कारण हरेक पल संविधान विरोधी कार्य नहीं करते....??देश के विकास के नाम पर सिर्फ़ अपना हित साधना और राजनीतिक लोगों के स्वार्थों की पुर्ति करना और इसके लिए किसी भी हद तक जाकर अपने ही देश के गरीब लोगों का जर-जोरू-जमीन छीन लेना क्या संविधान-सम्मत है....??और अगर हमारे द्वारा तमाम जीवन ऐसे ही कृत्य किए जाने फल्स्वरूप अगर कोई व्यक्ति-समूह या वर्ग नक्सली या व्यवस्था विरोधी बन जाता है तो यह कसूर किसका है.....उसका या हमारा.....और हमारी थैली के चट्टे-बट्टों का.....??
          और अंत में मूल बात यह है कि देश का भला सोचने वाले हम.....संविधान नामक चीज़ की बडी-बडी बातें करने वाले हम......प्रशासन नाम की किसी चीज़ के होते हुए भी हमारे बीच से उसके बिल्कुल नदारद रहने के कारण सदा उसे बस आपस में ही पानी पी-पीकर कोसने वाले हम....यदि वास्तव में खुद चरित्रवान होकर अपने कायराना चरित्र को त्याग कर सत्ता-विरोधी सूरों के साथ अपना सूर मिला लें तो वास्तव में देश की तमाम सत्ताओं का सूर और चरित्र बदल सकता है....और तब वास्तव में देश की खुशहाली सबके लिए मौजूं हो सकती है....सब लोग तंत्र में शरीक हो सकते हैं...वतन की राह में वतन के नौजवान शहीद हों....का वास्तव अर्थ ध्वनित हो सकता है.....और तब सच बताऊं....!!कोई गलती से भी नक्सली नहीं बन सकता..!!

 
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