जिन्दगी है कि क्या है....!!कभी रेत के टीलों को बुहारती हुई
कभी जंगल की घास-फूस को समेटती हुई जिन्दगी चली ही जा रही है मेरे क़दमों के निशाँ को निहारती हुई बिल्ली की पदचाप की तरह बेहद चुपचाप इक साए की तरह मेरे जिस्म के साथ चिपकती हुई चल रही है हर पल और मौत भी मेरे ही संग चल रही है अपना आँचल संभालती हुई चिड़िया की तरह फुर्र हो जायेगी एक दिन कमबख्त यह मस्तानी जिन्दगी "सोच" फिर भी दाने चुग रही है मेरे मन में हर सांस में मेरे ख्यालों को निखारती हुई कभी...
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मंगलवार, 31 अगस्त 2010
koi sheershak nahin...........
सोमवार, 30 अगस्त 2010
main......भूत बोल रहा हूँ..........!
मैं भूत बोल रहा हूँ..........!!
इक पागलपन चाहिये कि चैन से जी सकूं…सब कुछ देखते हुए इस तरह जीया ही नहीं जाता…।मैं गुमशुदा-सा हुआ जा रहा हूं, अपनी बहुतेरी गहरी बेचैनियों के बीच…अच्छा होने की ख्वाहिश चैन से जीने नहीं देती…और बुरा मुझसे हुआ नहीं जा सकता…तमाम बुरी चीज़ों के बीच फ़िर कैसे जिया सकता है ??और सब कुछ को अपनी ही हैरान आंखों से…देखते हुए भी अनदेखा कैसे किया सकता है…??अगर मैं वाकई दिमागी तौर पर बेहतर हूं…तो लगातार कैसे अ-बेहतर चीज़ें जैसेघटिया व्यवहार,घटिया वस्तुएं,घटिया लोग,प्रेम से रिक्त ह्रदय एक-दूसरे से नफ़रत...
रविवार, 29 अगस्त 2010
kya kahun......??
मैं भूत बोल रहा हूँ..........!!
चीज़ें जब पढ़ते-सुनते-देखते हैं हम तो हमारी आँखें भी चमकने लगती हैं ना....??जब कुछ अच्छा होता है हमारे सामने...तो खुश हो जाते हैं हम.....है ना....??अच्छाई अकसर हमारे दिल को कोई सुकून-सा देती है...है ना....??अच्छाई हमारे भीतर ही कहीं होती है....ये भी सच है ना....??फिर अच्छा होना हमारी तलाश क्यूँ नहीं होती....??फिर अच्छाई हमारी मंजिल क्यूँ नहीं होती....??हम क्यूँ है यहाँ....इस धरती पर दोस्तों....अच्छाई अगर सचमुच हमारे भीतर ही कहीं है....तो हमारे आस-पास का माहौल ऐसा क्यूँ है....अगर...
सोमवार, 23 अगस्त 2010
धरती के उपर है एक और समन्दर....!!
मैं भूत बोल रहा हूँ..........!!
धरती के उपर है एक और समन्दर....!! शीर्षक देखकर बेशक थोडा अजीब लग सकता है मगर मेरे जानते धरती पर मौजूद उस समन्दर,जिसमें धरती का सत्तर प्रतिशत जल भरा है,के अलावा भी एक समन्दर है,जिसके बारे में हम जानते ही नहीं और शायद जानना भी नहीं चाहेंगे और इस समन्दर से धरती की एक बेहद छोटी-सी आबादी बडे भरे-पूरे ढंग से,जैसा कि वो अपने बाकी के अन्य साधनों के समुचित उपयोग करता है,उसी भांति वह इस समन्दर का भी अपने मन-माफ़िक इस्तेमाल करता है और मज़ा यह कि यह पानी उसे कभी कम नहीं पडता भले ही धरती की एक बडी आबादी पानी के आभाव में प्यासी मर रही हो या भले ही धरती के करोडों लोग (मर्द-औरत-बच्चे)अहले-सुबह मूहं-अन्धेरे ही पानी के जुगाड में मीलों दूर तक जा-जाकर अपने तसलों में पानी भर-भर लाते हैं,सौ-दो सौ सालों पहले ऐसा नहीं हुआ करता था मगर जबसे शहरीकरण का प्रकोप बढा और उद्योग-धंधों की आंधी आयी...और पानी का उपयोग एक आम आबादी के सम्यक उपयोग के उलट उपरोक्त लोगों(शहरी लोगों और उद्योगपतियों)की भेंट चढ गया.मज़ा यह कि लोगों की सभ्य जमात को पानी भी भरपूर चाहिये था मगर साथ ही इस पागल और मुर्ख समाज को पानी के तमाम श्रोतों को अपने पास रखे जाने से भी एलर्जी थी.इस करके पानी आदमी के आस-पास से दूर होता चला गया,मगर पानी के इस तरह दूर होने का कोई असर इस समाज को कभी नहीं भुगतना पडा,बल्कि इस छोटे से समाज की करनी,उसकी अंड-बंड आवश्यकताओं के पैदा पानी के अनाप-शनाप उपयोग के कारण एक बहुत बडी आबादी आज पानी की कमी से बेतरह त्रस्त है या पस्त है कहना ज्यादा समीचीन जान पड्ता है. आदमी का शुरूआती समाज अपनी आवश्यकता की वस्तुओं के स्त्रोतों के प्रति ना केवल सजग हुआ करता था,बल्कि उन स्त्रोतों के प्रति उसमें आदर का भाव भी हुआ करता था(भले आप यह कह लो कि यह आदर भय-जनित था!)और इस वजह से उस समाज ने इन स्त्रोतों की ना सिर्फ़ रखवाली ही की बल्कि उनका "उत्पादन" भी किया,यहां तक कि उनकी पूजा भी की !!और आप जिनकी पूजा करते हो उसे अनदेखा कभी नहीं कर सकते,उसे लतिया कभी नहीं सकते अगर आप सच में उसकी पूजा ही करते हो !!इस प्रकार आज से सैंकडों बरस पूर्व तरह-तरह की चीज़ों के प्राक्रितिक स्त्रोत जगह-जगह बल्कि कदम-कदम पर पाये जाते थे और यही मनुष्य उनकी रक्षा किया करता था,यह बात हम दूर ना भी जायें तो घर में ही उपस्थित हमारे बुजुर्गों की सलाह माने तो संभव हो सकता है,जो आज भी चीज़ों के सम्यक (जितना आवश्यक हो बस उतना भर ही)की राय देते हैं,मगर "लोचा" तो यह है कि बहुत सारी अन्य चीज़ों की तरह पानी की उपलब्धता भी आदमी के एक छोटे से वर्ग को इतनी आसानी से हो चुकी है कि वह पानी का समुचित उपयोग तो भला क्या जाने...उसका समुचित मुल्य तक भूल गया है..यही वो बिन्दु है,जहां समस्या के जन्म का एक बहुत बडा कारण मौजूद है! शहरी-करण ने जिस तरह धरती के समस्त साधनों को एक छोटे से वर्ग को आप्लावित कर बाकि के सारे लोगों को उन साधनों से वंचित कर दिया है,उसी तरह पानी का भी यही हाल है.मालूम हो कि इस धरती के कुछेक हज़ार शहरों में कुछ करोड पक्के मकान हैं और कुछ लाख ऊंची-ऊंची ईमारतें और सबसे अहम कुछेक लाख होटल्स,जिनकी छतों के ऊपर छोटी और मध्यम से लेकर बडी-बडी विशालकाय तक टंकियां हैं,जिनमें एक बहुत बडा नहीं भी कहें,तो छोटा-मोटा समन्दर तो अवश्य ही है,जिसमें बिना-किसी रुकावट के इतने-इतने अधिक पानी की उपलब्धता है,एक बटन दबाया कि पानी नीचे से छर्र-छर्र-छर्र-छर्र ये जा-वो जा ऊपर....पेशाब...
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