खैर, घंटों इस एकतरफ़ा विमर्श के पश्चात् अपनी तरह से
वो मुझे जो ज्ञान प्रदान कर गए उसके पश्चात् मैं सोच में पड़ गया कि क्या सचमुच
धर्म के यही मायने है,जो कि ये मित्र साहब फरमा कर गए हैं,कि वस्तुतः हर धर्म मानवता कि शिक्षा देने वाला
है,जैसा कि मैंने समझा है !!
सचमुच दोस्तों अगर आप धर्म को सिर्फ व् सिर्फ तठस्थ दृष्टि से देखो तो इसमें
वाकई कट्टरता के लिए कोई जगह ही नहीं है,बल्कि हम कमजात लोग अपनी अल्प-बुद्धि के कारण धर्म की तरह-तरह की
"भयानक" व्याख्याएं कर इसे एक राक्षस बना देते हैं,सच तो यह है कि धर्म को हम किस तरह से लेते हैं यह हमारी अपनी निजी सोच है और
दूसरा इसे किस तरह से ले,यह उसकी अपनी निजी सोच और किसी को भी इस सोच
में दखल देने को कोई अधिकार नहीं है,क्योंकि यह भी सच है कि जैसे ईश्वर को कोई नहीं जानता और न ही उसे किसी ने
देखा है और इस नाते यह भी कहा जा सकता है कि उसने क्या कहा है यह भी कोई नहीं जानता
और ये सब जो ग्रन्थ आदि हैं वे सब मनुष्य के दिमाग की ही उपज हैं और फिर वही बात
कि जितने तरह के मनुष्य उतने तरह के विचार और जितने तरह के विचार-समूह उतनी तरह की
विचारधाराएँ भी हैं और ये सब विचारधाराएँ खुद को श्रेष्ठ मानने के चक्कर में दूसरी
विचारधारा को घटिया या कमतर मानने लगे, यही झगडे का मूल कारण है जो हमारे दिन-प्रतिदिन के व्यवहार में परिलक्षित भी
हुआ करता है !!
मगर मैं दोस्तों, आपसे यही बात कहना चाहता हूँ कि धर्म के नाम पर
मर जाने वाले इंसान को शहीद नहीं कहते बल्कि इंसानियत के लिए मर जाने वाले को
सच्चा धर्मी कहते हैं !धर्म अपने लिए यह नहीं कहता कि तुम मेरे लिए तलवार भांजो,या गोलियां चलाओ बल्कि धर्म यह कहता है कि
दूसरों को इतना अपना बना लो कि उसके लिए भी तुम्हें मरना पड़े तो तुम्हें कोई संकोच
नहीं हो !धर्म एक दुसरे की जान लेने का नाम नहीं,बल्कि एक-दुसरे के साथ एक-दुसरे को जीने देने का नाम है !अल्लाह-राम या जीजस
सब रहम-दया और करुणा के नाम है जो मानवता का परिपूर्ण रूप हैं ना कि किसी तरह के
कट्टरता-पूर्ण धार्मिक खांचे,जिन पर हमारे
एक्सीलेटर का दबाव बढ़ जाए तो सारी मानवता का विनाश ही हो जाए !!