गरीबी को देखा भी है....और महसूस भी किया है.....मगर इन दोनों बातों और ख़ुद के भोगने में बहुत अन्तर है....इसलिए गरीबी जीना....और महसूस करने में हमेशा एक गहरी खायी बनी ही रहेगी....लाख मर्मान्तक कविता लिख मारें हम....किंतु गरीबी को वस्तुतः कतई महसूस नहीं कर सकते हम...बेशक समंदर की अथाह गहराईयाँ नाप लें हम....!!!क्या है गरीबी.....अन्न के इक-इक दाने को तरसती आँखें...? कि बगैर कपडों के ठण्ड से ठिठुरती देह....??कि शानदार छप्पनभोगों का लुत्फ़ उठाते रईसों को ताकती टुकुर-टुकुर नज़रें....!!!कि इलाज़ के अभाव में इक ज़रा से बुखार से मौत का ग्रास बन जाती अमूल्य जिंदगियां......??कि नमक के साथ खायी जाने वाली रोटी या भात....??कि टूटे हुए छप्परों से बेतरह टपकता पानी....और बेबस-ताकती पथराई-सी आँखें....?? कि भयंकर धुप में कठोरतम भूख से बेजान शरीर से अथक और पीडादायी श्रम करते मामूली-से लाचार इन्सान....?
?कि जरा-सी गलती-भर से अपमानजनक टिप्पणियों तथा बेवजह मार का शिकार हो जाना.....??कि ज़रा-ज़रा-सी बात पर माँ-बहन की गंदी गालियों की बौछारें...??कि
कुछ सौ रूपयों में खरीद लेना इक जीवित इंसान का समूचा वक्त और पर्व-त्यौहार में भी अपना घर छोड़कर सेठजी की चाकरी...??कि छुट्टी या पगार बढ़ाने की किसी भी बात पर सेठजी की त्योरी और नौकरी से हटाने की धमकी.....!!कि किसी ऊँचे घर के कुत्ते-बिल्लियों से भी निम्नस्तरीय जीवन.....??कि धरती की गोया सबसे बदतरीन जगहों पर सूअरों की भांति ठुंसे हुए लोग....??कि गन्दा पानी पीते....झूठन खाते.....उतरन पहनते....हर वक्त मालिक की सलामी बजाते...जी-हुजूरी करते बस जिन्दगी काट लेने-भर को जिन्दगी जीते लोग.....!!कि दिन-रात मौत का इंतज़ार करती धरती की आबादी की आधी से ज्यादा आम जनता........यही गरीबी है... इस गरीबी क्या अर्थ है...??इस गरीबी को महसूसना भला कैसा हो सकता है....??इस गरीबी के विषय में लिखने के अलावा क्या किया जा सकता है....पता नहीं कुछ किया जा सके अथवा नहीं....मगर इस पर मर्मान्तक-लोमहर्षक गाथा लिख-कर कोई मैग्सेसे....नोबेल....फलाने या ढिकाने पुरस्कार तो अवश्य ही लिए जा सकते हैं....हैं ना......!!???
5 टिप्पणियां:
अच्छा लिखते हैं आप भूतनाथ नहीं ज्ञाननाथ लगते हैं
जाके पैर न फटी बिवाई वो का जाने पीर पराई . सच बयाँ करता प्रभावशाली लेखन .
जाके पैर न फटी बिवाई वो का जाने पीर पराई... vivek jee shi keh rhe hain..
regards
प्रणाम करता हूं आपको।
गरीबी को देखा भी है....और महसूस भी किया है.....मगर इन दोनों बातों और ख़ुद के भोगने में बहुत अन्तर है....इसलिए गरीबी जीना....और महसूस करने में हमेशा एक गहरी खायी बनी ही रहेगी....लाख मर्मान्तक कविता लिख मारें हम....किंतु गरीबी को वस्तुतः कतई महसूस नहीं कर सकते हम.
मगर इस पर मर्मान्तक-लोमहर्षक गाथा लिख-कर कोई मैग्सेसे....नोबेल....फलाने या ढिकाने पुरस्कार तो अवश्य ही लिए जा सकते हैं....हैं ना......!!???
सच कह दिया दोस्त आपने। कल मीत जी के ब्लोग पर भी इसी की चर्चा थी। चर्चा तो सदियों से हो रही है पर गरीबी वैसे ही बनी हुई हैं।
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