मैं भूत बोल रहा हूँ..........!!
१
१
आदमी को आदमी ने यूँ जकड रखा है
जैसे कि उसे किसी भूत ने पकड़ रखा है
हवा में सब तरफ ये घुटन सी किसी है
हवा की गर्दन को आदमी ने जकड रखा है
आदमी जूनून में इस कदर अंधा हो गया है
आदमी,आदमी हो नहीं सकता,ये पक्का है
आदमी को दो-दो आँखे हैं मगर क्यूँ फिर भी
हरेक दलदल में अन्धों की तरह लपकता है
कितना अन्धेरा है इस चकाचौंध के भीतर
वैसे तो आदमी सितारों की तरह चमकता है
कितना बड़ा मजाक किया है धरती के साथ
सूरज आग उगलता,अब्र बिन मौसम बरसता है
क्यूँ नहीं इसे पागलखाने में भारती करा देते
पहले गंदा करता है,फिर सफाई की बात करता है
जर्रे-जर्रे में वो बसा हुआ है,ये जानता है फिर भी
खुदा को मस्जिद में बसाने की बात करता है
मैं उसकी हर बात मान तो लूँ गाफिल मगर
वो बन्दा मुझसे भला बात ही कहाँ करता है !!
जैसे कि उसे किसी भूत ने पकड़ रखा है
हवा में सब तरफ ये घुटन सी किसी है
हवा की गर्दन को आदमी ने जकड रखा है
आदमी जूनून में इस कदर अंधा हो गया है
आदमी,आदमी हो नहीं सकता,ये पक्का है
आदमी को दो-दो आँखे हैं मगर क्यूँ फिर भी
हरेक दलदल में अन्धों की तरह लपकता है
कितना अन्धेरा है इस चकाचौंध के भीतर
वैसे तो आदमी सितारों की तरह चमकता है
कितना बड़ा मजाक किया है धरती के साथ
सूरज आग उगलता,अब्र बिन मौसम बरसता है
क्यूँ नहीं इसे पागलखाने में भारती करा देते
पहले गंदा करता है,फिर सफाई की बात करता है
जर्रे-जर्रे में वो बसा हुआ है,ये जानता है फिर भी
खुदा को मस्जिद में बसाने की बात करता है
मैं उसकी हर बात मान तो लूँ गाफिल मगर
वो बन्दा मुझसे भला बात ही कहाँ करता है !!
२
दर्द,जो कभी नहीं खत्म होता मेरे भीतर
दर्द,जो हर वक्त तड़पाता रहता है मुझे
दर्द,जो फिर भी जीने का हौसला देता रहता है
दर्द,जो हरदम भीतर बहता रहता है
दर्द,जिसने कभी जीना हराम नहीं किया
दर्द,जिसने मुझे हम सबसे जोड़ा हुआ है
दर्द,जिसने मुझे मानवता से पिरो़या हुआ है
दर्द,जो पता नहीं कितना तो रुलाता है मुझे
फिर भी इस दर्द का अहसानमंद हूँ मैं बहुत
यह दर्द,जो मेरे दिल का बोझ हल्का किया करता है
आंसुओं से सारी धरती को मुझमें समोया करता है
मेरा एक-एक आंसू एक-एक प्राणी का ही कोई दर्द है
यह दर्द बेशक बेहिसाब और अनंत है मुझमें
फिर भी ओ खुदा मेरी तुझसे ये ही इक इबादत है
और जितना दरद हैं तेरे पास,वो मुझमें भर दे
हर एक प्राणी-सजीव-निर्जीव को मुझमें भर दे
इस दर्द को मैं पीना चाहता हूँ,जीना चाहता हूँ....
दर्द से मेरी झोली भर दे.....
या खुदा तू वां से नीचे आ
अब मुझे खुदा कर दे....!!
दर्द,जो हर वक्त तड़पाता रहता है मुझे
दर्द,जो फिर भी जीने का हौसला देता रहता है
दर्द,जो हरदम भीतर बहता रहता है
दर्द,जिसने कभी जीना हराम नहीं किया
दर्द,जिसने मुझे हम सबसे जोड़ा हुआ है
दर्द,जिसने मुझे मानवता से पिरो़या हुआ है
दर्द,जो पता नहीं कितना तो रुलाता है मुझे
फिर भी इस दर्द का अहसानमंद हूँ मैं बहुत
यह दर्द,जो मेरे दिल का बोझ हल्का किया करता है
आंसुओं से सारी धरती को मुझमें समोया करता है
मेरा एक-एक आंसू एक-एक प्राणी का ही कोई दर्द है
यह दर्द बेशक बेहिसाब और अनंत है मुझमें
फिर भी ओ खुदा मेरी तुझसे ये ही इक इबादत है
और जितना दरद हैं तेरे पास,वो मुझमें भर दे
हर एक प्राणी-सजीव-निर्जीव को मुझमें भर दे
इस दर्द को मैं पीना चाहता हूँ,जीना चाहता हूँ....
दर्द से मेरी झोली भर दे.....
या खुदा तू वां से नीचे आ
अब मुझे खुदा कर दे....!!
३
तड़प रहा हूँ जा जाने किस बात पर
ओ कविता,
मुझमें शब्द-शब्द आकर रच जाओ ना
बाहर जो कुछ भी घटता है
मुझमें ही प्रस्फुटित होता है
मैं जैसे कोई कृष्ण हूँ
ओ गीता,
तुम मुझमें आकर बस जाओ ना
बहुत समय-सा बीत चुका है
हममें बहुत कुछ रीत चुका है
संस्कारों को हार चुके हैं अब हम
ओ रामायण,
तुम घर-घर आकर रम जाओ ना
बहुत सी बातें हम सब करते हैं
किसी बात पर मगर नहीं रहते हैं
हमारा संकल्प,हमारा स्वधन चूक गया है
ओ भगवन,हममें फिर से भगवत्ता लाओ ना
राम-नाम को भी भूल चुके हैं
आदर करना भी भूल चुके हैं
अपनी मिटटी-अपना देश क्या है
फ़ालतू की ये बातें हम भूल चुके हैं
ओ आत्मा
अगर तुम कहीं भी अगर आज भी हो
हममें से हमको निकाल लाओ ना
इक भारतवासी हमें बनाओ ना....!!
ओ कविता,
मुझमें शब्द-शब्द आकर रच जाओ ना
बाहर जो कुछ भी घटता है
मुझमें ही प्रस्फुटित होता है
मैं जैसे कोई कृष्ण हूँ
ओ गीता,
तुम मुझमें आकर बस जाओ ना
बहुत समय-सा बीत चुका है
हममें बहुत कुछ रीत चुका है
संस्कारों को हार चुके हैं अब हम
ओ रामायण,
तुम घर-घर आकर रम जाओ ना
बहुत सी बातें हम सब करते हैं
किसी बात पर मगर नहीं रहते हैं
हमारा संकल्प,हमारा स्वधन चूक गया है
ओ भगवन,हममें फिर से भगवत्ता लाओ ना
राम-नाम को भी भूल चुके हैं
आदर करना भी भूल चुके हैं
अपनी मिटटी-अपना देश क्या है
फ़ालतू की ये बातें हम भूल चुके हैं
ओ आत्मा
अगर तुम कहीं भी अगर आज भी हो
हममें से हमको निकाल लाओ ना
इक भारतवासी हमें बनाओ ना....!!
४
कुछ लिखने-बोलने का कोई अर्थ होता भी है क्या....
जबकि कुछ लिखे-बोले जाने का अर्थ कोई समझे ही ना....
बहुत कुछ बोला और लिखा जाता है हमारे चारों तरफ मगर
उसके अर्थों से मीलों दूर होता है लिखने और बोलने वाला अक्सर
ऐसे लिखने और बोलने वाले की बातों का अर्थ भी क्या
मगर कौन कितना सच्चा है,कौन कितना झूठा,यह कौन जाने ?
और कुछ कहने-लिखने वाले के अर्थ कोई भला क्यूँ पहचाने !!
और जब किसी भी बात का वास्तव में कोई अर्थ नहीं होना ठहरा
तो फिर बताईये ना दोस्तों कि कुछ लिखने-कहने का अर्थ ही क्या है ?
लिखना-कहना अगर सिर्फ शब्दों की नुमाईश भर है तब तो कोई बात नहीं
मगर सचमुच अगर उनका कोई अर्थ है वातावरण में तब तो
हर विचारणीय बात का अनुत्तरित रह जाना चिंताजनक तो है ना...??
बहुत कुछ कहा-लिखा जा रहा है हमारे चारों तरफ
मगर सूना-पढ़ा शायद कुछ भी नहीं जा रहा
शब्द-ही-शब्द फैलते जा रहें हैं हर पल हर वक्त
और उनका अर्थ....!!??कोई सुने या पढ़े तब तो....!!
हम सब क्यूँ बहुत कुछ लिखे जा रहे हैं.....??
हम सब क्यूँ बहुत कुछ कहे जा रहें हैं....??
आदमी की इस भीड़ में भी इक बहुत बड़ा बियाबां है-सहरा है....
इस बियाबां-इस सहरा में हम शायद तूती बजा रहे हैं....!!!
जबकि कुछ लिखे-बोले जाने का अर्थ कोई समझे ही ना....
बहुत कुछ बोला और लिखा जाता है हमारे चारों तरफ मगर
उसके अर्थों से मीलों दूर होता है लिखने और बोलने वाला अक्सर
ऐसे लिखने और बोलने वाले की बातों का अर्थ भी क्या
मगर कौन कितना सच्चा है,कौन कितना झूठा,यह कौन जाने ?
और कुछ कहने-लिखने वाले के अर्थ कोई भला क्यूँ पहचाने !!
और जब किसी भी बात का वास्तव में कोई अर्थ नहीं होना ठहरा
तो फिर बताईये ना दोस्तों कि कुछ लिखने-कहने का अर्थ ही क्या है ?
लिखना-कहना अगर सिर्फ शब्दों की नुमाईश भर है तब तो कोई बात नहीं
मगर सचमुच अगर उनका कोई अर्थ है वातावरण में तब तो
हर विचारणीय बात का अनुत्तरित रह जाना चिंताजनक तो है ना...??
बहुत कुछ कहा-लिखा जा रहा है हमारे चारों तरफ
मगर सूना-पढ़ा शायद कुछ भी नहीं जा रहा
शब्द-ही-शब्द फैलते जा रहें हैं हर पल हर वक्त
और उनका अर्थ....!!??कोई सुने या पढ़े तब तो....!!
हम सब क्यूँ बहुत कुछ लिखे जा रहे हैं.....??
हम सब क्यूँ बहुत कुछ कहे जा रहें हैं....??
आदमी की इस भीड़ में भी इक बहुत बड़ा बियाबां है-सहरा है....
इस बियाबां-इस सहरा में हम शायद तूती बजा रहे हैं....!!!
५
रहिये ऐसी जगह जाकर जहां कोई ना हो....
हमनवां कोई ना हो.....चारगां कोई ना हो....!!
हमनवां कोई ना हो.....चारगां कोई ना हो....!!
६
बहुत कुछ भूल पाना बहुत आसान तो नहीं होता मगर
बहुत कुछ को भूल जाना ही बेहतर होता है....!!
अगर हम भूल पायें बहुत कुछ को,तो यह हो सकता है
कि हमारे कुछ रिश्तों की कडुवाहट दूर हो जाए हमेशा के लिए
कि हम लिख सकें कोई नया इतिहास अपना प्रेम से भरा....
बहुत कुछ इतना ज्यादा गंदा होता है कि उसे
अपने भीतर बनाए रखना खुद को गटर बना लेना है
अगर खुद को गटर बनाना हमें अच्छा लगता है
तब तो मैं किसी को कुछ नहीं कहना चाहता मगर
बहुत कुछ भूल पाना बहुत आसान तो नहीं होता
मगर
बहुत कुछ को भूल जाना ही बेहतर होता है....!!
बहुत कुछ को भूल जाना ही बेहतर होता है....!!
अगर हम भूल पायें बहुत कुछ को,तो यह हो सकता है
कि हमारे कुछ रिश्तों की कडुवाहट दूर हो जाए हमेशा के लिए
कि हम लिख सकें कोई नया इतिहास अपना प्रेम से भरा....
बहुत कुछ इतना ज्यादा गंदा होता है कि उसे
अपने भीतर बनाए रखना खुद को गटर बना लेना है
अगर खुद को गटर बनाना हमें अच्छा लगता है
तब तो मैं किसी को कुछ नहीं कहना चाहता मगर
बहुत कुछ भूल पाना बहुत आसान तो नहीं होता
मगर
बहुत कुछ को भूल जाना ही बेहतर होता है....!!