कौन सी बात पर अकड़ गयी
बीच रस्ते में ही उम्र अड़ गयी
जिन्दगी लुढ़कती है गोया कि
जाने इसे कितनी चढ़ गयी !!
जब कहा कि अब मरना है
जिन्दगी मुझसे ही लड़ गयी !!
जीते-जीते ऐसा हो गया कि
जीने की आदत ही पड़ गयी !!
शान से जीना चाहता था मैं
हयात ही मेरे पर क़तर गयी
जब से पैदा हुआ हूँ गाफिल
लगता है तकलीफ बढ़ गयी !!
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हयात ही मेरे पर क़तर गई..........!!
गुरुवार, 7 मई 2009
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3 टिप्पणियां:
शान से जीना चाहता था मैं
हयात ही मेरे पर क़तर गयी
सुन्दर रचना है...
खूबसूरत रचना
जिंदगी चल नहीं रही है लुढ़क रही है मानो इतनी थकी हो कि इसे न जाने कितनी सीढियां चडनी पडी हों जीते जीते जीने की आदत पड़ गई ; जोरदार शेर (यद्यपि शेर के लिए जोरदार शब्द का प्रयोग अच्छा नहीं लगता मगर सभी कर रहे है ) जीना चाहता था (वह भी शान से )मगर जिंदगी ने मेरे पर काट दिया ;उत्तम /पैदा होने के बाद और मरने से पहले आदमी को तकलीफ तो रहती ही है /मगर बढ़ गई शब्द ने बजन बढा दिया है
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