हम किसी को भी कोई सहारा नहीं दे पाते....सिवाय अपनी बातों के....और किसी हद तक अपने प्रेम को प्रदान करने के...जो प्रकृति ने हमें प्रदत्त किया है...हमें भी...जानवरों को भी....प्रेम हमेशा सेक्स ही नहीं होता....प्रेम एक घनिष्ठता है....प्रेम एक अंतरंगता है...प्रेम किसी के साथ अपनी एकरूपता है....प्रेम का कोई एक रूप भी नहीं....प्रेम ना तो पवित्र है....और ना पाप....वो तो बस नैसर्गिक है....और सबको ही प्रदान है...ईश्वर द्वारा...और जिनके लिए ईश्वर नहीं है...उनके लिए भी नैसर्गिकता तो है ही...प्रेम को आप कैसे व्यक्त करते हैं...क्या जो आंखों से व्यक्त किया जाए...वही प्रेम है...!!जब आप किसी को प्रेम करना चाहते हैं....तो उसे आपको कभी चूमना होता है...और कभी बाहों में ले लेना भी...कभी सहलाना भी प्रेम है...कभी...थपथपाना भी....ये प्रेम की अनिवार्य आंगिक क्रियाएं हैं...अगर आप इन्हे पाप करार देते हों तो यह आपकी मर्ज़ी है...वगरना प्रेम तो प्रेम है...और जब भी व्यक्त होगा....तब निस्संदेह कई फ़ुट की दूरी पर तो नहीं ही खड़े रहेंगे...अपने प्रेमी पात्र से....!!अब आपकी यहाँ पर भी वही सोच है.....तो सबसे पहले अपने बच्चों से ही प्यार करना छोड़ दीजिये.....प्रेम अगर कहीं-कहीं वासना भी है...तो आप उसे अपवित्र नहीं कह सकते...क्यूंकि धरती के किन्हीं वीरानों में रहते हुए भी...प्रेम के बारे में कुछ नहीं जानते हुए भी...यहाँ तक "प्रेम"नाम के इस पवित्र या अपवित्र शब्द तक को नहीं जानते हुए भी आप वही करेंगे...जो आपका मन या आपका शरीर आपसे करवाएगा...अब आपका शरीर भी अपवित्र है...और आपका मन भी ....तो फिर पूछिये उस ऊपरवाले से कि उसने आपको ऐसा "कामुक" शरीर क्यूँ दिया....और तो और उसमें ऐसा चिंतन करने वाला मन भी क्यूँ-कर बख्शा....किसी चीज़ को जरुरत भर किया जाए तो वह पवित्र है...और उससे ज्यादा.....तो वीभत्स...!!आप शरीर को घृणित मानते हैं..और प्रेम को अपवित्र.....और विश्व बाबा-आदम काल से बढ़ता ही बढ़ता चला जाता है...आपके पूर्वजों से लेकर आप सब वही करते चले आ रहें....हैं....और अपने बच्चों को ये सब घृणित है...ऐसा बताते हुए....आप सचमुच महान हैं......हे सभ्य और पवित्रतम मानव जी....उर्फ़ इंसान जी...उर्फ़ आदमी जी...उर्फ़ दो पाए के प्राणी जी...!!.....प्रेम का अर्थ आप-सबने क्या बना दिया है कभी सोचा भी है...तमाम शब्दों का अर्थ आपने क्या बना दिया है..कभी सोचा भी...प्यार क्या है.....कभी सच्ची-सच्ची सोचिये ना....कभी सच्चे-सच्चे प्रेम के दो बोल बोलिए ना...प्यार को ऐसा विराट रूप दीजिये ना कि ईश्वर हैरां हो जाए कि हाय इतना गहरा....!!...इतना अगाध......!!इतना असीम......!!इतना सुंदर.....अपनी सभी मानवीय....क्रियायों के बावजूद भी इतना पवित्र...और अंततः इतना पवित्र......!!(प्यार सेक्स के बावजूद पवित्र होता है...)प्यार के पंख खोल दीजिये ना....दुनिया अभी-की-अभी उड़ने को तैयार है...!!प्यार के बोल.....बोल दीजिये ना...दुनिया अभी-की अभी आपके सामने पसर जाने को तैयार है.....प्यार....प्यार...प्यार...बस प्यार....क्या आप सचमुच प्यार करने को तैयार हैं....!!??
Visitors
प्रेम के मायने क्या हैं.....!!
रविवार, 16 नवंबर 2008
हम किसी को भी कोई सहारा नहीं दे पाते....सिवाय अपनी बातों के....और किसी हद तक अपने प्रेम को प्रदान करने के...जो प्रकृति ने हमें प्रदत्त किया है...हमें भी...जानवरों को भी....प्रेम हमेशा सेक्स ही नहीं होता....प्रेम एक घनिष्ठता है....प्रेम एक अंतरंगता है...प्रेम किसी के साथ अपनी एकरूपता है....प्रेम का कोई एक रूप भी नहीं....प्रेम ना तो पवित्र है....और ना पाप....वो तो बस नैसर्गिक है....और सबको ही प्रदान है...ईश्वर द्वारा...और जिनके लिए ईश्वर नहीं है...उनके लिए भी नैसर्गिकता तो है ही...प्रेम को आप कैसे व्यक्त करते हैं...क्या जो आंखों से व्यक्त किया जाए...वही प्रेम है...!!जब आप किसी को प्रेम करना चाहते हैं....तो उसे आपको कभी चूमना होता है...और कभी बाहों में ले लेना भी...कभी सहलाना भी प्रेम है...कभी...थपथपाना भी....ये प्रेम की अनिवार्य आंगिक क्रियाएं हैं...अगर आप इन्हे पाप करार देते हों तो यह आपकी मर्ज़ी है...वगरना प्रेम तो प्रेम है...और जब भी व्यक्त होगा....तब निस्संदेह कई फ़ुट की दूरी पर तो नहीं ही खड़े रहेंगे...अपने प्रेमी पात्र से....!!अब आपकी यहाँ पर भी वही सोच है.....तो सबसे पहले अपने बच्चों से ही प्यार करना छोड़ दीजिये.....प्रेम अगर कहीं-कहीं वासना भी है...तो आप उसे अपवित्र नहीं कह सकते...क्यूंकि धरती के किन्हीं वीरानों में रहते हुए भी...प्रेम के बारे में कुछ नहीं जानते हुए भी...यहाँ तक "प्रेम"नाम के इस पवित्र या अपवित्र शब्द तक को नहीं जानते हुए भी आप वही करेंगे...जो आपका मन या आपका शरीर आपसे करवाएगा...अब आपका शरीर भी अपवित्र है...और आपका मन भी ....तो फिर पूछिये उस ऊपरवाले से कि उसने आपको ऐसा "कामुक" शरीर क्यूँ दिया....और तो और उसमें ऐसा चिंतन करने वाला मन भी क्यूँ-कर बख्शा....किसी चीज़ को जरुरत भर किया जाए तो वह पवित्र है...और उससे ज्यादा.....तो वीभत्स...!!आप शरीर को घृणित मानते हैं..और प्रेम को अपवित्र.....और विश्व बाबा-आदम काल से बढ़ता ही बढ़ता चला जाता है...आपके पूर्वजों से लेकर आप सब वही करते चले आ रहें....हैं....और अपने बच्चों को ये सब घृणित है...ऐसा बताते हुए....आप सचमुच महान हैं......हे सभ्य और पवित्रतम मानव जी....उर्फ़ इंसान जी...उर्फ़ आदमी जी...उर्फ़ दो पाए के प्राणी जी...!!.....प्रेम का अर्थ आप-सबने क्या बना दिया है कभी सोचा भी है...तमाम शब्दों का अर्थ आपने क्या बना दिया है..कभी सोचा भी...प्यार क्या है.....कभी सच्ची-सच्ची सोचिये ना....कभी सच्चे-सच्चे प्रेम के दो बोल बोलिए ना...प्यार को ऐसा विराट रूप दीजिये ना कि ईश्वर हैरां हो जाए कि हाय इतना गहरा....!!...इतना अगाध......!!इतना असीम......!!इतना सुंदर.....अपनी सभी मानवीय....क्रियायों के बावजूद भी इतना पवित्र...और अंततः इतना पवित्र......!!(प्यार सेक्स के बावजूद पवित्र होता है...)प्यार के पंख खोल दीजिये ना....दुनिया अभी-की-अभी उड़ने को तैयार है...!!प्यार के बोल.....बोल दीजिये ना...दुनिया अभी-की अभी आपके सामने पसर जाने को तैयार है.....प्यार....प्यार...प्यार...बस प्यार....क्या आप सचमुच प्यार करने को तैयार हैं....!!??
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
2 टिप्पणियां:
.प्रेम हमेशा सेक्स ही नहीं होता....प्रेम एक घनिष्ठता है....प्रेम एक अंतरंगता है...प्रेम किसी के साथ अपनी एकरूपता है....प्रेम का कोई एक रूप भी नहीं.......
भूतनाथ जी
प्रेम् की अनोखी व्याख्या के लिए शुक्रिया
प्रेम तो एक प्रवाह है जिसमें बह जाना चाहिए
एक सागर है जिसमें डूब जाना चाहिए
परन्तु
"प्यार को प्यार ही सहने दो कोई नाम न दो"
Sunaun mai kya aansuon ki haqikat
jo samjhe to sab kuch na samjho to paani....
Prem bhi kuch isi tarah ki chiz hai mere bhai..jo samajhta hai whi karta hai.
एक टिप्पणी भेजें