कब यहाँ से वहाँ.....कब कहाँ से कहाँ ,
कितनी आवारा है ये मेरी जिंदगी !!
जिंदगी-जिंदगी-जिंदगी-जिंदगी !!
कभी बनती सबा कभी बन जाती हवा ,
कितने रंगों भरी है मेरी ये जिंदगी !!
जिंदगी-जिंदगी-जिंदगी-जिंदगी !!
नाचती कूदती-चिडियों सी फूदती ,
चहचहाती-खिलखिलाती मेरी जिंदगी !!
जिंदगी-जिंदगी-जिंदगी-जिंदगी !!
याद बनकर कभी,आह बनकर कभी ,
टिसटिसाती है अकसर मेरी जिंदगी !!
जिंदगी-जिंदगी-जिंदगी-जिंदगी !!
जन्म से मौत तक,खिलौनों से ख़ाक तक
किस तरह बीत जाती है ये तन्हाँ जिंदगी !!
जिंदगी-जिंदगी-जिंदगी-जिंदगी !!
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जिंदगी-जिंदगी-जिंदगी-जिंदगी !!
रविवार, 12 जुलाई 2009
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4 टिप्पणियां:
भूतनाथ जी,
अच्छी रचना है पूरी जिन्दगी के विन्यास के समेटे हुये :-
जिन्दगी, जिन्दगी, जिन्दगी, जिन्दगी
एक फलसफा है जो धूप ने पढाया
घुटनों पे लगी चोटों ने सिखाया
आदमी नापता रह गया पके बालों से
हिसाब भर रह गया क्या खोया क्या पाया
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
जिन्दगी, जिन्दगी, जिन्दगी, जिन्दगी
तूने रंजो अलम के सिवा क्या दिया
आँख हम से मिला बात कर जिन्दगी
इक तरफ मौत है इक तरफ जिंदगी
'जन्म से मौत तक,खिलौनों से ख़ाक तक
किस तरह बीत जाती है ये तन्हाँ जिंदगी'
-जिन्दगी जीने के पने अपने अंदाज हैं. कोई हँस हँस के जी लेता है कोई रो रो के.
सुन्दर रचना है.
ये पंक्तियाँ बहुत अच्छी लगीं:
याद बनकर कभी,आह बनकर कभी ,
टिसटिसाती है अकसर मेरी जिंदगी !!
जन्म से मौत तक,खिलौनों से ख़ाक तक
किस तरह बीत जाती है ये तन्हाँ जिंदगी !!
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